बलात्कार या बहिष्कार?

Beyond Headlines
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Amit Tyagi for BeyondHeadlines

मेरे दिमाग में रह रह कर एक प्रश्न आता है और उसका जवाब जब मैं खुद अपने आप को देता हूँ तो मानो मेरा दिल दहल जाता है. प्रश्न है कि कोई भी लड़की बलात्कार के बाद जीने की इच्छा क्यों खो देती है? या आत्महत्या की कोशिश क्यों करती है?

हालाँकि मेरी उम्र इतनी अधिक नहीं है कि मैं अपने सभ्य एवं शिक्षित समाज पर कोई  टिप्पणी कर सकूं. ना ही मैं अपने आपको इस लायक समझता हूँ कि अपने समाज को कोई सीख दे सकूं.  किन्तु कुदरत ने मुझे यह अधिकार ज़रुर दिया है कि मैं अपने जीवन का नेतृत्व कर सकूं.


हाल ही में दिल्ली में हुए एक 21 वर्षीय बालिका के बलात्कार ने मानो पूरे देश को झंझोड़ कर रख दिया है. लोगों के सामाजिक मुद्दों के प्रति इस संवेदनशीलता को मेरा शत शत नमन! किन्तु मुझे आज भी एक महत्वपूर्ण पक्ष इस आन्दोलन में नज़र नहीं आ रहा है. एक समाज के रूप में मानो हमारा आन्दोलन अभी अधूरा है. या यह कह सीजिए कि हमने अपने आप में सुधार की संभावनाओं को खोजना जैसे बंद ही कर दिया हो.

इस दुर्घटना ने सुरक्षा व्यस्था पर तो प्रश्चिन्ह लगाए ही हैं, किन्तु कुछ और भी पह्लूं हैं जिन पर हमारे समाज को ध्यान देने की ज़रुरत है.

बलात्कार की पीड़ित लड़की आत्महत्या के लिए मजबूर शायद इस लिए हो जाती है, क्योंकि बलात्कार के बाद उस लड़की का मानों सामाजिक बहिष्कार ही हो जाता है. हम बलात्कार की पीड़ित लड़की को  घृणात्मक  दृष्टि से देखना शुरू कर देतें हैं.  समाज में उस लड़की को पुनः स्थापित नहीं किया जाता. अगर दुर्भाग्य से वह कुंवारी है तो उसकी शादी होना भी असम्भव हो जाता है. इस दुर्घटना का असर उसके परिवार पर भी पड़ता है.

ऐसा क्यों होता है? आज पूरा देश बलात्कार की पीड़ित लड़की के लिए इन्साफ की माँग तो कर रहा है. लेकिन एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि क्या कल हमारा समाज बलात्कार की पीड़ित इन लड़कियों को भी इतनी हि ईमानदारी से अपनाएगा?

कानून एवं न्याय व्यवस्था में तो बशर्ते सुधार की आवश्यकता है. लेकिन क्या समाज के लिए भी इस पूरी घटना में कोई सबक है. कब हमारा समाज बलात्कार की पीड़ित लड़कियों को बराबरी की नज़र से देखना शुरू करेगा?

समाज के समक्ष एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि हमारा समाज नारी को व्यवाहरिक तोर पर बराबरी का दर्जा कब देगा? लगभग 50% जनसंख्या को बराबरी का दर्जा दिए बिना किसी भी समाज के विकास का विचार करना भी बेईमानी होगी.

जैसा कि मैंने आरम्भ में उल्लेख किया है की मेरी उम्र और मेरा तजुर्बा मुझे इस बात की इजाजत नहीं देता कि मैं अपने सभ्य एवं शिक्षित समाज पर कोई टिप्णी कर सकूं.

किन्तु अपने समाज से मेरा आह्वान है – महिलाओं के लिए बराबरी के अधिकार की इस लड़ाई में महिलाओं के पक्ष में खड़े हों. न केवल बलात्कार से पीड़ित लड़कियों को समाज में एक बेहतर जीवन के लिए अपितु समाज में नारी के बराबरी के अधिकार के इस संघर्ष में हम अपनी सहभागिता को सुनिश्चित करें.  यह संघर्ष ज्यादा मुश्किल नहीं है बस हमें, पुरुष समाज को, अपनी सोच में बदलाव लानें की ज़रुरत है. आशा करता हूँ कि  मेरी इस कड़वी बात के लिए समाज मुझे माफ़ कऱ देगा…

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