Nehal Sagheer for BeyondHeadlines
राज ठाकरे और बाल ठाकरे की बिहार विरोधी बयानबाज़ी और जवाब में नीतीश कुमार सहित सभी उत्तर भारतीय नेताओं की जवाबी वाक-युद्ध के दौरान मुझे बिहार के कई शहरों में घूमने का अवसर प्राप्त हुआ.
मुंबई में पिछले पांच सालों से रहते हुए नीतीश के बिहार को करीब से देखने या विकास के शोर पर विचार करने का यह पहला अवसर था. क्योंकि बिहार मेरी जन्म-स्थली है और बचपन के अधिकांश दिनों को मैंने यहीं बिताए हैं. अब भी मेरा संबंध बिहार से उतना ही गहरा है, जितना कि बचपन में हुआ करता था.
पिछले पांच सालों में कम से कम दस बार से ज़्यादा तो ज़रूर बिहार गया हूं, लेकिन मेरा जाना वैसा था कि जैसे गया और आया. इस बार मैं इस दिलचस्पी के साथ गया था कि यह देखा जाए कि बिहार ने कितनी प्रगति की है? मीडिया में जो कुछ कहा जा रहा है उसकी हक़ीक़त क्या है?
इसी मन के साथ जब पटना सुपर-फास्ट से सुबह पांच बजे पटना सिटी स्टेशन उतरा. प्लेटफॉर्म से बाहर निकलते ही ऑटो रिक्शा वालों के शोर ने आकर्षित किया. उनसे बचते-बचाते बाहर निकलने पर पहला सामना ही टूटी सड़कों और भरे नालों से हुआ.
वह तो शुक्र है कि इस बार बारिश कम हुई थी, नहीं तो सड़कों पर गंदे पानियों से होकर गुजरना पड़ता. बस स्टैंड जिसकी दूरी स्टेशन से अधिकतम डेढ़ किलोमीटर होगी. वहाँ कीचड़ का अंबार… हाँ! पटना की कुछ सड़कें और गलियाँ जरूर अच्छी हैं. लेकिन इसमें नीतीश सरकार का कोई कमाल नहीं बल्कि वर्षों से इसी तरह है.
मेरा गाँव वैशाली जिले (जिसके जिला मुख्यालय का नाम हाजीपूर है) में पातेपूर ब्लॉक में है, जिसका नाम बलाद आदम है. पातेपूर ब्लॉक कार्यालय से निकट रेलवे स्टेशन ढोली को जोड़ने वाली सड़क पिछले तीस सालों से ऐसे किसी सार्वजनिक प्रतिनिधि को तरस गई है जो उसे गहरे खड्डों से छुटकारा दिलाए. इस सड़क के बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि इस पर मनुष्य तो क्या जानवर भी चलने से कतराते हैं, लेकिन वह बेचारे बेज़ुबान क्या बोलें और किससे विरोध करें?
वैसे यहाँ की इंसानी आबादी भी बेज़ुबानी में कुछ कम नहीं है. मुझे इस सड़क और विकास से जुड़ा कोई विरोध आज तक देखने और सुनने में नहीं मिला है. इसी सड़क पर पातेपूर से सिर्फ डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर एक छोटी सी नदी है. जिसपर पुल का निर्माण भी किसी मज़ाक से कम नहीं है. शायद पच्चीस साल पूर्व इसके लिए मैटेरिल आया. दस सालों के बाद निर्माण शुरू हुआ और पांच साल के बाद जब संरचना तैयार हुई तो इंजीनियर ने इसे इस आधार पर रद्द कर दिया कि उसकी ऊंचाई कम है.
बलाद आदम वैशाली जिले के सीमा पर स्थित है. वहां से मुज़फ़्फ़रपूर जिला शुरू हो जाता है. मुज़फ़्फ़रपूर की भी तस्वीर बिहार के विकास के उच्च दावों का मुंह चिड़ाते नज़र आता है. स्टेशन से बाहर निकलते ही आपको टूटी सड़कें और नालों का पानी सड़कों पर बहता दिखाई देगा. सामने ही कोर्ट और सदर अस्पताल है, इस में भी बरसात में जगह-जगह पानी नज़र आएगा. मलेरिया और अन्य रोगों का केंद्र बना रहता है यह शहर. शहर की दो सड़कों को छोड़कर सभी सड़कों और नालों की वही स्थिति है, जैसा मैंने स्टेशन के बाहर की स्थिति बताई है. शहर में जगह-जगह कूड़ों का अंबार है.
मुजफ्फरपूर से बेतिया शहर की दूरी लगभग 132 किलोमीटर है और पटना से लगभग 185 किलोमीटर. यह पश्चिमी चंपारण का जिला मुख्यालय है. वहां मैं अपने एक दोस्त से मिलने गया था. यहां भी स्थिति वैसी ही है, जैसी अन्य किसी शहर की, बल्कि हालात कहीं बदतर हैं. आप स्टेशन से बाहर निकलें वहीं से आपको बिहार के विकास की सच्चाई का पता चल जाएगा. टूटी सड़कें… सड़कों पर बहते नाले… यहाँ की विकास की कहानी बयान करती मिल जाएंगी. बिजली का हाल यह है कि चौबीस घंटे में बमुश्किल चार घंटे ही रहती है. बेतिया अस्पताल से गुज़रते हुए अस्पताल के परिसर में निजी क्लीनिक भी नज़र आएं. डॉक्टर बगैर किसी डर के मोटी फीस लेकर मरीजों को देखते हुए नज़र आएं.
राजधानी पटना से 235 किलोमीटर की दूरी पर भागलपूर स्थित है. वहाँ का हाल भी कमोबेश ऐसा ही है. बिजली की आँख-मिचोली वहाँ भी जारी है. बिहार के कुछ क्षेत्रों में वादे के साथ नए बिजली कनेक्शन दिया गया था कि यहां बिजली कम से कम चौदह घंटे रहा करेगी, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में जहां किसानों को खेतों में सिंचाई के लिए सबसे अधिक बिजली की ज़रूरत है, वहां बिजली अधिकतम दो घंटे ही आती है. वह भी समय निर्धारित नहीं है.
किसान डीजल इंजन से अपनी ज़रूरत पूरी करने को मजबूर है. जिससे उसकी लागत बढ़ जाती है, लेकिन फ़सल की वह कीमत नहीं मिल पाती है, जो लागत, मेहनत और ज़रूरत को संतुलन दे सके. अगर कुछ दिनों और ऐसा ही रहा तो महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उड़ीसा की तरह यहां भी किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो जाएंगे.
कुछ सड़कें, कुछ दूसरी योजनाएं, जैसे इंदिरा आवास या अल्पसंख्यक शिक्षा योजनाएं हैं, लागू कुछ हद तक हैं. लेकिन इसमें नीतीश की अपनी कार्य-प्रदर्शन कितनी है, यह शोध का विषय है.
उपर जो कुछ बयान किया गया है वह बिहार के विकास के ज़मीनी सच्चाई है. यह आंकड़ों का खेल नहीं है, जिससे पढ़े-लिखे और वातानुकूलित कमरों में बैठे योजना आयोग के बाबूओं को प्रभावित किया जाता है. जिसे मीडिया की ताक़त से शोहरत दिया जाता है. उसी का नतीजा है कि इजराइली राजदूत भी बिहार के दौरे पर आए और नीतीश कुमार से मुलाकात कर अपनी सेवाएं प्रदान करने की पेशकश की. इजराइली राजनयिक की पेशकश से मुसलमानों का गुस्सा होना स्वाभाविक है. बिहार विधानसभा में विपक्ष नेता अब्दुलबारी सिद्दीकी ने आपत्ति जताई तो नीतीश के समर्थक मुस्लिम चेहरों को बुरा लगा.
नीतीश सरकार न केवल विकास और चमकते बिहार के झूठे प्रोपेगंडे में व्यस्त हैं, बल्कि उसने मुसलमानों से भी धोखा ही किया है. एक साल से अधिक हो चुके हैं फारबिसगंज की घटना को, जिस में कई मासूम मुसलमानों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी. काफी विरोध के बाद एक सदस्यीय जांच समिति बनाई गई जिसकी कार्यवाही का कोई अता-पता नहीं है.
शायद नीतीश कुमार यह सोच रहे हैं कि मुसलमान सहित अन्य न्यायप्रिय लोग इस ज़ालिमाना पुलिस कार्रवाई को भूल जाएंगे तो यह उनकी गलतफहमी है. बात वास्तव में यह है कि नीतीश सरकार में साझीदार ही इस ज़ालिमाना कार्रवाई में लिप्त हैं, इसलिए उनका सारा ज़ोर उनको बचाने में लग रहा है.
सवाल यह है कि अगर नीतीश कुमार कुछ नहीं कर रहे हैं, तो इतना शोर क्यों मचाया जा रहा है? तो बिहार के विकास का दावा क्यों किया जा रहा है. इसका एक सीधा जवाब आपको बिहार में घूम-फिर कर मिल जाएगा. मैंने कई लोगों से पूछा तो जवाब मिला “नीतीश सरकार मीडिया पर बहुत मेहरबान है”. उसकी सच्चाई जानने के लिए जब मैंने इंटरनेट का सहारा लिया तो पता चला कि पिछले साल नीतीश सरकार ने मीडिया में विज्ञापन पर लगभग साढ़े अट्ठाइस करोड़ रुपये खर्च किए. और कुल राशि का 35 प्रतिशत सिर्फ एक हिंदी अखबार को ही दिया गया. इसके बाद एक और हिंदी अखबार जिसने अभी मुंबई में एक उर्दू अख़बार को अपने स्वामित्व में लिया है. इस के बाद बिहार का प्राचीन और प्रसिद्ध उर्दू अखबार का नम्बर है, जिसे एक करोड़ से कुछ कम दिया गया है, जो कि टाइम्स ऑफ इंडिया और इकॉनोमिक्स टाइम्स से कुछ ही कम है. आप चाहें तो इंटरनेट पर जाकर तथ्यों पता कर सकते हैं जो हमारे एक दोस्त ने आर.टी.आई. का सहारा लेकर निकाला है.