आशीष कुमार अंशु
तीन महीने पहले जब फेसबुक पर मैंने लिखा था कि टीम अन्ना, अन्ना पार्टी बनने पर विचार कर रही है तो मेरे कई मित्र नाराज हुए थे. उनका कहना था कि इस तरह की अफ़वाह लोग टीम अन्ना को कमजोर करने के लिए उड़ा रहे हैं.
यह बात सुनते हुए आपको थोड़ी अजीब भी लग सकती है कि गैंग्स ऑफ वासेपुर और अन्ना आन्दोलन – माने दोनों के समर्थक लॉबी का आलोचकों को दिया गया जवाब, एक जैसा ही था. ‘पार्ट टू आने दो.’
गैंग्स ऑफ वासेपुर का पार्ट टू तो आ गया. टीम अन्ना का पार्ट टू जो पार्टी केजरीवाल के नाम से बनाने की तैयारी चल रही है, वह भी कुछ ही महीनों में रिलीज होगी.
जब फेसबुक पर राजनीतिक पार्टी वाली बात लिखी, उसके बाद से ही एक साथी, हर दस-पन्द्रह दिनों पर एक बार फोन करके पूछ लेते थे कि कब बनवा रहे हो पार्टी? और मैं कहता था, इंतजार कीजिए…
चूंकि घोषणा के कई महीने पहले से अरविन्द केजरीवाल कई विद्वानों से अपनी राजनीतिक मंशा को लेकर चर्चा कर रहे थे. अरविन्द ने जगह-जगह पार्टी को लेकर बात की लेकिन इसे लेकर कहीं चर्चा नहीं की तो वह थी उनकी अपनी कोर कमिटी. टीम अन्ना की कोर कमिटी. काज़मी साहब की विदाई के बाद से ही टीम के अंदर विश्वास की कमी जो पहले से थी और बढ़ गई. शायद इसी का परिणाम था कि पिछले दो महीने से कोई मीटिंग नही हुई. इस बार अरविन्द, मनीष, गोपाल उपवास पर बैठेंगे और बाद में अन्ना उसमें शामिल होंगे, यह निर्णय कोर कमिटी का निर्णय नहीं है. पारदर्शिता की बात करने वाली टीम अन्ना ने उस समिति की मीटिंग भी नहीं कराई, जिसे आमद-खर्च का हिसाब रखना था. हर आमद पर और खर्च पर जिसकी सहमति ज़रूरी थी. यहां बड़ा सवाल यह हो सकता है कि कौन ले रहा है, टीम अन्ना के महत्वपूर्ण फैसले? अन्ना हजारे या अरविन्द केजरीवाल?
अरविन्द केजरीवाल के राजनीतिक पार्टी बनाने की सार्वजनिक घोषणा से पहले , राजदीप सरदेसाई को साक्षात्कार में अन्ना हजारे द्वारा पार्टी बनाने की बात कहे जाने से एक दिन पहले उन मित्र का फोन आया, वे हंसते हुए कह रहे थे, अब इंतजार का समय समाप्त हुआ. अरविन्द केजरीवाल राजनीतिक पार्टी बना रहे हैं.
किसी संस्था, या दल या व्यक्ति का चुनाव लड़ने का निर्णय उसका निजी निर्णय हो सकता है. इस पर उंगली उठाने का हक किसी को नहीं मिलना चाहिए. लेकिन अरविन्द द्वारा संचालित जिस टीम को टीम अन्ना नाम दिया गया था, बताया गया था कि यह एक अरब पच्चीस करोड़ भारतीयों की टीम है. इस टीम ने देशवासियों की बात तो दूर अरविन्द के साथ एक सप्ताह से उपवास पर बैठे लोगों से भी पूछने की जरूरत नहीं समझी कि पार्टी बननी चाहिए या नहीं?
अपनी नौकरी छोड़कर टीम अन्ना के साथ आकर जुड़ा सूरज दो अगस्त की रात बेहद निराश था. उसने अपना कार्यकर्ता वाला कार्ड शाम में ही लौटा दिया था. रात साढ़े ग्यारह बजे उससे मुलाकात हुई. वह उदास बैठा था, ‘मैं किसी राजनीतिक पार्टी के लिए अपनी नौकरी छोड़ कर नहीं आया था.’
जब सूरज अपना कार्ड वापस करने गया तो एक मैडम ने नाराज होकर उसे कह दिया- तुम सब यहां टीवी पर दिखने आए थे.
सूरज कहता है, अपना कैरियर दांव पर लगाकर बिना खाने-पीने की परवाह किए यहां एक सप्ताह रुकने का यह रिटर्न मिला है हमें कि हम यहां टीवी के लिए आए हैं.’
सुबह उसे फिर एक नई नौकरी के लिए निकलना था, इसलिए आजादी की दूसरी लड़ाई को वह बीच में ही अलविदा कहकर निकल गया.
दो अगस्त को ही अरविन्द केजरीवाल ने दो दिन का वक्त दिया था, जनता को वोट करने के लिए. उसके बाद वे शनिवार को अपना फैसला सुनाने वाले थे. लेकिन भूख ने उन्हें ऐसा तोड़ा कि वादे से एक दिन पहले ही उन्होंने झटके से पार्टी की घोषणा की और उपवास तोड़ा. सवा अरब की आबादी वाले देश में चंद लाखा वोटों से तय हो चुका था कि केजरीवाल को अपनी पार्टी बना ही लेनी चाहिए. पार्टी बनाना बूरा नहीं, उपवास भी बूरा नहीं है, बूरा है लोगों के विश्वास से खेलना, बूरा है उपवास का नाटक करना. अरविन्द अपने अध्यक्षीय भाषण में ग्राम स्वराज से लेकर किसानों के घोषणा पत्र तक की बात कर रहे थे और एबीपी न्यूज पर संवाददाता दीपक चैरसिया कहते हैं- ‘ना नौ मन तेल होगा और ना राधा नाचेगी.’
वैसे इस घोषणा से किरण बेदी की मांगी मुराद पूरी हुई है.
इस बार के उपवास-आन्दोलन में अन्ना हजारे को केन्द्र से बाहर करने की पूरी योजना थी. मनीष, गोपाल, अरविन्द के उपवास पर बैठने की वजह इतनी थी कि टेलीविजन केन्द्रित हो चुके उनके आन्दोलन के केन्द्र में वे आ जाएं. लेकिन अफ़सोस यह हो नहीं सका. कम भीड़ और कम कवरेज ने उनका परिचय ज़मीनी हकीकत से कराया. अन्ना ने अपनी तरफ़ से उपवास पर आने की घोषणा की. उन्होंने उपवास पर बैठने से दो दिन पहले बाबा रामदेव से मुलाकात की. याद कीजिए पिछली बार बाबा के मंच से अरविन्द बीच में बीमारी की बात करके चले गए थे. बाबा से स्नेह मिलन के बाद अन्ना जी के मंच पर आते ही अपार भीड़ तो आनी ही थी.
केजरीवाल अब पूरी ताक़त इस बात में लगा रहे हैं कि जिस रथ की लगाम उन्होंने अन्ना के हाथ में दी थी, उसे वापस उस हाथ से अपने हाथ में ले लें. जबकि जिन अन्ना ने अन्ना-रथ को तुफान से निकाला हैं, उसे इतनी आसानी से केजरीवाल के हाथ में कैसे दे दें?
चलते-चलतेः
टीम अन्ना और टीम रामदेव में एक बड़ा अंतर क्या है?
जवाब बेहद आसान है, टीम अन्ना में कोई अन्ना की नहीं सुनता और टीम रामदेव में रामदेव किसी की नहीं सुनते…
