राजीव यादव
दरभंगा अब राज्य प्रायोजित आतंकवाद के प्रतिरोध का केंद्र बन रहा है. हमने आजमगढ़ में बहुत क़रीब से देखा है कि किस तरह अपहरणकर्ता-अपराधी एटीएस-एसटीएफ के लोगों को दौड़ा-दौड़ा कर, पकड़कर पूछताछ की गई और
गैर-कानूनी गिरफ्तारियों और छापेमारी को रोका गया. यह सिलसिला दरभंगा में भी शुरु हो चुका है. जिस तरह यूपी में एक दौर में आतंकवाद के नाम पर हो रही फर्जी गिरफ्तारियों को लेकर एसटीएफ अधिकारियों के नार्को टेस्ट और उसे भंग करने की मांग मुद्दा बनी, आज उसी तरह एक बार फिर से एटीएस के खिलाफ भी ऐसा माहौल बन रहा है. यह जद्दोजहद फांसीवादी/सैन्यवादी मानसिकता वाले राज्य की नीतियों के खिलाफ लोकतांत्रिक राज्य के लिए है. इस मुहीम में सियासत तो बदलेगी ही बेगुनाहों को भी छोड़ना पड़ेगा.
13 मई को सऊदी से अपहरण किए गए फ़सीह महमूद जिन्हें आज तक पेश नहीं किया गया, की पत्नी निकहत परवीन बता रही थीं कि दरभंगा से फिर किसी को उठाने जा रहे थे. कुछ लोग एक कार में बैठे थे और उनमें से एक सामने वाले डाक्टर के क्लीनिक में देखने गया. एक बन्दे को बुलाकर कहा कि उस कार वाले लोग तुम्हें बुला रहे हैं. जब वो उस कार के पास गया तो पुलिस वालों ने (जो कि सिविल ड्रेस में थे) उसका अपहरण करने का प्रयास किया. आस-पास के लोगों ने जब कार को रोका और उस बंदे को निकाला तो पुलिस वाले वहां से भाग गए. इसी तरह की घटना एक और गांव में हुई जहां पर बाद में एटीएस वालों ने आकर माफी मांगी कि वो लोग गलती से उसे उठाने आए थे. निकहत आगे कहती हैं कि अगर लोगों ने बचाव नहीं किया होता तो आज उनकी गलती नहीं होती बल्की एक बड़ा नया आतंकवादी पकड़ा गया होता.
इसी तरह आजमगढ़ में भी हुआ था. जब वहां आतंकवाद के नाम पर दमन हो रहा था तो आम नागरिकों ने गांव-गांव पर्चे बांटे थे कि अगर अपका कोई करीबी गायब है तो आप इन सरकारी और मानवाधिकार संगठनों के नम्बरों पर फैक्स-फोन-ईमेल करिए. एटीएस-एसटीएफ के आतंक के खिलाफ ग्राम सुरक्षा कमेटियां बनाई गईं. आज फिर उसी आंदोलन की दस्तक दरंभगा में भी हो चुकी है.
नीतिश सरकार बताए कि आखिर उसके सुशासन वाले राज्य में बिना नम्बर प्लेट की एटीएस कैसे घूम रही है? नीतिश को याद रखना चाहिए कि आजमगढ़ जिसे आतंकवाद की नर्सरी के बतौर स्थापित करने की राज्य ने कोशिश की वहां के लोगों ने पिछले 2009 के लोकसभा और 2012 के विधानसभा चुनाव के एजेण्डे को बदल दिया. बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ के बाद आज़मगढ़ में बनी राष्ट्रीय उलेमा कांउसिल अपने आप में एक नई राजनीति की दस्तक थी.
कांग्रेस ने चुनावों में हुई अपनी करारी हार का कारण भी इसे माना. सत्ता में आई मुलायम सरकार ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में इस बात को कहा था कि वो सरकार में आएगी तो आतंकवाद के नाम पर पकडे गए बेगुनाहों को छोड़गी.
आज सपा के सत्ता में आने के बाद लगातार सरकार को राजनीतिक दल और मानवाधिकार संगठन इस बात पर घेरे हुए हैं. सरकार के नुमाइंदे बार-बार छोड़ने की प्रक्रिया के बारे में बयान देते नज़र आते हैं. इसकी तस्दीक लखनऊ की दीवारों पर चिपके ‘वादा निभाओ’ पोस्टर, खूफिया और एटीएस की साम्प्रदायिकता के खिलाफ और ‘खुफिया एजेंसियों द्वारा संचालित इंडियन मुजाहिदीन पर श्वेत पत्र जारी करो’ की मांग वाले बैनर करते हैं.
आतंकवाद के नाम पर बेगुनाहों की रिहाई के लिए पिछली 30 जून को विधान सभा घेराव के एक दिन पहले ही यूपी के एडीजी (कानून व्यवस्था) जगमोहन यादव को कहना पड़ा कि एटीएस और जिलों के कप्तानों से ऐसे मामलों को चिन्हित करने को कहा गया है, जिनमें फर्जी धरपकड़ की शिकायत है. खैर, जो भी हो अगर सपा सरकार
स्वतंत्रता दिवस तक आतंकवाद के नाम पर पकड़े गए निर्दोषों को नहीं छोड़ती है तो इसके खिलाफ़ एक बड़े जनआन्दोलन की तैयारी हो चुकी है.
सैकड़ों दलितों के हत्यारे ब्रम्हेश्वर मुखिया को रिहा करने वाली नीतिश सरकार बताए कि उसके राज्य के क़तील सिद्द्की को पुणे की जेल में मार दिया जाता है और उसी के गावं बाढ़ समेला, दरभंगा के फ़सीह महमूद का दो महीनों से भारतीय एजेंसियों ने अपहरण किया, इस पर उसने क्या किया? उसे ही नहीं बिहार में पसमान्दा मुसलमानों की राजनीति करने वाले और ‘मसावात की जंग’ जैसी मुस्लिम समुदाय पर गम्भीर किताब लिखने वाले अली अनवर अपनी चुप्पी तोड़े. कुछ दिनों पहले बिहार के मधुबनी जिले के सकरी क्षेत्र से फिर एक व्यक्ति के उठाने की ख़बर सामने आई थी.
नीतिश बाबू! दरभंगा की गलियों में राज्य प्रायोजित आतंक का जो बीजारोपण हुआ है, उसे जाकर देखिए कि किस तरह लोगों का जीना मुहाल हो गया है. पिछले दिनों दरभंगा के मानवाधिकार नेता शकील शल्फी बता रहे थे कि महेश पट्टी के एक लाज से पुलिस वाले कुछ मुस्लिम लड़कों को उठा ले गए और दो दिन बाद उन्हें यह लिखवाते हुए छोड़ा कि हम अपनी मर्जी से आए थे. नीतिश जी, ज़रा अपना कामन सेन्स लगाइए कि जिस इलाके में खाकी वर्दी क्या किसी हट्टे-कट्टे मोटे आदमी को पुलिस वाला समझकर लोग दहशत में जी रहे हैं, वहां कोई अपनी मर्जी से पुलिस वालों के पास जाएगा?
शकील बताते हैं कि मुंबई एटीएस के नाम से दरभंगा के कुछ लड़कों को फोन करके उन्हें धमकाते हुए मुंबई आने का दबाव बनाया गया कि चुपचाप बिना किसी को बताए वो मुंबई पहुंचें. कुछ दिनों पहले बैंग्लोर में इंजीनियरिंग पढ़ने वाले अब्दुल निसार को लंबे समय तक एटीएस ने पूछताछ के नाम पर यातना दी. वह डर के मारे किसी को कुछ नहीं बता रहा था पर उसके शरीर पर गंभीर चोट के निशान देखकर जब परिजनों ने पूछा तो वह रो-रो कर एटीएस की यातना की लंबी दास्तान बताने लगा. लगातार परिजनों को एटीएस की धमकी मिल रही है और वह
पढ़ाई छोड़कर गांव में डर-डर कर रह रहा है.
इसी तरह आज़मगढ़, संजरपुर के अबू राशिद पर मुंबई के क्राइम ब्रांच ने दबाव बनाया कि वो मुंबई आए और इसके लिए वे उनके भाई अबू तालिब को उठाकर आज़मगढ़ ले आए और फिर अबू राशिद को संजरपुर गांव के लोगों ने इस भरोसे के साथ आजतक टीवी चैनल की मौजूदगी में विदा किया कि जांच करके वो लोग छोड़ देंगे? पर उनके भरोसे को मुंबई क्राइम ब्रांच ने तोड़ दिया और रास्ते से अपहरण कर लिया और आज तक किसी अदालत में पेश नहीं किया और उसे फ़रार बताती है. सवाल यह है कि अगर उसे फ़रार होना होता तो वह सार्वजनिक तौर पर जाता ही क्यों? पर इसका जवाब आज़मगढ़ ने दिया जहां राज्य आजमगढ़ को आतंकवाद के नाम पर निर्दोषों के उत्पीड़न का केंद्र बनाने पर तुला था वहीं आजमगढ़ आंदोलन का केंद्र बनकर उभरा.
नीतिश जी, रमजान का महीना चल रहा है और आप और आपके नुमाइंदे इफ्तार करने-करवाने की तैयारी में भी होंगे. क्या आपको मालूम हैं कि आपके राज्य की राजधानी पटना से कुछ सौ किलोमीटर दूर की रहने वाली लड़की निकहत परवीन अपने पति फ़सीह महमूद जिसे भारतीय एजेंसियों ने दो महीनों से गायब किया है, की खोज में दर-दर भटक रही है? यहां तक कि पिछले दिनों इंटरपेाल ने कहा है कि जब तक भारत चार्जशीट नहीं देता तब तक हम फ़सीह को भारत को नहीं सौंप सकते.
उत्तर प्रदेश में राज्य प्रायोजित आंतकवाद के खिलाफ शुरु हुए आंदोलन की शुरुआत आपको जानना चाहिए. 2007 में उत्तर प्रदेश की कचहरियों में हुए धमाकों के बाद 12 दिसंबर को आजमगढ़ से तारिक कासमी और 16 दिसम्बर को मडि़याहूं से खालिद का अपहरण यूपी एसटीएफ ने किया था. जिसके बाद आज़मगढ़ में ज़बरदस्त आंदोलन हुआ और नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी के नेता चौधरी चन्द्रपाल सिंह ने कहा कि अगर 22 दिसंबर 2007 तक तारिक़ को नहीं लाया गया तो वे आत्मदाह कर लेंगे. एसटीएफ ने 23 दिसंबर को तारिक-खालिद को बाराबंकी से गिरफ्तार करने का दावा किया. जन-आन्दोलनों के दबाव में पिछली मायावती सरकार को यूपी एसटीएफ द्वारा की गई इस फर्जी गिरफ्तारी पर आरडी निमेष जांच आयोग का गठन करना पड़ा और जब से सपा की सरकार बनी है वो इतने दबाव में है कि उसके नुमांइदे बार-बार छोड़ने की बात करते हैं.
कतील सिद्दीकी हों या फिर बाटला हाउस में कत्ल किए गए साजिद-आतिफ, वे भले जीते जी इस क्रूर राज्य व्यवस्था में न्याय नहीं पाए, पर इनकी शहादत और न्याय के लिए चल रहा आंदोलन ही फांसीवादी नीतियों को रौंदते हुए एक लोकतांत्रिक राज्य को कायम करेगा. सियासत भी बदलेगी और बेगुनाह अपने घरों पर लौंटेंगे भी, जहां उनके अपने ब्रेसब्री से उनका इन्तजार कर रहे हैं.
(नोट: सोशल मीडिया पर भी अब बेगुनाह मुसलमानों के रिहाई के लिए आंदोलन शुरू हो चुका है. आप भी नीचे दिए लिंक पर जाकर इस आन्दोलन से जुड़ सकते हैं.)