BeyondHeadlines News Desk
शनिवार दोपहर ढाई बजे रज़ा अकेडमी के आह्वान पर मुंबई में हजारों की तादाद में लोगों ने असम और बर्मा में हो रही हिंसा के विरोध में प्रदर्शन किया. कुछ जज्बाती नौजवानों की हरकत के कारण प्रदर्शन हिंसक हो गया और मीडिया की चार गाड़ियों को आग लगा दी गई. इसके साथ ही भीड़ ने आठ बेस्ट बसों और तीन पुलिस की गाड़ियों को भी नुकसान पहुंचाया.
प्रदर्शनकारियों को काबू में करने के लिए पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े, पानी की बौछार और फायरिंग की. फायरिंग में एक व्यक्ति की मौत हो गई और तीन दर्जन से अधिक लोग पूरी घटना में घायल हुए. 8 पुलिसकर्मियों के भी घायल होने की ख़बर है. घायल जवानों में एक हालत गंभीर बनी हुई है.
अभी तक जो बातें सामने आ रही हैं उनके मुताबिक लोगों ने मीडिया को निशाना इसलिए बनाया क्योंकि असम दंगों और बर्मा में हो रहे कत्लेआम की कवरेज न होने से लोगों में गुस्सा था. भीड़ के हिंसक होने का एक और कारण कुछ युवाओं का जज्बाती होना भी बताया जा रहा है.
घटना के बाद प्रतिक्रिया देते हुए मुंबई पुलिस कमिश्नर अरूप पटनायक ने कहा कि हालात बेहद तनावपूर्ण थे, ऊपर बाले का शुक्र है कि हम बाल-बाल बच गए और स्थिति पूरी तरह सामान्य हो गई.
यह मुंबई में हुई घटना पर एक सरसरी नज़र है. लेकिन इस घटना से कई गंभीर सवाल भी खड़े हो रहे हैं. कुछ लोग सवाल कर रहे हैं कि क्या आजाद मैदान में हुई हिंसा सही है. इसका सिर्फ एक ही जवाब है कि हिंसा किसी भी रूप में सही नहीं होती है.
लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि भारत में असम में हो रही हिंसा के खिलाफ अल्पसंख्यकों को ही प्रदर्शन क्यों करना पड़ रहा है. बहुसंख्यक वर्ग और खासकर देश का मीडिया इस हिंसा के खिलाफ क्यों नहीं है. कोकराझार को जलते हुए जब चार दिन बीत गए तब आग की पहली ख़बर दिल्ली तक पहुंची. सिने सितारों की प्रेम कहानियां दिखाने में व्यस्त मेनस्ट्रीम मीडिया में किसी भी चैनल ने कोई विशेष टीम कोकराझार की घटना की कवरेज के लिए क्यों नहीं भेजी. पुणे में चार पटाखे फूटे तो चैनलों ने रिपोर्टों के विशेष जांच दस्ते बनाकर भेज दिए लेकिन असम में दो लाख से अधिक लोग बेघर हो गए हैं उनका दर्द देश के सामने क्यों नहीं रखा गया.
इस सब के पीछे एक बड़ी साजिश नज़र आती है. साजिश देश को बांटने की. हिंदुस्तान तो बहुत शांति प्रिय देश हैं लेकिन एक साजिश के तहत यहां के लोगों में ज़हर भरा जा रहा है. ऐसा क्या कारण है कि असम में हुई हिंसा के विरोध में देश का बहुंसख्य वर्ग सड़कों पर नहीं उतरा? क्या इस वर्ग ने असम में जो हो रहा है उसे मौन सहमति दे दी है और अगर दे दी है तो फिर क्यों?
आज मुंबई में हुए पूरे घटनाक्रम का सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि हिंसा के विरोध में हुई हिंसा में एक और जिंदगी जाया हो गई, और कई और जिंदगिया बर्बादी के कगार पर पहुंच गई. जिन लोगों पर हिंसा का मामला दर्ज किया जाएगा हो सकता है, उनका बाकी का जीवन अब कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते हुए बीत जाए. मुंबई पुलिस इस बात पर शुक्र अदा कर रही है कि एक ही व्यक्ति की मौत हुई और हालात काबू में कर लिए गए. केंद्र सरकार इस बात का संतोष कर रही है कि मुंबई की आग कहीं और नहीं फैली और देशभर में इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई. लेकिन इस सब के बीच एक और बेगुनाह जिंदगी जाया हो गई.
आपसे एक ही गुजारिश है कि जब नेता प्रेस के ज़रिए इस घटना पर टिप्पणियां कर रहे हों, पुलिसवालों अपनी पीठ ठोक रहे हों, मीडिया वाले नई कहानियां सुना रहे हैं तब आप अपनी भावनाओं पर काबू रखिएगा. बस यही सोचिएगा कि हिंसा कोई भी करे उसकी कीमत हमेशा इंसानी जिंदगी ही चुकाती है. ऐसी हिंसा और दंगों से कुछ लोगों के राजनीतिक उद्देश्य पूरे हो जाते हैं, कुछ नेताओं का कद बढ़ जाता है, कुछ पुलिस अफसरों को हिंसा रोकने के एवज में और स्टार्स मिल जाते हैं लेकिन आम जनता सिर्फ इसकी कीमत ही चुकाती है. कभी सड़क पर जाम में फंसकर, कभी घर देर से पहुंचकर और कभी अपनी जान की कीमत चुकाकर…
