Dinesh Pal Singh for BeyondHeadlines
हमारे देश में स्वावलम्बी बनने के सारे रास्ते बन्द किये जा रहे हैं. बेरोजगारी भत्ता, किसान केडिट कार्ड, पेंशन योजनायें आदि सभी समाज से स्वावलम्बन का भाव समाप्त कर रही हैं. सभी गांव कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं उन्हें इन्तजार रहता है कि कब सरकार कर्ज माफी की घोषणा करें.
दरअसल, जितनी भी योजनायें हमारे देश में जन-कल्याण के नाम पर चलायी जा रही उनके मूल में लोगों को या दूसरे अर्थों में वोट बैंक को खरीदना है और लोगों को परावलम्बी बनाकर हमेशा के लिए परजीवी बनाने का है. ताकि वह अपने जीवन में केवल दूसरों की दी हुई मदद या डाली जा रही रोटी की टुकडों की आशा करे. स्वयं कुछ भी करने की उनकी इच्छा शक्ति मर जाए. व्यक्ति जीवन भर इन्तजार करें कि सरकारी मदद कब किस रुप में उसे मिले और उसी से वह जिन्दा रहें.
खैर, खेती-किसानी को घाटे का सौदा बना दिया गया है. जो लोग आज भी हल-बैल से खेती कर रहें हैं या पशुपालन से जुडे हुए हैं, या कहीं न कहीं प्रकृति व मानव के बीच जो सम्बन्ध हैं उस कड़ी को जुड़े हुए हैं, उनके लिए सरकारों के पास कुछ नहीं है. ऐसे लोगों का समाज में मज़ाक उड़ाया जा रहा है, जोकि गांधी जी के सच्चे अनुयायी हैं. और स्वदेशी के मूलमंत्र के साथ जी रहे हैं तथा धरती और पर्यावरण को बचाये हुए हैं. क्योंकि गांधी जी की शिक्षाओं का मूल-मंत्र स्वावलम्बन व स्वदेशी था.
बहरहाल, जो लोग धरती को और पर्यावरण को बचाने, ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के काम में आज भी लगे हैं उनकी सर्वाधिक उपेक्षा सभी सरकारें कर रही हैं. ऐसे लोग सरकार की नज़र में बेचारे और मूर्ख हैं. वह सरकारी विकास की परिभाषा में नहीं आते हैं.
लेकिन जो लोग मशीनों से कृषि कर रहे हैं और जिनकी कृषि में पशुओं से कोई लेना-देना नहीं होता है. पशुपालन से कोई रिश्ता नहीं होता है. ज़मीन को कुछ समय के अन्तराल में बंजर बनाने का कार्य कर रहे हैं. ऐसी कृषि सस्टेनेबल नहीं है. धरती को नष्ट करने के कार्य में दिन-रात लगे हुए हैं. जिनके पास कई-कई गाडियां हैं. जो फासिल फ्यूल का बहुत अधिक अन्धाधुन्ध इस्तेमाल कर रहें हैं. पर्यावरण को नष्ट कर रहें हैं. ऐसे ही लोगों को समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा जा रहा है. यही लोग सरकार व जनता की नज़र में सम्मानीय व पूजनीय हैं.
ग्लोबल वार्मिंग बढाने वाले लोगों से टैक्स लेकर धरती व पर्यावरण बचाने का कार्य कर रहे किसानों/धरती पुत्रों को भी कुछ धन दिया जाना चाहिए, ताकि वह भी जीवन यापन कर सकें. उनकी विचारधारा का सम्मान भी होना चाहिए.
पर अफ़सोस! हमारे देश में धन ही सबसे बढकर है. धनकुबेरों का ही समाज में सम्मान है. सब कुछ पैसे से खरीदने की प्रवृत्ति व सरकारी उपेक्षा से ज़मीन जिस पर खेती होती थी, बहुत तेजी के साथ न जोतने वालों के हाथ में जा रही हैं. धनवान व्यक्ति स्वयं इतनी ज़मीन पर खेती नहीं कर सकते हैं . और इस से प्राकृतिक संतुलन भी गड़बड़ा रहा है.
हमारे बापू गांवों को ही विकास का मॉडल व केन्द्र बनाने के पक्षधर थे, न कि शहरीकरण में. आज जिस तेजी से शहर बढ़ रहे हैं और कंक्रीट का जंगल बढ़ रहा है, वह हमारी सरकारी नीतियों व अज्ञानता के कारण हैं. शहरीकरण की प्रवृत्ति कहीं से भी मानव जाति के लिए शुभ नहीं है. बड़े-बड़े महानगरों में जो कार्यालय बने हुए हैं और सड़कों में रोड जाम प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है, उसे विक्रेन्दित करने की सरकारी मंशा ही नहीं है. अगर सभी सरकारी कार्यांलयों का विकेन्द्रीकरण करके उन्हें आस-पास के छोटे शहरों में ले जाया जाय तो शहरीकरण व रोड जाम की समस्या को कम किया जा सकता है.
इससे सिद्ध है कि तथाकथित सरकारों के नाम पर जो लोग सरकार में हैं और देश व समाज पर अपनी विचारधारा/नीतियों को थोपने का कार्य कर रहे हैं, उन्होने गांधी को नहीं पढा है या फिर उनकी आत्मा मर गई है. वह गांधीवाद के सबसे बड़े विरोधी बन गये हैं और अपने पूरे जीवन काल में सिर्फ व सिर्फ वही कार्य कर रहे जो कि गांधीवाद के विरोध में हो.
आज 2012 का गांधी यही मांग करता कि समाज को परावलम्बी, परजीवी बनाने की, प्राकृतिक संसाधनों को बेचने की, वोट बैंक को खरीद कर राजनीति में स्थायी रुप से कब्जा करने की व सत्तालोलुपता की प्रक्रिया तत्काल प्रभाव से रोकी जाए. समाज में सत्तालोलुपता के साथ-साथ सेवा का भी कोई स्थान निर्धारित हो और मानव मात्र को स्वावलम्बन के रास्ते पर ले जाने का प्रयास किया जाए. धरती और पर्यावरण को बचाने वालों का भी सम्मान हो. भले ही वह गरीबी का जीवन जी रहे हों. मात्र शहरीकरण व ग्लोबल वार्मिंग बढा रहे, एसी में रहकर ही जीवन जीने वालो व उनके समर्थकों का ही सम्मान न किया जाए. विकास का मॉडल जिसमें कृषि योग्य भूमि कम हो रही हो को बदल कर ऐसा विकास का मॉडल लाया जाए जिसमें कृषि योग्य भूमि का संरक्षण हो.
(लेखक दस्तक समिति के सचिव हैं.)
