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दवा कंपनियों की लूट को कानूनी जामा है नेशनल फार्मा नीति-2011

Ashutosh Kumar for BeyondHeadlines

राष्ट्रीय दवा नीति-2011 को कैबिनेट की मंजूरी दिलाकर ज़रूरी दवाइयों को सस्ती करने का सरकारी फैसला ऊपर से देखने में बेहतर लग रहा है. पर सच्चाई यह है कि जिस नीति (बाजार आधारित नीति) के तहत दवाइयों के मूल्य तय किए जा रहे हैं वह नीति दवा कंपनियों की लूट को कानूनी जामा पहनाने जैसा है. क्योंकि इस नीति के तहत कंपनियों द्वारा तय की गयी एम.आर.पी का औसत मूल्य को सेलिंग प्राइस अथवा सरकारी रेट तय करने की बात की गयी है.

गौरतलब है कि कंपनियां अपनी लागत से 1000-3000 प्रतिशत ज्यादा एम.आर.पी तय करती हैं. जिसका पुख्ता प्रमाण हमलोगों के पास है. ऐसे में इन कंपनियों द्वारा तय की गई एम.आर.पी का औसत बहुत ज्यादा राहत देता हुआ नज़र नहीं आ रहा है. उल्टे में जो कंपनियां सस्ती दामों पर दवाइयों बेच रही हैं वे भी इस औसत के चक्कर में अपना मूल्य बढा देंगी!

मूल बात यह है कि सरकार द्वारा 348 दवाइयों के मूल्य कंट्रोल करने की बात एक तरह से छलावा-सा लग रहा है. लोगों को भरमाने का प्रयास भर है. इस नीति को पढ़ने के बाद इतनी बात तो समझ में आ गयी है कि सरकार सच्चे मन से दवाइयों के दाम को कम नहीं करना चाहती.

यह सोचनीय प्रश्न है जहां पर हजारों प्रतिशत में मुनाफा कमाया जा रहा हो वहां 10-20 प्रतिशत की कमी के क्या मायने है. सरकार द्वारा बाजार आधारित मूल्य निर्धारण की नीति का विरोध करते हुए प्रतिभा जननी सेवा संस्थान मांग करती है कि सरकार दवाइयों के दाम लागत मूल्य के आधार पर तय करे. तब जाकर सही मायने में आम जनता को कुछ फायदा हो सकेगा.

(लेखक प्रतिभा-जननी सेवा संस्थान के नेशनल को-आर्डिनेटर व युवा पत्रकार हैं.)

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