Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
जब-जब इंसानियत पर धर्म हावी हुआ है तब-तब हिंदुस्तान में दंगे हुए हैं. रक्तरंजित दंगों का एक नया दौर फिर से शुरु हो गया है. उत्तर प्रदेश के मथुरा और बरेली में दंगों की आग ने कई बेगुनाहों को बेवक्त मौत की नींद सुला दिया. असम के बोडोलैंड इलाके में कत्लेआम जारी है. रह-रह कर घर फूंके जा रहे हैं, लोग जिंदा जलाए जा रहे हैं. भाषा और संस्कृति के नाम पर इंसानियत को गोलियों से छलनी किया जा रहा है. हालात इतने भयावह है कि कई लाख लोग अपना घर छोड़ने को मजबूर हो गए हैं.
लेकिन दंगे भारत के लिए कोई नई बात नहीं है. 120 करोड़ लोगों के इस देश में 1984 से लेकर अब तक सिर्फ एक साल ऐसा गुजरा है जिसमें 500 से कम दंगे हुए हैं और दंगों में 100 से कम लोगों की मौत हुई हैं. पिछले 28 सालों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कार्यकाल सबसे शांतिप्रिय तो जनता दल के वीपी सिंह का कार्यकाल सबसे रक्तरंजित रहा है.
BeyondHeadlines को आरटीआई के ज़रिए गृह मंत्रालय से मिली जानकारी के मुताबिक साल 1984 से लेकर मई 2012 तक देश में दंगों की कुल 26817 वारदातें हुई हैं, जिनमें कुल 12902 लोगों ने जान गंवाई हैं. ये सरकारी आंकड़े हैं. वास्तविक आंकड़ों में मरने वालों की संख्या लाखों या फिर कई लाखों में हो सकती है.
सूचना के तहत मांगी गई जानकारी के जवाब में सिर्फ आंकड़े ही मिले हैं. लेकिन यदि इन आंकड़ों को ही सच माना जाए तब भी यह बहुत कुछ कहते हैं. 1984 से अब तक भारत ने प्रमुखतः तीन दलों की सरकारें देखी हैं. इन 28 सालों में अधिकांश समय कांग्रेस केंद्र की सत्ता पर काबिज़ रही. 1984 से 1989 राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री रहे. इस दौरान देश में दंगों की 4187 वारदातों हुई जिनमें 2854 लोग मारे गए.
1990 में भारतीय राजनीति ने अस्थिरता का दौर देखा. केंद्र में जनता दल की सरकार आई और वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने. साल 1990 में देश में दंगों की कुल 2593 वारदातें हुए और 1835 लोग मारे गए. यदि 1992 को छोड़ दें तो 1984 के बाद देश में हुए दंगों में साल 1990 में ही सबसे ज्यादा लोगों ने अपनी जान गंवाई. 1991 में करीब 6 महीने के लिए समाजवादी पार्टी के चंद्रशेखर देश के प्रधानमंत्री रहे और इसके बाद केंद्र की सत्ता की कमान एक बार फिर से कांग्रेस के हाथों में आ गई और पी.वी. नरसिम्हा राव जून 1991 से मई 1996 तक देश के प्रधानमंत्री रहे.
साल 1991 में देश में दंगों की 1727 वादातें हुए और 877 लोगों की जान गई. इसके बाद 1992 दंगों के मामलों में सबसे रक्तरंजित साल रहा. इस साल देशभर में दंगों की 3536 वारदातें हुई, जिनमें 1972 लोगों ने जान गंवाई.
1991 से लेकर 1996 तक दंगों की कुल 8758 वारदातें हुई और 4774 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. 1996 में एक बार कांग्रेस केंद्र की सत्ता से बाहर हो गई. इस साल देश में कुल 728 दंगे हुए जिनमें 209 लोगों की मौत हुई. 1996 में एक बार फिर जनता दल की सरकार आई जो मार्च 1998 तक रही. 1997 और 1998 में देश में कुल 1480 दंगे हुए जिनमें 475 लोगों की मौत हुई.
मार्च 1998 में भाजपा के अटल विहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने और मई 2004 तक प्रधानंत्री रहे. साल 1998 से 2003 के बीच देश में दंगों की कुल 4441 वारदातें हुई जिनमें कुल 2182 लोग मारे गए. इनमें साल 2002 में हुए गुजरात दंगों में ही 1130 लोग मारे गए. यदि 2002 के गुजरात दंगों को अटल बिहारी वाजपेयी के शासन से हटा दिया जाए तो किसी भी साल दंगों में मरने वालों की संख्या 250 के ऊपर नहीं पहुंची.
साल 2004 में देश में एक बार फिर कांग्रेस की सरकार आई. साल 2004 में शुरु हुआ डॉ. मनमोहन सिंह का कार्यकाल सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अभी तक देश का सबसे शांतिप्रिय कार्यकाल है. मनमोहन सिंह के अब तक आठ सालों के शासन में देश में दंगों की कुल 6086 वारदातें हुई हैं जिनमें कुल 991 लोगों ने जान गंवाई है. इन आंकड़ों में हाल ही के उत्तर प्रदेश और असम के दंगे शामिल नहीं है.
यदि सरकारी आंकड़ों को ही देश में दंगों का अंतिम सच माना जाए तो अभी तक पीवी नरसिम्हा राव का कार्यकाल सबसे रक्तरंजित रहा है. राव के कार्यकाल के दौरान देश में कुल 8 हजार के करीब दंगों की वारदातें हुई जिनमें 4565 लोग मारे गए. यानि उनके कार्यकाल के दौरान हर साल औसतन 913 लोग दंगों में मारे गए. वहीं राजीव गांधी के कार्यकाल के दौरान देश में औसतन हर साल 475 लोग दंगों में मारे गए. अटल बिहारी वाजपेयी के शासन के दौरान हर साल देश में औसतन 363 लोगों की दंगों में मौत हुई. अभी तक सबसे शांतिप्रिय डॉ. मनमोहन सिंह का कार्यकाल रहा है. मनमोहन सिंह पिछले आठ साल से देश के प्रधानमंत्री हैं, और इस दौरान हर साल औसतन 123 लोगों की मौत दंगों में हुई है.
पिछले 28 साल में से देश पर 18 साल कांग्रेस का राज रहा. इस दौरान कुल 8619 लोगों ने दंगों में जान गंवाई यानि औसतन हर साल 478 लोग दंगों में मारे गए. वहीं दस साल गैर-कांग्रेसी शासन रहा, जिस दौरान 4283 लोग दंगों में मारे गए यानि हर साल औसतन 428 लोगों की दंगों में मौत हुई.
गृह मंत्रालय से प्राप्त यह आंकड़ें देश में हुए दंगों की हकीकत का पूरा सच नहीं है. इन आंकड़ों में वो लाखों घर शामिल नहीं हैं, जो दंगों की आग में जल गए. न ही उन घरों में बसने वाले ख्वाब हैं, और न ही मरने वाले के परिजनों का दुख… दंगों में हुई मौतों के यह आंकड़े दंगों की भयावह तस्वीर की झलक भर दिखाते हैं. पूरा सच यह है कि देश किसी भी राजनीतिक पार्टी के हाथ में सुरक्षित नहीं रहा है. बाबरी मस्जिद को लेकर उत्तर प्रदेश में दंगों हुए तो पीवी नरसिम्हा राव पूजा में लीन हो गए. गुजरात में अल्पसंख्यकों का कत्ले आम हुए तो अटल बिहारी वाजपेयी खामोश रहे और अब जब असम में अल्पसंख्यकों का कत्लेआम जारी है तब मनमोहन सिंह मजबूर हैं. सवाल यही है कि जो लोग इन दंगों में मारे गए हैं उनका दोष क्या था और केंद्र सरकार के दखल न देने की मजबूरी क्या है?
सरकारी आंकड़ों में दर्ज दंगों की पूरी सूची देखने के लिए यहां क्लिक करें…
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