एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
जनस्वास्थ्य की अवधारणा खुल्ला बाजार में जनकल्याणकारी राज्य के अवसान के साथ ही दिवंगत हो गयी. स्वास्थ्य पर्यटन के लिए अब भारत मशहूर है और आम आदमी मामूली से मामूली बीमारी के इलाज के लिए लाचार है.
फर्ज़ कीजिए कि भारत में कोई कैंसर रोगी हर महीने 8000 रुपए अपने इलाज पर खर्च करता हो और अचानक भारतीय कानून में ऐसा बदलाव आए, जिससे इस इलाज की कीमत 2 लाख प्रति माह हो जाए.
ऐसा हो सकता है अगर दवा बनाने वाली कंपनी नोवार्टिस सुप्रीम कोर्ट में भारत के पेटेंट कानून के खिलाफ मामला जीत जाती है. कैंसर की दवा बनाने वाली कंपनी नोवार्टिस दवा का फॉर्मूला सार्वजनिक नहीं करना चाहती. सुप्रीम कोर्ट का फैसला यह तय करेगा कि भारत किसका पक्ष लेगा, गरीबों के लिए दवा या मुनाफा कमा रहीं कंपनियों का. फिलहाल ये मामला 11 सितंबर तक के लिए स्थगित हो गया है, लेकिन भारत में सबकी नज़र इस विवाद पर बनी हुई है.
दरअसल, जनस्वास्थ्य की सरकारी योजनाएं मानव अंगों की तस्करी के धंधे में बदल गयी है. गरीब महिलाओं के गर्भाशय निकालने का मामला अभी ठंडा नही हुआ है. भारत अमेरिकी परमाणु संधि के पैकेज में दवाएं और रसायन भी शामिल हैं. भारतीय दवा उद्योग पर अस्पतालों की तरह विदेशी कंपनियों का वर्चस्व कायम हो गया है. स्वास्थ्य बीमा योजनाएं भी बिल बढ़ाने और गैर ज़रूरी सर्जरी की दास्तां बनकर रह गयी हैं.
दुनिया में जेनेरिक दवाओं की बड़े पैमाने पर आपूर्ति करने के मामले में भारत को जल्दी ही बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है. यह चुनौती स्विट्जरलैंड की अग्रणी दवा कंपनी नोवार्टिस एजी की ओर से मिलने जा रही है. भारत के पेटेंट विभाग ने नोवार्टिस की कैंसर के उपचार के लिए बनाई गई नई दवा ग्लिवेक को देश में पेटेंट करने की अनुमति देने से इन्कार कर दिया है. विभाग का कहना है कि यह नई दवा नहीं, बल्कि पहले से बाजार में बिक रही एक दवा का नया संस्करण भर है. नोवार्टिस ने पेटेंट विभाग के इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी है, जिस पर इस सप्ताह के अंतिम में सुनवाई होनी है.
भारत की सर्वोच्च अदालत कैंसर की दवा के मामले में नोवार्टिस की अंतिम दलीलें सुनने जा रही है. दवा का पेटेंट अगर आम कंपनियों को दे दिया जाता है तो भारत में कैंसर ही नहीं, बाकी मर्जों की दवा बनाने वाली सैंकड़ों कंपनियों पर भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का असर पडे़गा. लेकिन नोवार्टिस का कहना है कि कैंसर की दवा के लिए उसके पेटेंट को वह सौंपना नहीं चाहता, क्योंकि यह पुरानी दवा के आधार पर ही बनाया गया है. अगर नोवार्टिस पेटेंट अपना पास रखता है तो उसे दवा की बिक्री से बहुत फायदा होगा और साथ ही उन भारतीय कंपनियों को भी रोका जा सकेगा जो सस्ते में दवा बनाना चाहती हैं. इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने जर्मन कंपनी बायर की कैंसर दवा पर भी एक फैसला सुनाया था. नेक्सावार नाम की दवा कैंसर के मरीजों को बचा तो रही थी, लेकिन इसके ऊंचे दामों की वजह से कई मरीज इसे खरीद नहीं पा रहे थे.
यदि न्यायालय का फैसला नोवार्टिस के हक में गया तो कंपनी को न सिर्फ ग्लिवेक की मार्केटिंग का पूरा अधिकार मिल जाएगा बल्कि जेनेरिक दवा बनाने वाली भारतीय दवा कंपनियों पर इसका सस्ता संस्करण बनाने की रोक भी लग जाएगी. तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था का दर्जा हासिल कर चुके भारत में विदेशी फार्मा कंपनियां कारोबार की अच्छी संभावना देखती हैं. लेकिन साथ ही वह अपनी दवाओं के पेंटेट को लेकर बहुत ज्यादा संवेदनशील है क्योंकि भारत में इनका जेनेरिक यानी कि सस्ता संस्करण उपलब्ध हो जाता है जिससे उन्हें अपना मुनाफा घटने का खतरा दिखता है. ऐसे में वह अपनी हर नई दवा का जल्दी से जल्दी पेटेंट कराने में तत्पर रहती हैं. यह सुनवाई कई हफ्तों तक चलने की संभावना है और इस मामले पर अंतिम फैसला आने में कुछ महीनों का समय लग सकता है. विदेशी दवा कंपनियों और भारत सरकार के बीच पेटेंट के मुद्दे को लेकर यह मामला एक मील का पत्थर साबित हो सकता है.
नोवारटिस की इस दवा को अमेरिका में वर्ष 2001 में मंजूरी मिली थी और कंपनी वहां इसकी एक साल की खुराक तकरीबन 70,000 डॉलर में बेच रही है. कंपनी ने बीते साल दुनिया भर में इसकी बिक्री से 4.7 अरब डॉलर की आय अर्जित की थी. जबकि, भारत में इसका जेनरिक वर्जन 2,500 डॉलर में उपलब्ध है.
उधर कंपनियों के आलोचकों का कहना है कि नोवार्टिस के मामला जीतने से भारत और विकासशील देशों में लाखों लोगों को नुकसान होगा, क्योंकि भारत दुनियाभर में सस्ती दवाएं मुहैया कराता है. डॉक्टर्स विदाउड बॉर्डर्स की नई दिल्ली में मैनेजर लीना मेघानी कहती हैं कि इस फैसले पर बहुत कुछ टिका हुआ है. उनकी संस्था भारत से खरीदे दवाओं का इस्तेमाल अफ्रीका और कई दूसरे गरीब देशों में करती है. हाल ही में भारत सरकार के कम्पनी मामलों के मन्त्रालय के एक अध्ययन में सामने आया कि अनेक बड़ी दवा कम्पनियाँ दवाओं के दाम 1100 प्रतिशत तक बढ़ाकर रखती हैं. यह कोई नई बात नहीं है. बार-बार यह बात उठती रही है कि दवा कम्पनियाँ बेबस रोगियों की कीमत पर लागत से दसियों गुना ज्यादा दाम रखकर बेहिसाब मुनाफा कमाती हैं. ज्यादातर कम्पनियाँ दवाओं की लागत के बारे में या तो कोई जानकारी नहीं देतीं या फिर उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती हैं. फिर भी उनकी बतायी हुई लागत और बाज़ार में दवा की कीमतों में भारी अन्तर होता है. जो दवा की गोली बीस या पच्चीस रुपये की बिकती है, उसके उत्पादन की लागत अक्सर दस या पन्द्रह पैसे से अधिक नहीं होती. अलग-अलग कम्पनियों द्वारा एक ही दवा की कीमत में जितना भारी अन्तर होता है उससे भी इस बात का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है. दवाएँ बनाने और बेचने का काम पूरी तरह प्राइवेट हाथों में दे दिया गया है. दवाएँ बनाने वाली सरकारी फैक्ट्रियाँ बंद हो चुकी हैं या बंद होने की कगार पर हैं. दवा-कम्पनियों के लिए इंसान की जरूरतों की कोई अहमियत नहीं होती, उन्होंने तो बस मुनाफा कमाना होता है. मुनाफे की अंधी दौड़ में साधारण आदमी ही पिसता है.
सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक स्वास्थ्य मंत्रालय ने वाणिज्य मंत्रालय को पत्र लिखकर फार्मा में विदेशी निवेश (एफडीआई) नियमों को कड़ा किए जाने की वकालत की है. साथ ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ओर से भारतीय फार्मा कंपनियों का अधिग्रहण किए जाने से स्वास्थ्य मंत्रालय चिंतित है. लिहाजा स्वास्थ्य मंत्रालय ने वाणिज्य मंत्रालय को फार्मा एफडीआई के नियमों जल्द फेरबदल किए जाने की सलाह दी है. सूत्रों के मुताबिक स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि फार्मा एफडीआई को ऑटो रूट से हटाकर एफआईपीबी रूट पर किया जाय. सस्ती दवाओं के लिए नए नियम बनाए जाने की जरूरत है. अगस्त 2006-मई 2010 के दौरान 6 फार्मा कंपनियों का अधिग्रहण हुआ है. इस अवधि के दौरान 10.45 अरब डॉलर के अधिग्रहण सौदे हुए हैं.
बहरहाल, नोवार्टिस इंडिया लिमिटेड का शुद्ध लाभ मौजूदा वित्त वर्ष की पहली तिमाही में 28.18 प्रतिशत घटकर 26.98 करोड़ रुपये रहा गया है. कंपनी ने बताया कि इससे पिछले वित्त वर्ष की इसी अवधि में 37.57 करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया गया था. आंकड़ों के अनुसार वित्त वर्ष 2012-13 की 30 जून को समाप्त हुई तिमाही में कुल बिक्री बढ़कर 219.52 करोड़ रुपये पर दर्ज की गई, जबकि इससे पिछले वित्त वर्ष की इसी तिमाही में यह आंकड़ा 200.13 करोड़ रुपये रहा था. आलोच्य अवधि में नोवार्टिस का कारोबार 144.5 करोड़ रुपये से 12.1 प्रतिशत बढ़कर 162 करोड़ रुपये हो गया.
