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Reading: हर ईद दिल में एक कसक सी छोड़ जाती है…
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BeyondHeadlines > #2Gether4India > हर ईद दिल में एक कसक सी छोड़ जाती है…
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हर ईद दिल में एक कसक सी छोड़ जाती है…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published August 20, 2012 14 Views
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5 Min Read
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Ashutosh Kumar Singh for BeyondHeadlines

ध्यान से सुन लो कल आने में अगर देर की तो खैर नहीं. अरे बाबा देर नहीं करूंगा, आ जाऊंगा… तुम्हारी ज़िद के आगे कभी मेरी चली है जो आज चलेगी!

चाँद मुझसे ज़िद करता और मुझे उसके घर जाना ही पड़ता. चाँद के लिए ईद के दिन सबसे बड़ा मेहमान मैं ही जो था!

आठवी कक्षा में पहली बार उससे मेरी मुलाकात हुयी थी. कक्षा में आगे की बेंच पर बैठने वालों में वह भी था. पढ़ने में जितना होशियार था, उतना ही व्यवहार कुशल… हम दोनों इतने करीब कब हो गए मुझे भी नहीं पता चला.

उस दिन जुमा का दिन था. अगले दिन ईद होने वाली थी. फैयाज जिसे सभी चाँद कहकर बुलाते थे, मुझे धमकाते हुए कह गया था… कल ज़रूर आना. मेरे जीवन में यह पहला मौका था जब किसी मुस्लिम दोस्त की ओर से इस तरह का नेवता मिला हो. मैंने खुशी-खुशी हामी भर दी थी.

छुट्टी के बाद मैं सीधे भैया के पास गया और कहा मुझे नये कपड़े खरीद दीजिए. वे हैरान हुए थे. अचानक नए कपड़े खरीदने की बात क्यों कह रहा हूं! मैंने उनसे कहा था कि कल ईद है और मुझे अपने दोस्त के घर जाना है. मेरी ज़िद के आगे भैया की एक न चली. मैं बहुत खुश था. दूसरे दिन जल्दी उठा, स्कूल तो जाना नहीं था. बावजूद इसके घर में सबसे पहले तैयार हो गया. घर के कुछ लोगों को मेरा नया लुक अटपटा लगा था. लेकिन मैं बहुत खुश था.

घर से निकलकर साईकिल उठायी और सीधे चाँद के घर जा पहुंचा. उसके घर पर पहली बार गया था. एक हल्की सी हिचक भी थी, लेकिन चाँद ने जिस उत्साह के साथ अपने मम्मी-पापा, भाई-बहन एवं घर के बाकी सदस्यों से मिलवाया, वह पल मेरे लिए अद्भुत था. उसकी खुशी देखकर मेरे रोम-रोम में एक रोमांच पैदा हो गया था. कुछ देर में उसकी मम्मी सेवइयां लेकर आईं. चार-पांच किस्म की सेवइयां थी. इसके बाद और भी बहुत कुछ खाने को था. जमकर खाया… खाना खाने व हाथ-मुंह धोने के बाद चांद की अम्मा ने एक डब्बा मेरे हाथ में थमाया और साथ में 10 रूपये का एक नोट भी… मैं कुछ समझ पाता कि चाँद के अब्बा जान बोल उठे, अरे बेटे! ले लो, शर्माओं मत, यह ईदी है. हम लोगों के यहां ईद के दिन भोजन कराने के बाद ईदी देने का रिवाज़ है. मैंने सकुचाते हुए वह पैसा रख लिया, लेकिन अंदर तो मानो लड्डू फूट रहे थे. तब 10 रूपये का भी कुछ मतलब होता था. चैनपुर (जिला सिवान, बिहार) बाजार में छठी के यहां पांच दिनों तक लगातार एक-एक प्लेट समोसे तो खा ही सकता था. हालांकि उस पैसे को उसी दिन दो-चार दोस्तों के साथ मिलकर खर्च कर डाला, लेकिन ईदी ने तो ईद के साथ हमारे रिश्ते को और भी मज़बूत कर दिया. अब तो प्रत्येक साल ईद के समय चाँद धमकाता और मैं उसको चिढाता कि जाओं नहीं आउंगा. फिर वह मेरी मिन्नते करता और आखिर में मैं मान ही जाता. ईद के समय यह हम दोनों के लिए एक खेल भी था.

आज उस खेल को खेले हुए 10 साल हो गए. गांव छुट गया. शहर में न तो गांव वाली रौनक हैं और ना ही चाँद की चमक. जैसे-जैसे हम बड़े होते गए त्यौहारों से नाता टुटता गया, लेकिन ईद जब भी आती है, चाँद की अम्मी जान द्वारा दी गयी उस ईदी की याद दिला जाती है और दिल में एक कसक सी छोड़ जाती है…

(लेखक प्रतिभा जननी सेवा संस्थान के नेशनल को-आर्डिनेटर व युवा पत्रकार हैं.)

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