मौत से स्टार जीतते हैं… आम आदमी नहीं

Beyond Headlines
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राजीव कुमार झा

जिंदगी की पिच पर कैंसर के घातक बाउंसर को बाउंड्री के पार भेजकर टीम इंडिया के धमाकेदार बल्लेबाज युवराज सिंह जब भारत लौटे तो उनका शानदार स्वागत हुआ. युवराज की मां शबनम जब मीडिया से मुखातिब हुईं तो उनके चेहरे की खुशी हजारों कैंसर रोगियों के लिए एक नई उम्मीद की तरह थी.

जल्द ही युवराज सिंह का कैंसर को हराना एक मार्केटिंग स्ट्रेट्जी बन गया और उनका विजयी चेहरा उम्मीद और हौसला बेचने का नया ब्रांड. पूरे देश ने युवराज सिंह को कैंसर को हराने के लिए शुभकामनाएं भी दी. स्वयं युवराज भी अब कैंसर पीड़ितों के कल्याण के लिए काम कर रहे हैं.

यह युवराज सिंह थे जो कैंसर हार गया, अगर बात आम आदमी की हो तो कैंसर जीत जाता है और जिंदगी हार जाती है. यहां बिहार के अमर छतौनी की 28 वर्षीय शाहिदा स्थानीय चिकत्सकों के गैर-जिम्मेदाराना रवैये के कारण उसी कैंसर बीमारी से अपनी जिंदगी हारने वाली है. शाहिदा हार रही है क्योंकि वो वीवीआईपी नहीं या फिर कोई राजनेता, बॉलीवुड स्टार या कोई महान खिलाड़ी नहीं है…

चूंकि शाहिदा एक आम औरत है इसलिए वो कैंसर से हार रही है. न ही शाहिदा की बीमारी किसी के लिए खबर है और न ही उसे बचाने की किसी को कोई चिंता. यहां सबसे दुखद पहलू यह है कि हमारे देश में सरकारी सुविधाएं पाने के लिए सुर्खियों में आना ज़रूरी होता है और सुर्खियों में आने के लिए खास होना जरुरी होता है. चूंकि शाहिदा खास नहीं इसलिए जिंदगी के लिए उसकी जद्दोजहद खबरों में नहीं और वो खबरों में नहीं है इसलिए किसी डॉक्टर को उसकी जान की परवाह नहीं है.

एक ओर जहां शबनम युवी की कुशलता पर गदगद हैं वहीं लैला खातून की आंखें अपनी लाडली शाहिदा को लेकर सूख सी गई हैं. यह विडम्बना है कि एक ओर जहां सरकार ने देश में 19 क्षेत्रीय कैंसर संस्थान स्थापित किये हैं, तथा कैंसर की दवाओं पर हाल में ही 75 फीसदी की सब्सिडी देने की घोषणा की है वहीं दूसरी ओर हर साल हजारों की संख्या में कैंसर पीड़ितों की मौत हो रही है.

सरकार के तमाम दावों के बावजूद कैंसर के आगे जिंदगी हार रही है. लेकिन सवाल यह है कि जब युवराज सिंह कैंसर से जंग जीत सकते हैं तो फिर आम आदमी क्यों नहीं? क्यों आम आदमी अपनी अनमोल जिंदगी को हार जाता है?

कैंसर के आगे आम आदमी की हार में सबसे बड़ा हाथ अर्थालोभी गैर-जिम्मेवार स्थानीय चिकित्सकों का नजर आता है. ये डॉक्टर शुरुआत में इस बीमारी को  या तो पहचान नहीं पाते या फिर पहचान कर भी नहीं बताते. अंत-अंत तक पीड़ित से अर्था दोहन किया जाता है और जब हालात बेहद गंभीर हो जाता है तब हाथ खड़े कर किसी दूसरे जगह रेफर कर दिया जाता है.

शाहिदा के वृद्ध पिता ज़हीर अहमद बताते हैं कि शाहिदा को पेट दर्द की शिकायत रहती थी. उसे मोतिहारी के दीलिप कुमार, डा तबरेज़ आदि, बेतिया के डा. शुक्ला के अलावा बगहा, पटना, गोरखपुर, बनारस और अंत में बड़ी मशक्कत के बाद एम्स( दिल्ली )दिखाया गया. शाहिदा की तीन वर्षीय बेटी और चार वर्षीय बेटा की ओर देखते हुए जहीर कहते हैं कि स्थानीय डॉक्टरों ने जम कर आर्थिक शोषण किया, बीमारी भी नही बताई. कहते थे गैस की समस्या है… एम्स  जैसे संस्थानों में भला इतनी जल्दी कैसी इलाज हो  पाता. हम जब तक वहां गए काफी देर हो चुकी थी. पटना में एम्स चिकित्सकों की राय पर कीमोथेरेपी भी हुआ पर कोई असर नहीं… और अब शाहिदा हमसे महरूम होने की उलटी गिनती गिन रही है.

बिस्तर पर मौत का इंतेजार कर रही बेटी की ओर देखते हुए जहीर अहमद की आंखों में आंसू आ जाते हैं. बड़ी हिम्मत जुटाकर वो कहते हैं कि शाहिदा तो चली जाएगी. किसी दूसरी शाहिदा को मत जाने दीजिए. इन शब्दों के साथ जहीर की सांसें रुकी तो सीने में मेरी भी धड़कन रुक गई.

बहरहाल, यह अकेले किसी शाहिदा की कहानी नहीं है. यह तमाम उन कैंसर पीडितों की कहानी है जो अर्थ की दृष्टी से पिछड़े हैं और स्थानीय चिकित्सकों के चंगुल में फंस कर न केवल आर्थिक शोषण करवाते हैं, बल्कि बल्कि अंततः अपनी अनमोल जिंदगी से हाथ धो बैठते हैं. बिहार सहित अनेक राज्यों की कमो-बेश यही स्थिति है.

सरकारी सदर अस्पतालों, स्वास्थय केन्द्रों, उप स्वास्थ्यकेंद्रों की स्थिति (खासकर देहाती इलाकों में) इतनी बदतर है कि संभव है कि इसमें पदस्थापित डॉक्टर किसी मरीज़ के घाव के लिए पाइल्स की दवा दे दें, फलेरिया होने पर मलेरिया की दवा दे दे. इन सरकारी अस्पतालों में सुबह सुबह बकरियां एवं कुत्ते चहलकदमी करतें मिल जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं. रही बात कैंसर संस्थाओं की तो आम आदमी के लिए वहां पहुचना एक मुश्किलों भरा सफर होता है. या तो वह अर्थालोलुपी और स्वार्थ सिद्द्धि में अंधे स्थानीय डॉक्टरों से लुट कर टूट चुका होता है या फिर यहाँ तक आते आते काफी देर हो गई होती है.

शोध बताते हैं कि 2005 तक भारत में लगभग आठ लाख और 2010 तक पन्द्रह लाख से ऊपर लोग कैंसर की बीमारी से मौत की मुह में समा चुके हैं. यह मौत का खेल अनवरत जारी है. एक सर्वे के मुताबिक़ कैंसर के मिलने वाले मामलों में 75 फीसदी मामले फेफड़े, मुंह और गालों के कैंसर में पाए जाते हैं. महिलाओ में स्तन कैंसर में मामले काफी अधिक पाए जाते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2005-2015 में विश्व लगभग आठ करोड़ 40 लाख लोग कैंसर की चपेट में आने से मरेंगे.

बता दें कि भारत में सिगरेट एवं अन्य तंबाकू उत्पाद अधिनियम 2003 तो ज़रुर बनाया गया. लेकिन यह महज कागजी हीं साबित हुआ. एक ओर जहा इस अधिनियम की घोषणा हो रही थी तो दूसरी ओर टेलीविजन पर शराब, बियर और सिगरेट के विज्ञापन बालीवुड के स्टार्स द्वारा किया जा रहा था (बताते चलें कि अमिताभ से लेकर शत्रुधन सिन्हा तक बैगपाइपर शराब का विज्ञापन कर चुके हैं.)

लोगों की लापरवाही, सरकारी की अनदेखी और स्थानीय डॉक्टरों की बदनियती का आज नतीजा यह है कि कैंसर महामारी बनता जा रहा है जबकि युवराज सिंह का उदाहरण बताता है कि शुरुआती स्तर पर यदि इसे पहचान लिया जाए तो इलाज संभव है. कैंसर का इलाज खोजने के लिए किए जा रहे है शोधों के अनुसार मल-मूत्र में खून का आना, खून की कमी से अनीमिया,  खांसी के दौरान खून, स्तन में गांठ, कुछ निगलने में परेशानी, मिनोपौस के बाद खून और प्रोटोस्ट के परिक्षण के असामान्य परिणाम जैसे लक्षण दिखते ही तुरंत किसी कैंसर विशेषज्ञ या बड़े अस्पताल में संपर्क करना चाहिए. कैंसर की कोशिकाओं की रोकथाम के लिए विटामिन बी-12 की अधिक मात्रा में सेवन काफी आवश्यक है.

लेकन सबसे बड़ा सवाल है कैंसर की पहचान के बाद इलाज की उपलब्धता का. क्या आर्थिक तंगी झेलते लोग जो रोटी कपड़ा और एक साधारण सा मकान भी जुटा पाने के लिए काफी मशक्कत कर रहे हैं वो कैंसर से ग्रसित होने पर कीमोथेरेपी, मोनोक्लोनल प्रतिरक्षी चिकित्सा, एंटी सीडी 20 रितुक्सिमेब, प्रकाश गतिकी चिकित्सा जैसी महंगी इलाजें क्या करा पायेंगे? अर्थाभाव के मारे साधारण मरीज बड़े कैंसर संस्थानों में नहीं पहुंच सकते और जो गांव-गवई में सरकारी स्वस्थ्य केंद्र हैं वहां हाल ऐसे हैं कि ढंग से मलेरिया का इलाज भी संभव नहीं है. वहां कभी महीनों तक दवाई उपलब्ध नहीं होती तो कभी चिकित्सक. ऐसे में कहां जाए गरीब और कैसे न मरे शाहिदा?

(लेखक बिहार विश्वविद्यालय में पत्रकारिता में शोध छात्र हैं और  इनसे cinerajeev@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

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