सत्ता के निशाने…

Beyond Headlines
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Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

पिछले कुछ सालों में भारत में महज एक खास धार्मिक पहचान की वजह से बहुत सारे नागरिकों को आतंकवाद और देशद्रोह के झूठे मामलों में फंसाने में सरकार और प्रशासन की क्या भूमिका रही है, इसे लेकर समाज के जागरूक तबके और कई बुद्धिजीवी तमाम सवाल उठाते रहे हैं. आतंकवादी होने या दूसरे फर्जी आरोपों में पकड़े गए मुस्लिम युवाओं के मामले अदालतों में पहुंचे और उसमें जो सच सामने आया उससे सत्ता और पुलिस के गठजोड़ से तैयार एक बर्बर चेहरे का पता चलता है. मुश्किल यह है कि आतंकवाद के नाम पर सत्ताओं ने ऐसा हौवा परोसा है कि कोई संवेदनशील व्यक्ति सब कुछ जानते-समझते हुए भी कुछ बोलने या विरोध में आवाज़ उठाने से इसलिए हिचकता है कि कहीं उसे भी शक के दायरे में न खड़ा कर दिया जाए.

लेकिन किसी भी जिंदा समाज में अन्याय के खिलाफ़ चुप्पी बहुत देर तक कायम नहीं रहती. लोग समझते हैं कि अगर वे चुप रहे तो आज कोई और निशाने पर है तो कल वे खुद भी आ सकते हैं. इस लिहाज से देखें तो हाल ही में दिल्ली में ‘पीपुल्स कैंपेन अगेंस्ट पॉलिटिक्स ऑफ टेरर’ के बैनर तले जितने और जिस तरह के लोगों ने शिरकत की, उससे उम्मीद बंधती है कि सत्ता चाहे जितना जोर लगा ले, इस देश के धर्म-निरपेक्ष मिजाज को बदल पाना इतना आसान नहीं है.

इस आयोजन में आतंकवादी होने के आरोप में जेल में डाल दिए गए लोगों के परिजनों ने जो दिल दहला देने वाली दास्तानें सुनार्इं, उसने इस देश के जनतंत्र पर सवालिया निशान खड़ा किया. इसमें जहां पीड़ित समुदाय के कई रहनुमाओं ने देश में एक नागरिक के बतौर अपने हक़ व हकूक़ की बात की. वहीं प्रमुख वामपंथी दलों और कई दूसरे प्रगतिशील नेताओं ने भी आतंकवादी होने के नाम पर किए जाने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठाई.

यह बात अब शक से परे साबित हो चुकी है कि भारत में पुलिस और विभिन्न जांच एजेंसियां पिछले कई सालों से आम नागरिकों को डरा कर उन पर अत्याचार करने की एक योजनागत मुहिम चला रही हैं. फर्जी मामलों में फंसा कर लोगों को उनके परिवार, ज़मीन, समुदाय या समाज से दूर किया जा रहा है. इसका मुख्य उद्देश्य एक खास समुदाय पर आतंकवाद के ठप्पे को चिपकाए रखना भी है. यह ठप्पा अकेले भारत के सत्ताधारी वर्गों ने नहीं लगाया है, बल्कि इसे एक अंतरराष्ट्रीय प्रवृत्ति के तौर पर देखा जा सकता है.

ऐसे आरोप भी कम नहीं हैं कि पुलिस के इस कुकृत्य का समूची व्यवस्था का मौन समर्थन मिला हुआ है. न्यायपालिका में भी आतंकवाद से जुड़े प्रकरणों या फर्जी मुठभेड़ों के कई मामलों में पुलिस  को राहत मिल गई और इसने पीड़ित परिवारों के दुख को और बढ़ा दिया. लेकिन यह भी सच है कि न्यायपालिका ही वह एकमात्र जगह है जहां कई मामलों को अदालतों ने झूठा पाया और कई बेगुनाह सालों तक जेल में बंद रहने और पुलिस के अत्याचार झेलने के बाद बाहर आए.

इसका सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई या नौकरी कर रहे किसी युवक को आतंकवादी होने के आरोप में जेल में बंद कर दिया जाता है तो उसके भीतर किस तरह की भावनाएं पैदा होती होंगी. आमिर जैसे कई युवक हैं जिन्होंने चौदह साल या उससे ज्यादा तक जेलों में अपनी बेगुनाही की सजा काटी है.

इसलिए यह वक्त की ज़रूरत है कि देश की असली धर्मनिरपेक्ष ज़मीन बचाने के लिए पुलिस और सरकार की पूर्वग्रह से भरी कारगुजारियों पर नज़र रखी जाए और झूठे मामलों में निर्दोष नागरिकों को फंसाने वालों को भी सजा के दायरे में लाया जाए. बेगुनाहों की गिरफ्तारी की त्रासदी अकेले मुसलमानों का नहीं है, बल्कि यह यहां के तमाम कमजोर तबकों का सवाल है.

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