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जनादेश यात्रा के बाद अब जन-सत्याग्रह यात्रा

50 हज़ार से अधिक गरीब व आदिवासी अपने अधिकारों की मांग लेकर ‘जन-सत्याग्रह यात्रा’ के लिए ग्वालियर से दिल्ली के लिए कूच कर चुके हैं. यह क़ाफिला 12 किलोमीटर लंबा है, जो मध्य-प्रदेश के मुरैना, राजस्थान के धौलपुर, उत्तर-प्रदेश के आगरा-मथुरा से होती हुई दिल्ली पहुंचेगी. प्रस्तुत है इस क़ाफ़िला के अगुवा पीवी राजगोपाल से बातचीत के आधार पर आशीष कुमार अंशु की ये खास रिपोर्ट…

दरअसल, ज़मीन बड़ा मुद्दा है. लाख टके का सवाल है कि ज़मीन पर मालिकाना हक़ किसका हो? ज़मीन पर मालिकाना हक़ का निर्णय कौन करेगा? प्राकृतिक संसाधनों से आखिर कौन संपन्न बनेगा? इन्हीं सवालों के साथ हम जन-सत्याग्रह यात्रा कर रहे हैं.

दो अक्टूबर को ग्वालियर से जो जन-सत्याग्रह यात्रा शुरू हुई है वह एक महीने में दिल्ली पहुंचेगी. इस एक महीने में सत्याग्रहियों का उठना, बैठना, खाना, पीना सब सड़क पर ही होगा. सत्याग्रही एक दिन में बारह किलोमीटर की यात्रा करेंगे.

जनादेश यात्रा से आगे जाते हुए इस बार यात्रा शुरू करने से पहले हमने पूरे देश का दौरा किया है और यात्रा को सर्व-समावेशक बनाने की कोशिश की है. इसका परिणाम है कि इस बार एक लाख दलित, वंचित आदिवासी समाज के सत्याग्रही अपनी ज़मीन की जायज़ मांग के साथ जन-सत्याग्रह पदयात्रा में शामिल हो रहे हैं.

हमसे पूछा जाता है कि हम यह जन-सत्याग्रह यात्रा क्यों कर रहे हैं? यह सवाल हमसे पूछने की बजाय केन्द्र सरकार से पूछना चाहिए कि जनता सड़क पर क्यों उतरी है? केन्द्र सरकार को विचार करना चाहिए कि क्यों इतने लोगों को एक साथ सड़क पर आना पड़ा? जनादेश 2007 में किए गए वादे भी सरकार ने अभी तक पूरे नहीं किए. यदि वह अपने सारे वादे पूरे कर देते तो शायद जन-सत्याग्रह 2012 की ज़रूरत नहीं पड़ती.

मेरी मान्यता है, ‘गरीबों की ताक़त के सामने सरकार को झुकना होगा. यदि इस वक्त हम ऐसी बहस में उलझेंगे कि हमें क्या मिला तो आन्दोलन आगे नहीं बढ़ेगा और ना ही कोई व्यवस्था परिवर्तन ही होगा.’

जन-सत्याग्रह 2012 के लिए मैंने पूरे साल देशभर की यात्रा की और लोगों से मिला. इस बार देशभर की यात्रा में सहमति और असहमति रखने वाले सभी तरह के विचार रखनेवाले लोगों के पास गए. जिनको नहीं जानते और जिनको कम जानते हैं, उनके पास भी गए. यह अच्छा अनुभव था कि जिनका हमसे मतभेद था, उन्होंने भी स्वागत किया. इसी स्नेह का परिणाम है कि इस बार जन-सत्याग्रह यात्रा में 2000 से अधिक संगठन सहयोग करने के लिए हमारे साथ हैं.

बीते एक साल की अपनी यात्रा के अनुभव से देश भर में चल रहे संघर्षों को करीब से देखने का मौका मिला और यह विचार भी आया कि इस यात्रा को बहुत पहले मुझे पूरा करना चाहिए. देश भर में चल रहे अलग-अलग आंदोलनों के अलग-अलग आयाम हैं. मछुआरों की लड़ाई समुद्र के लिए है, नदी के लिए है, पानी के लिए है. वह कहते हैं, जब हमें विस्थापित किया जाता है तो ज़मीन की कीमत दी जाती है, लेकिन हमारा रोज़गार हमसे छीना जाता है, उसकी कीमत नहीं दी जाती. हमारे नदी या हमारे समुद्र या हमारे पानी की कीमत हमें नहीं दी जाती. कुडनकुलम, जैतापुर में परमाणु संयंत्र के खिलाफ़ लड़ाई है.

इसी तरह दलित समाज का संघर्ष पहचान और संसाधनों पर अधिकार के लिए है. आदिवासी जो धनी थे, उनके पास प्राकृतिक संसाधनों का खजाना था, आजादी के बाद से ही उन्हें उनकी संपदा से बेदखल करने का सिलसिला शुरू हो गया और पिछले सालों में इसमें तेजी आई. कान्हा में एक आदिवासी सज्जन बता रहे थे, उनके पास दो सौ गाय थी, बड़ा सा घर था. सब छीन गया. उन्होंने अपने जीवन में पहली बार अपनी पगड़ी फॉरेस्ट ऑफिसर के पांव में रख दी. लेकिन ऑफिसर ने इस बात की ज़रा भी कद्र नहीं की और उनकी टोपी पर लात दे मारा. इस देश में किसानों को भी छला गया. यह अफ़वाह फैलाई गई कि कृषि घाटे का सौदा है, किसान खेती नहीं करना चाहते. वजह साफ है, रियल स्टेट वाले उनकी ज़मीन औने-पौने दाम पर खरीदना चाहते थे, इसके लिए ज़रूरी था कि जिस खेती को समाज उतम मानता था, उसे समाज की ही नज़र में पहले अधम ठहराया जाए.

आज अलग-अलग मोर्चो पर लड़ी जा रही इन तमाम लड़ाइयों को ज़रूरत है एक साथ लड़ने की. संघर्ष के सारे साथी, एक साथ, एक मंच पर खड़े हों. मिल जुल कर लड़ें. आज के समय में एक बड़ी समस्या नेतृत्व भी है, आज कोई एक ऐसा नेता नहीं है, जिसपर सबका विश्वास हो.

ग्वालियर से दिल्ली की यात्रा हम सबके लिए एक बड़ी लड़ाई है. एक लाख लोग, एक महीने तक, एक वक्त का खाना खाकर सड़क पर होंगे. यह संघर्ष आसान नहीं होगा. चूंकि चलने वाले लोग वंचित समाज से होंगे, इसलिए उनमें कुपोषण और दूसरी बीमारी से पीड़ित लोग भी होंगे. यात्रा के दौरान मौसम भी प्रतिकूल हो सकता है. वैसे मौसम और स्वास्थ्य से निपटने की न्यूनतम सुविधाएं यात्रा में मौजूद होंगी लेकिन फिर भी उसे लेकर सतर्क रहना बड़ी चुनौती होगी.

हम उम्मीद करते हैं कि दिल्ली तक पहुंचते-पहुंचते सरकार बातचीत के लिए आगे आएगी लेकिन यहां स्पष्ट करना ज़रूरी है कि इस बार हम सिर्फ आश्वासन के भरोसे लौटने वाले नहीं हैं. हमें इस बार एक ठोस योजना चाहिए. कब तक और किस तरीके से हमारी मांगों को पूरा किया जाएगा. वह वन अधिकार का कानून हो या फिर भूमि सुधार की बात… उम्मीद है, सरकार इस बार कोरे आश्वासन के साथ बात नहीं करेगी, बात करने जो भी प्रतिनिधि आएंगे, उनके पास एक ठोस योजना भी होगी. जिससे सत्याग्रहियों के उल्लासपूर्वक वापस लौटने का माहौल तैयार हो. वरना यह भी हो सकता है कि हमें लंबा सत्याग्रह करना पड़े. जिसमें एक दिन से लेकर लंबे समय तक का उपवास भी शामिल है.

हम बिल्कुल नहीं मान रहे कि यह अंतिम यात्रा है और सारी मांगे इस यात्रा से पूरी होने जा रही है. अभी देश को कई ऐसी यात्राओं की ज़रूरत है. लेकिन अगली यात्रा में नेतृत्व बदलेगा और मेरी भूमिका सहयोगी की होगी. कल कोई भी दलित-वंचित-आदिवासी समाज के हक़ के लिए ईमानदारी के साथ यात्रा निकालता है, मैं उसका साथ दूंगा. उसके साथ रहूंगा.

(पीवी राजगोपाल एकता परिषद के प्रमुख हैं. एकता परिषद 2007 में जनादेश यात्रा लेकर दिल्ली आ चुके हैं.)

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