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न बिजली थी न पानी, कुछ ऐसी थी कच्ची कालोनी की कहानी!

Amit Tyagi for BeyondHeadlines

बहुत कोशिश के बावजूद आज भी मैं अपने घर में अपने पहले दिन के अनुभव को नहीं भूल पाता हूँ. 10 ओक्टुबर, 1997- सुबह 10 बजे का समय था, और पूरा घर रिश्तेदारों से भरा हुआ था. और भला होता भी क्यूँ ना, आज हमारे परिवार के जीवन का सबसे खास दिन जो था. एक ऐसा दिन जिसका सपना हर वो परिवार देखता है जो रोज़गार की खोज में, एक नए जीवन की आस में, अपने बच्चो के उज्वल भविष्य की ख्वाहिश लेकर इस दिल्ली शहर में आता है. और हर आदमी का सबसे बड़ा सपना होता है दिल्ली शहर में अपना मकान बनाना. आज हमारे परिवार का यह सपना सच हो चुका था. गृह-प्रवेश के कार्यक्रम में दावत पर सभी मिलने वालों और रिश्तेदारों को बुलाया गया था. परिवार में सब लोग बहुत खुश थे.

लेकिन मेरी ये ख़ुशी ज्यादा समय तक ना रह सकी. घबराइए मत! इश्वर की कृपा से सब कुशल मंगल था. मामला बस इतना था की गृह-प्रवेश के साथ साथ आज हमारा प्रवेश दिल्ली की कच्ची कालोनी में भी हो गया था.

जैसे ही गृह-प्रवेश की दावत खत्म हुई और टेंट वाला ने अपना जनरेटर हटाया. मेरे पूरे परिवार की आंखें चुंधिया गई. रौशनी से नहीं, हमारे एक पड़ोसी के ये बताने पर कि बिजली नहीं है और अगले तीन दिन तक आने की भी कुछ उम्मीद नहीं है.  हालांकि इससे पहले भी बिजली ना होने के झटके दिल्ली वालों को लगते रहते थे, लेकिन तीन दिन थोडा ज्यादा था. दिल्ली शहर में बाहर से आये हुए परिवार के लिए गृह-प्रवेश की ख़ुशी इतनी ज्यादा होती है कि उसके सामने ये सब झटके बौने से हो जाते हैं. और मेरा परिवार भी बिजली ना होने के इस झटके को सह गया.

लेकिन इसके बाद जो नज़ारा मेरे सामने आया वह आज भी रह रह कर एक भयानक सपने की तरह याद आता है. कुछ नौजवान युवक एक समूह में बड़ी तेजी से चले जा रहे थे. उनमें से कुछ के हाथ में बांस का एक लम्बा सा डंडा था, कुछ युवकों ने एक दैत्याकार सीढ़ी को पकड़ा हुआ था, और उनके एक साथी के कंधे पर एक भारी सा झोला टंगा हुआ था. ऐसा प्रतित होता था कि जैसे किसी सपेरे के कंधे पर सांप की पोटली लटकी हो. लग रहा था कि ये नौजवान युवक दशहरा जैसी किसी त्यौहार की तैयारी में जुटे हैं और रावन के किसी विशालकाय पुतले को खड़ा करने की कोशिश चल रही है. मैंने थोडा साहस जुटाया और आगे बढ़कर उनमें से एक नौजवान से पूछा, “भाई साहब, ये आप लोग कहाँ जा रहे हो?” उन सज्जन ने अपनी चाल को थोडा धीमा किया, मेरी तरफ बड़ी हैरानी भरी नज़रो से देखा और मुस्कुराते हुए मुझसे पूछा “यहाँ नए आये हो क्या?” और मुस्कुराते हुए इतना कह कर अपनी गति को दोबारा बढाया और अपने समूह के साथ चलने लगे.

उनकी इस बात से जन्मी जिज्ञासा को शांत करने के लिए और अपने दिमाग में एक साथ आये हजारो प्रश्नों के उत्तर ढूंढने के लिए मैं भी नौजवानों के उस समूह के पीछे चल पड़ा. “हे भगवान!”, मुझे अच्छी तरह याद है ये वो शब्द थे जो मेरे मुह से उस नज़ारे को देखने के बाद निकले. यह नजारा मेरे दिल को दहलाने के लिए काफी था. मैंने देखा कि नौजवानो का वह समूह बिजली के एक खम्बे पर अपनी सीढ़ी सटा कर खडी कर चूका था और उनमें से एक नौजवान उस सीढ़ी पर चढ़ कर बिजली के नंगे तार पर अपने हाथ में लिए हुए तार की कुण्डी ड़ाल रहा था. वहां का दृश्य देख कर ये रहस्य मेरे समझ में आ चूका था कि उस सज्जन के झोले में सांप नहीं बल्कि बिजली के तार के कुछ बण्डल, पलास, टेप एवं कुछ और औजार थे. अब मुझे समझ आ चुका था कि आने वाला समय मेरे लिए बड़ा चुनौतीपूर्ण होने वाला है.

जैसे-तैसे हिम्मत जुटा कर मैं अपने घर वापस पहुंचा. अभी बिजली की कुण्डी के उस झटके से बाहर भी नहीं आ पाया था कि एक और भयानक तजुर्बे ने मेरा स्वागत किया. एक पडोसी ने पिताजी को बाहर से आवाज़ लगाई. हमने सोचा की बड़ा अच्छा मोहल्ला है, लोग शाम तक मुबारकबाद देने आ रहे हैं. लेकिन इन सज्जन की बात सुन कर मानो मेरी हवाइयां ही उड़ गई.

“भाई साहब, मेरा बेटा पानी लेने जा रहा है आप भी अपने बेटे को उस के साथ भेज दीजिये, दो-चार बार आपका बेटा इनके साथ जायेगा तो पानी लाना सिख जायेगा”. उन्होंने कहा. “पानी लाना, यहाँ पानी नहीं आता क्या?”, मैंने अपने पिताजी से जिज्ञासा पूर्वक पूछा. मेरे सवाल का जवाब दिए बिना ही पिताजी ने मुझे हमारे पडोसी के बेटे के साथ जाने का इशारा कर दिया. मैं जैसे ही घर के बाहर पहुंचा तो पाया कि एक बार फिर कुछ नौजवान युवकों का समूह किसी पर्व को मानाने की सी तैयारी में था. लेकिन इस बार इनके हाथ में बांस का डंडा और सीढ़ी नहीं थी. इस बार ये सब नौजवान अपनी अपनी साइकिलों पर थे, और साईकिल के दोनों तरह पानी की बड़ी बड़ी दो टंकियां लटकी हुई थी. अब तक पूरा चक्कर मेरी समझ में आ गया था. मैंने भी अपनी साईकिल निकाली और समूह में शामिल हो गया. लेकिन प्रताड़ना यहीं तक सीमित नहीं थी.

मुझे दिल्ली की कच्ची कालोनी में रहने वालो के दर्द का अंदाजा उस समय हुआ जब मेरे सब साथी हमारी कालोनी के पास के एक गाँव में पहुंचे और किसी भी घर का दरवाजा खट-खटाकर पानी भरवाने के लिए निवेदन करते. कुछ लोग हम पर तरस खा कर पानी भरवा देते और कुछ लोग दुत्कार कर भगा देते. जैसे घर आये किसी भिकारी को दुत्कार दिया जाता है.

मानो कल ही की तो बात हो, आज भी 10 अक्तूबर, 1997 का वो दिन मुझे अच्छी तरह याद है. वह मेरे जीवन का एक अमूल्य दिन है. इस दिन मैंने दिल्ली की कच्ची कालोनी में रहने वालो का दुख महसूस किया. किन्तु मेरी यह दया करने की स्थिति ज्यादा देर तक नहीं रही, क्योकि अगले दिन से ये सब काम की जिम्मेदारी मुझे भी मिल चुकी थी.

आज 13 साल बाद अचानक मैं ये सब बात क्यों कर रहा हूँ. आज तो बिजली और पानी की समस्या काफी हद तक सुलझ गई है, और इस तरह के नज़ारे अब दिल्ली की अनाधिकृत कालोनियों में देखने को शायद ही मिलते हैं. जब मैंने ये सुना की दिल्ली विधानसभा में दिल्ली सरकार ने अनाधिकृत कालोनियों को पास करने के लिए नोटिफिकेशन पास किया है. तो सोचा कि आप सब के साथ अपने जीवन में घटित इस प्रकरण को साझा करूं.

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