Sachin Kumar Jain for BeyondHeadlines
गोघल गाँव और खरदना गाँव में 200 लोग 17 दिनों तक नर्मदा नदी में ठुड्डी तक भरे पानी में खड़े रहे. वे कोई विश्व रिकार्ड नहीं बनाना चाहते थे. उन्हे अख़बार में भी अपना फोटो नहीं छपवाना था. उन्हें विकास के नाम पर जल समाधि दी जा रही थी, जिसके विरोध में उन्होंने जल सत्याग्रह शुरू किया.
वे कह रहे थे यदि देश के विकास के लिए बांध बना है, तो उनके जीवन के अधिकार को क्यों ख़त्म किया जा रहा है? वे संसाधनों पर अधिकार चाहते थे, क्यूंकि ज़मीन, पानी और प्राकृतिक संसाधन ही उनके जीवन के अधिकार का आधार हैं. मध्यप्रदेश में दो बडे बाँध- इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर बाँध हैं. इन बांधों से बिजली बनती है और कुछ सिंचाई भी होती है. इन बांधों के दायरे के बाहर की दुनिया को इन बांधों से बिजली मिलती है और उनके घर इससे रोशन होते हैं. रेलगाड़ियाँ भी चलती हैं. ये बिजली सबसे ज्यादा रोशन करती है नए भारत के शहरों को, उन उद्योगों को, जो रोज़गार खाते हैं, मॉल्स और हवाई अड्डों को.
खरगोन, खंडवा, हरदा, देवास ये वो जिले हैं जहाँ लगभग 2 लाख परिवारों को उनकी जड़ों से उखाड़ा गया, यानी सरकार ने उनकी दुनिया का अधिग्रहण कर लिया है. यह एक अध्यादेश होता है जो बात तो करता है ज़मीन के एक टुकडे की परन्तु सच में वह एक ऐसा दस्तावेज होता है जो लोगों को बताता है कि देश और समाज (शहर और एक ख़ास वर्ग) की विलासिता के लिए तुम्हें बलिदान देना होगा. स्वतंत्रता के बाद से लगतार देश में लोगों को विस्थापित किया जाता रहा है. विस्थापन के शिकार आदिवासी, दलित और भूमिहीन सबसे ज्यादा रहे, क्यूंकि सम्पत्तिवान लोगों की संख्या हमेशा से कम रही और सरकार ने उन्हें उनके प्रभावों के चलते उन्हें हमेशा कुछ हद तक सुविधाएं दीं. इन बांधों या किसी और भी परियोजना में जिन पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा, उनकी जिन्दगी प्राकृतिक संसाधनों जैसे – ज़मीन, पानी, जंगल और पारंपरिक उद्योगों पर निर्भर रही है. वे मुद्रा यानी नकद यानी कागज़ की सम्पदा में रमते ही नहीं हैं. ऐसे में उन्हें उनकी ज़मीनों के बदले मुआवजे के तौर पर नक़द राशि देने की व्यवस्था बनायी गयी. यह सरकार के हिसाब से सबसे सस्ता, आसान और सहज विकल्प था. परन्तु लोगों के लिए बहुत कठिन और जीवन ख़त्म कर देने वाला विकल्प.
एक उदाहरण देखिये… 1980 के दशक में जब रानी अवंती बाई परियोजना यानी बरगी बाँध बना, तब लोगों को 800 से 1500 रूपए प्रति एकड़ के मान से मुआवजा दिया गया. जैसे ही आस-पास के लोगों को पता चला तो सभी यह मानने लगे अब तो विस्थापित ज़मीन खरीदेंगे, ये उनकी मजबूरी है. और दो तीन दिनों के भीतर वहां ज़मीन के दाम बढे. एक हज़ार रूपए एकड़ की ज़मीन कुछ दिनों में 3500 रूपए की कीमत तक पंहुच गयी. लोगों को जो नकद राशि मिली थी उसके कोई मायने ही नहीं रह गए.
सरदार सरोवर में मिले नकद मुआवजे से ज़मीन खरीदने के लिए जो व्यवस्था बनाई गयी, उसमे पटवारी से लेकर राजस्व अधिकारी, वकीलों और भू-अर्जन अधिकारी के गिरोह को सक्रीय कर दिया. जिन्होंने मिलकर आदिवासियों और विस्थापितों के चील-कौयों की तरह नोचा. सर्वोच्च न्यायालय में भी मामला गया और मध्यप्रदेश सरकार कहती रही हमारे पास परियोजना प्रभावितों को देने के लिए ज़मीन नहीं है. पर डुबोने के लिए ज़मीन थी.
ज़मीन तो थी और हैं भी… यदि सरकार की मंशा होती तो परियोजना प्रभावितों का स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की तरह का सम्मान होता. उन्हें सामान्य इंसान से थोडा तो ज्यादा माना ही जाता. उन्हें अपने ही देश में गैर-कानूनी अप्रवासी और अतिक्रमणकारी और अधूरे नागरिक का दर्ज़ा नहीं दिया जाता. जो अपनी पूरी सम्पदा देश के विकास के लिए दे रहा है, क्या उसके लिए बेदखली की प्रक्रिया चलाना कोई न्यायोचित कृत्य है. क्या है इनकी अपेक्षाएं – भूमिहीनों के लिए एक निर्धारित सम्मानजनक नक़द राशि और ज़मीन के बदले ज़मीन. बस यही न….
ज़मीन आज भारत के भीतर पनप रहे नए उपनिवेशों के लिए ताकतवर होने का नया हथियार है. देश 8000 लोग भारत के सकल घरेलु उत्पाद के 70 फ़ीसदी हिस्से पर कब्ज़ा रखते हैं. इस कब्ज़े में सबसे बड़ा हिस्सा ज़मीनों, पहाड़ों और नदियों पर कब्जे का है. इनकी सत्ता की ताकत इतनी ज्यादा है कि चुनी हुई सरकार भी इनकी अनुमति के बिना कोई नीति नहीं बना सकती है. पूँजी की यही व्यवस्था तय करती है प्राकृतिक संसाधनों पर लोगों का या कहें कि समुदाय का कोई हक़ नहीं होगा. खनिज संसाधनों के दोहन, जिसमे हमने देखा कि उडीसा, झारखंड, छतीसगढ़ में 24 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर 20 कंपनियों ने नज़र डाली. उस पर उन्हें कब्ज़ा चाहिए था तो सरकार ने 6 लाख आदिवासियों को ज़मीन से बेदखल करना शुरू कर दिया. उन्हें आतंकित किया गया, गोलियां चलीं, बलात्कार किये गए, यानी हर वह काम किया गया जिससे लोगों में सत्ता और पूँजी का आतंक बैठाया जा सके और वह संसाधनों की लूट की नीतियों का विरोध करने का विचार भी न कर सकें.
मध्यप्रदेश का सिंगरौली जिला देश की उर्जा राजधानी बना और साथ ही देश का सबसे प्रदूषित शहर भी, पर 2011 की जनगणना के मुताबिक़ इसी जिले के 90 प्रतिशत लोग मिट्टी के तेल यानी केरोसीन के अपने घरों को रोशन करते हैं. जिस इलाके से विकास की धारा बहाई जाती है वह इलाका आम लोगों के नज़रिए से मौत के भय और सत्ता के प्रति अविश्वास के क्यों भर जाता है?
सरकार ने पहली पंचवर्षीय योजना से ही अधोसंरचनात्मक विकास की नीतियां बनाना शुरू की. 1951 में बनी पहली पंचवर्षीय योजना से ही यह तय हो गया कि देश के गाँवों और प्राकृतिक संसाधनों के शोषण से ही हमारे विकास का ढांचा खडे होने वाला है. यह तय था कि इसके लिए लोगों का विस्थापन होगा. विस्थापन हुआ भी.
भाखड़ा नंगल और हीराकुंड बांधों से बड़ी परियोजनाओं की पक्रिया शुरू हुई. पर एक भी दस्तावेज में यह उल्लेख नहीं किया गया कि जिनका विस्थापन होगा, उनका पुनर्वास भी राज्य की जिम्मेदारी होगी. पंडित नेहरु ने इन्हें आधुनिक विकास का मंदिर कहा उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि विस्थापितों को हमें पूजना और सम्मानित करना होगा. पर सच यह था कि इन मंदिरों के निर्माण की नीव डालने के लिए समाज और प्रकृति की जड़ें खोद डाली गयीं. नींव में पत्थर नहीं डले, आदिवासियों और ग्रामीणों के शरीर की हड्डियाँ डाली गयी, और उनके विश्वास को बारीक करके ज़मीन में दबाया गया.
इस देश में 5177 बड़ी विकास परियोजनाएं चल रही हैं. परन्तु कभी भी यह जानकारी संकलित नहीं की गयी कि कहाँ, कौन विस्थापित हो रहा है, लोग कहाँ जा रहे हैं, विस्थापन के बाद उनकी जिन्दगी का क्या हुआ? लोग जिंदा भी हैं या नहीं!
यानी बात यह कि आज तक भारत में यह कोई समग्र आंकड़ा ही नहीं है कि किस परियोजना में कितने लोगों का विस्थापन हुआ और आज वे किस हाल में हैं. इसका मतलब है कि सरकार ने हमेशा यह चाहा है कि ये तो मर ही जाएँ तो अच्छा है. हम इनके लिए हैं ही नहीं. यही कारण है कि जल सत्याग्रह के 13 दिनों तक सरकार लोगों पास नहीं गयी. फिर बात शुरू हुई और बड़ी ही कुटिलता के साथ उन्होंने ओंकारेश्वर यानी एक बाँध के तहत ज़मीन देने की बात मान ली, पर दूसरे बाँध यानी इंदिरा सागर की बात को फिर से नकार दिया.
प्रतिबद्धताएं बहुत स्पष्ट हैं. बाँध और विकास परियोजनाओं की बेदी पर बलि चढ़ाये जाने वाले लोगों, जिनमे 65 प्रतिशत आदिवासी और दलित हैं, के लिए सरकार के पास ज़मीन नहीं है. वर्ष 2007 से 2012 के बीच निवेश के नाम पर साढ़े चार लाख हेक्टेयर ज़मीन की व्यवस्था कर दी चुकी है. एक आवेदन पर हज़ारों एकड़ ज़मीन उद्योगों और ज़मीन के कारोबारियों को देने के व्यवस्था बना दी गयी. 8 सितम्बर 2012 को, जब लोग अपने लिए ज़मीन की मांग कर रहे थे थी उसी दिन भोपाल में कलेक्टर्स-कमिश्नर्स की कांफ्रेंस में मुख्यमंत्री जी ने अफ़सरों को निर्देश दिया है कि 15 सितम्बर 2012 तक 26000 हेक्टेयर ज़मीन 26 जिलों में निकालें और उद्योगों विभाग को हस्तांतरित कर दें ताकि कंपनियों को ज़मीन दी जा सके.
एक भी उदहारण सरकार का वंचितों और गरीबों के पक्ष में बता दें जब सरकार ने कहा हो कि इस तारीख तक वन अधिकार क़ानून के तहत वनों पर हक़ दे दें, राशन कार्ड इस तारीख तक बना दें, या दवाइयों की उपलब्धता सुनिश्चित कर दें. नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ. जहाँ लूट है, वहां सरकार भी समयबद्ध और प्रतिबद्ध हो जाती है.
जिन परियोजनाओं की बात आज हो रही है उन परियोजनाओं में भी यह आज तक तय नहीं हो पाया कि कितने गाँव और कितने जंगल और कितने लोग डूबेंगे. ऐसे में किस सरकार की बात कर रहे हैं हम? यह सरकार एक मृगतृष्णा है. जो नज़र आता है वह होता ही नहीं है. लोकतंत्र में विकास का मतलब यह नहीं कि 80 प्रतिशत को बिजली देने के लिए आपको बाकी के 20 प्रतिशत की हत्या कर देने का अधिकार है. यदि उन 20 फीसदी का सही पुनर्वास नहीं होगा तो किसी को भी सुकून से उस बिजली से वातानुकूलित यन्त्र चलाने का नैतिक अधिकार नहीं होना चाहिए. एक भी परियोजना ऐसी नहीं है जिसके बारे में तथाकथित विशेषज्ञ सही आंकलन करके बता पाए हों कि इसके चलते जैव विविधता और पारिस्थितिकीय व्यवस्था का कितना नुकसान होगा. जब समुदाय ने यह बताने की कोशिश की तो उसे विकास विरोधी और राष्ट्रद्रोह के मुक़दमों में फंसाया गया. और फिर राज्य सरकार के प्रतिनिधि मंत्री ने सन्देश दिया कि ये मुट्ठीभर जल सत्याग्रही हमें कमज़ोर न समझे. हमें सरकार चलाना आता है और हम दबेंगे नहीं. हम अपना काम करेंगे. और ठीक 20 घंटे के बाद पुलिस बल ने ताकत का प्रयोग करने सत्य के आग्रह को ठुकरा दिया.
जो लोग गोघल गाँव और खरदना में 15 से 17 दिन पानी में इसलिए खड़े रहे ताकि उनकी बात सुनी जाए. जो इंसानी तरीकों से तो व्यवस्था सुन ही नहीं रही थी. सर्वोच्च न्यायालय के आदेश और पुनर्वास की नीति है कि जब तक पुनर्वास पूरा नहीं होगा तब तक बांधों में जलभराव के स्तर को इंदिरा सागर में 260 मीटर और ओंकारेश्वर में 189 मीटर तक रखा जाएगा. परन्तु इन बांधों में दो मीटर से ज्यादा जलभराव का स्तर बढ़ा दिया गया, जिनसे 100 ऐसे गांव प्रभावित हुए जिनका सर्वे तक नहीं हुआ था. खेत, जंगल और घर डूब में आये. यह सरकार और योजनाकारों की रणनीति होती है. पुनर्वास की प्रक्रिया को वे विलम्ब करते जाते हैं और दूसरी तरफ जल स्तर बढाते जाते हैं ताकी ज़मीनें डूबती जाएँ. जब घर और ज़मीन ही डूब जाते हैं तो फिर सर्वे नहीं हो पाता है. तब ज़मीनी स्तर पर भूअर्जन अधिकार, पटवारी, पंजीयक और स्थानीय प्रशासन का गठजोड़ ग्रामीणों की जिन्दगी में से संभावनाओं की आख़िरी बूँद तक निचोड़ लेता है. जिनका सब कुछ डूब रहा होता है वे कर्जे लेकर इन अधिकारियों को रिश्