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सच में गरीबों को सस्ती दवाइयां मिल पायेंगी!

Ashutosh Kumar Singh for BeyondHeadlines

महंगाई की मार से त्रस्त जनता के लिए एक सुकुन भरी ख़बर आई है कि उन्हें ज़रूरी दवाइयाँ सस्ती मिलेंगी. शरद पवार की अध्यक्षता में बनी मंत्रियों के समूह ने राष्ट्रीय दवा नीति-2011 को मंजूरी देते हुए कैबिनेट के पास भेज दिया है. इस फैसले से अब देश में 348 दवाइयाँ मूल्य नियंत्रण के दायरे में आ जायेंगी. अभी तक 74 दवाइयों को ही मूल्य नियंत्रण के दायरे में रखा गया था.

ऊपरी तौर पर सरकार का यह फैसला स्वागत योग्य लगता है. लेकिन जब इसकी बारीकियों को समझने का प्रयास किया जायेगा तब शायद यह  ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हो.

जाहिर है पिछले तीन-चार महीनों से मीडिया में लगातार यह ख़बर आ रही है कि दवा कंपनियाँ 10 की दवा 100 रूपये में बेच रही हैं. दवाइयों के मूल्य लागत मूल्य से कई गुणा बढ़ा कर तय की जा रही हैं. ख़बरों में यह भी बताया जा रहा है कि पहले से मूल्य नियंत्रण के दायरे में जो दवाइयां हैं वो भी सरकारी नियम की अवहेलना करते हुए ज्यादा मूल्य पर बेची जा रही हैं. ऐसे में यह सवाल उठता हैं कि क्या कुछ दवाइयों को मूल्य नियंत्रण की श्रेणी में ला देने भर से गरीबों का भला हो जायेगा?

गौरतलब है कि हेल्थ पर कुल खर्च का 72 प्रतिशत खर्च केवल दवाइयों पर होता हैं. एक सरकारी शोध में यह भी कहा गया हैं कि प्रत्येक साल देश के तीन प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे केवल महंगी दवाइयों के कारण रह जाते हैं. गरीबी मिटाने का दावा करने वाली सरकार देश में बेची जा रही लगभग 40000 दवाइयों में से 348 को मूल्य नियंत्रण की श्रेणी में लाकर कितना बड़ा कार्य करने जा रही हैं अपने आप में बहुत बड़ा सवाल है.

हाल ही में BeyondHeadlines ने राष्ट्रीय औषध मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एन.पी.पी.ए ) से सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत दवाइयों से संबंधित कुछ जानकारियाँ मांगी थी. एन.पी.पी.ए ने जो जानकारी उपलब्ध कराई है वह चौंकाने वाली हैं.

मसलन एन.पी.पी.ए को नहीं मालूम हैं कि देश में कितनी दवा कंपनियां हैं. जाँच के लिए दवाइयों की सैप्लिंग केवल दिल्ली और एन.सी.आर से ही उठाए गए हैं.

ऐसे में कई सवाल उठते हैं कि जब मूल्य निर्धारण करने वाली सरकारी प्राधिकरण को यह नहीं मालूम हैं कि देश में कितनी दवा कंपनियां हैं तो वह किस आधार पर दवा कंपनियों द्वारा बेची जा रही दवाइयों के मूल्यों पर नज़र रख पायेगी.

अगर केवल दिल्ली और एन.सी.आर में ही जाँच के लिए दवाइयों के सैम्पल लिए गए हैं तो बाकी देश में बेची जा रही दवाइयों की गुणवत्ता की जाँच कैसे होगी? इस तरह के तमाम सवाल हैं जिनका उत्तर दिए बगैर सरकार द्वारा 348 ज़रूरी दवाइयों को मूल्य नियंत्रण के अधीन करने का फैसला कारगर नहीं हो सकता.

पिछले तीन-चार महीने से नई मीडिया (सोशल मीडिया) के माध्यम से गैर सरकारी संस्था ‘प्रतिभा-जननी सेवा संस्थान’ दवाइयों के नाम पर हो रही लूट को लेकर ‘कंट्रोल मेडिसन मैक्सिमम रिटेल प्राइस’ (कंट्रोल एम.एम.आर.पी) कैंपेन चला रही है.

पिछले 14 सालों से लटके हुए राष्ट्रीय दवा नीति को ग्रुप्स ऑफ मिनिस्टर्स द्वारा अनुमोदित करने को लेकर एक दबाव इस कैंपेन के कारण भी बना है. इस कैंपेन ने आम लोगों को दवाइयों में हो रही धांधली के प्रति सचेत किया है. इसी बीच महंगी दवाइयों के मूल्य को नियंत्रित करने को लेकर लखनऊ की सामाजिक कार्यकर्ता नूतन ठाकुर ने लखनऊ हाइकोर्ट में में एक जनहित याचिका भी दायर किया है. जिस पर आगामी 3 अक्टूबर को सुनवाई होने की संभवाना है.

भारत एक लोक-कल्याणकारी राज्य है. जहाँ जनता कि स्वास्थ्य की जिम्मेवारी सरकार की है. और अपने इस जिम्मेवारी को सरकार निभाती हुई नज़र भी आ रही है. आधिकारिक तौर पर भारत में गरीबी दर 29.8 फीसदी है या कहें 2010 के जनसांख्यिकी आंकड़ों के हिसाब से यहां 35 करोड़ लोग गरीब हैं. वास्तविक गरीबों की संख्या इससे से भी ज्यादा है. ऐसी आर्थिक परिस्थिति वाले देश में दवा कारोबार की कालाबाजारी अपने चरम पर है. मुनाफा कमाने की होड़ लगी हुयी है. धरातल पर स्वास्थ्य सेवाओं की चर्चा होती है तो मालुम चलता है कि हेल्थ के नाम पर सरकारी अदूरदर्शिता के कारण आम जनता लूट रही है और दवा कंपनियाँ, डाँक्टर और दवा दुकानदार मालामाल हो रहे हैं.

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