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हमारे लिए तो ईद का मतलब सेवई ही है…

सुशील झा 

आजकल जब जब ईद आती है तो दिल में टीस उठती है. दिल्ली में कोई घर पर सेवइयां खाने के लिए नहीं बुलाता. यहां इतनी बेतकल्लुफ़ी भी नहीं कि बिन बुलाए चले गए.

सेवइयां इसलिए क्योंकि हमारे लिए तो ईद का मतलब सेवई ही है. मुझे याद है जब छोटे थे तो ईद के दिन सुबह सुबह अपने मुसलमान दोस्त के घर के चक्कर तब तक लगाते रहते थे जब तक चची जान सेवइयां न खिला दें.

बच्चों को पानी वाली सेवइयां और बड़ों को दूध वाली लच्छा सेवइयां… जब पहली बार दिल्ली से पढ़ कर वापस गए और लच्छा सेवइयां मिली तो सच में लगा बड़े हो गए हैं.

मुझे धर्मनिरपेक्षता, सेकुलरिज़म, हिंदू मुस्लिम भाईचारा, इस्लामी चरमपंथ जैसे बड़े बड़े शब्द समझ में नहीं आते. मुझे सेवइयां, बिरयानी, क़व्वाली, चची जान की आंखों का सूरमा, उर्दू ज़बान, गंडे-तावीज़ और वो मौलवी समझ में आते हैं जो बीमार पड़ने पर मेरी झाड़ फूंक किया करते थे.

मेरे पिताजी बहुत अधिक पढ़े लिखे नहीं हैं. उनको शायद ही धर्मनिरपेक्षता का मतलब समझ में आता है. लेकिन उनके कई मुसलमान दोस्त थे. वो उनके यहां गोश्त नहीं खाते थे. सेवइयां खाने में उनको कोई परेशानी नहीं थी.

ये बातें टीवी आने से पहले की हैं. टीवी आया तो रामायण देखने के लिए हम एक मुसलमान दोस्त के घर जाते थे क्योंकि हमारे घर में टीवी नहीं था. और हां… हमारे बड़े भाई साहब के पसंदीदा क्रिकेटर हमेशा से वसीम अकरम ही रहे.

आज भी मुझे शाहरुख खान और आमिर खान किसी और हीरो की तुलना में अधिक पसंद हैं. किशोरावस्था में अपने बाल शाहरुख के जैसे करवाने के लिए हमने भी बहुत पैसे खर्च किए हैं.

बात यहीं तक नहीं है. मुझे याद है कि हमारी कॉलोनी में सिर्फ़ एक मुसलमान युवक के पास अमिताभ बच्चन की ऑटोग्राफ़ की हुई तस्वीर थी. हारुन हमसे काफी बड़े थे और अमिताभ बच्चन से मिलने के लिए वो घर से भागकर मुंबई गए थे. वापस लौटे तो अपने घर में पिटाई से बचने के लिए हमारे घर में दो दिन छिपे रहे.

मेरे लिए मुसलमान कोई अलग क़ौम नहीं है जिससे मैं धर्मनिरपेक्षता के आधार पर दोस्ती करुं. वो बचपन से मेरा हिस्सा हैं इसलिए उनके बारे में किसी और आधार पर सोचना मेरी समझ से परे है.

हां नौ साल पहले 11 सितंबर की घटना के बाद बहुत बहसबाज़ी हो रही है मुसलमानों पर. उन्हें कैसे रहना चाहिए या फिर उनके साथ और लोगों को कैसे रहना चाहिए. ऐसी बहस मेरे बारे में हो तो मुझे भी ग़ुस्सा आएगा. फिर वो अगर नाराज़ हैं तो क्या ग़लत हैं.

कहते हैं पूरी दुनिया में वो बहुत नाराज़ हैं. मेरे दोस्त भी थोड़े नाराज़ हैं लेकिन वो मुझसे नाराज़ नहीं हैं. वो आज भी मुझे अपने घर खाना खिलाते हैं और आज भी मैं कभी बीमार होता हूं तो मेरी मां फ़ोन पर ही कहती है… कोई मौलवी साहब हों तो उनके पास चले जाना.

असल में पूरी दुनिया को भारत से सीखना चाहिए लेकिन उस भारत से नहीं जो धर्मनिरपेक्षता, मुसलमानों के अधिकार और वोट बैंक की सांप्रदायिक राजनीति की बात करता है बल्कि उस भारत से जहां मुसलमान गलबहियां डाल कर सदियों से दूसरी क़ौमों के साथ रहता आया है.

बहुत सारे दंगों की बातें सुनी हैं लेकिन याद नहीं पड़ता कि किसी गांव देहात में दंगे की ख़बर सुनी हो. दंगे अधिकतर शहरों में होते हैं जहां तथाकथित रुप से पढ़े लिखे या कहिए धर्मनिरपेक्ष लोग रहते हैं.

मेरी समझ में धर्मनिरपेक्षता बीसवीं इक्कीसवीं सदी की अवधारणा है. उस कसौटी पर उन रिश्तों को परखना शायद उचित नहीं जो सदियों पुराने हैं. इन रिश्तों को परखने के लिए कोई और कसौटी होनी चाहिए.

(लेखक बीबीसी से जुड़े हुए हैं.)

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