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Reading: अल्पसंख्यक अब इंटरनेट पर भी हुए निशक्त
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BeyondHeadlines > Edit/Op-Ed > अल्पसंख्यक अब इंटरनेट पर भी हुए निशक्त
Edit/Op-EdLatest NewsLead

अल्पसंख्यक अब इंटरनेट पर भी हुए निशक्त

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published February 19, 2013
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9 Min Read
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BeyondHeadlines News Desk

यदि आप इंटरनेट को स्वतंत्रता का पर्याय समझते हैं तो अपनी राय बदल लीजिए. क्योंकि नए ज़माने के इस सबसे सशक्त माध्यम ने भी आतिवादियों के आगे घुटने टेक दिए हैं. धीरे-धीरे इंटरनेट भी मानसिक गुलामी और अशक्त होने का पर्याय बनता जा रहा है.

फेसबुक वाले मार्क जुकरबर्ग हमेशा पूछते थे, और बेशर्मी से अब भी पूछ रहे हैं कि ‘आपके मन में क्या है’. लेकिन अगर हिम्मत करके आपने अपने मन का हाल बयां कर दिया तो समझ लीजिए कि आपने अपनी दुर्गति को न्यौता दिया है. न सिर्फ आपके सृजित किए गए कंटेट को हटा दिया जाएगा बल्कि आप कई लोगों की नज़रों में भी आ जाएंगें.

कुछ दिन पहले ‘सेव योर वॉयस’ अभियान से जुड़े आलोक दीक्षित की पोस्ट ‘I Love My Pakistan.’ को अतिवादियों के दबाव के कारण फेसबुक ने हटा दिया था. जबकि यह पोस्ट न ही फेसबुक की किसी पॉलिसी का उल्लंघन कर रही थी और न ही सूचना प्रौद्योगिकी एक्ट के किसी भी प्रावधान के खिलाफ थी.

Photo Courtesy: onlinecollegecourses.com

पत्रकार हसन जावेद को भी अफ़ज़ल गुरु पर की गई उनकी टिप्पणियों के चलते फेसबुक से अकाउंट ही डिलीट कर दिए जाने तक की धमकी दी गई थी. अब ऐसा ही कुछ इंडिया टुडे की फीचर एडिटर मनिषा पांडे के साथ हुआ है. मनीषा पांडे पिछले कुछ समय से ब्राह्मणवाद, पुरुषसत्ता, अंध राष्ट्रवाद और अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ खुलकर लिख रही थीं. मनीषा न सिर्फ सामाजिक बुराइयों को आइना दिखा रहीं थी बल्कि अपने कड़वे-मीठे अनुभव भी साझा कर रही थीं. लेकिन अचानक, बिना कोई पूर्व नोटिस दिए या कारण बताए फेसबुक ने उनके तमाम पोस्ट को डिलीट कर दिया है.

यह न सिर्फ मनीषा के इंटेलेक्चुअल प्रापर्टी अधिकारों का खुला उल्लंघन है बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उनके संवैधानिक अधिकारों का भी हनन है. सबसे हास्यस्पद यह है कि मनीषा का एक भी पोस्ट किसी भी लिहाज से किसी भी भारतीय या अंतर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन नहीं करता है.

लेकिन फेसबुक से फिर भी उनके पोस्ट्स हटा दिए गए. यह सिर्फ पोस्ट्स नहीं थे बल्कि नया साहित्य था. लेकिन अभी भी बड़ा सवाल यही है कि मनीषा के पोस्ट फेसबुक से क्यों और कैसे हटे? क्यों का सीधा-साधा यह है कि जहां उनके पोस्ट्स को नई और सेक्यूलर सोच वाला एक बड़ा वर्ग पसंद कर रहा था, वहीं अतिवादी और संकुचित विचारधारा के लोगों को उनके पोस्टस चुभ रहे थे. यह अतिवादी और अंध राष्ट्रवादी संख्या में अधिक हैं, उन्होंने मनीषा की पोस्ट को फेसबुक पर रिपोर्ट किया, नतीजतन, फेसबुक ने बिना जांचे-परखे उनकी पोस्ट्स हटा दी.

इसमें फेसबुक की तकनीकी टीम या फिर पोस्ट हटाने की प्रक्रिया को दोषी ठहराया जा सकता है. लेकिन बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि क्या विचारधारा से अल्पसंख्यक लोग इंटरनेट पर भी निशक्त हैं. जो लोग कम हैं, क्या उन्हें अपनी बात खुलकर रखने का अधिकार नहीं हैं?

अभी कुछ महीने पहले यूट्यूब पर पैगंबर मुहम्मद पर विवादित वीडियो आया था. इस वीडियो की प्रतिक्रिया में सैंकड़ों स्थानों पर हिंसा हुई, कई सौ लोग मारे गए, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी वीडियो को हटाने के लिए यूट्यूब से अपील की, लेकिन फिर भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर यूट्यूब ने वीडियो को नहीं हटाया.

लेकिन जब भारत में कोई अपनी अभीव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत अपने मन को विचार, जिनमें नयापन और खुलापन है, फेसबुक पर व्यक्त करता है, तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मायने बदल जाते हैं. मनीषा के पोस्ट्स और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर एक अलग बहस हो सकती है, लेकिन यहां हमारे सामने बड़ा सवाल यह है कि क्या इंटरनेट भी अब सिर्फ बहुसंख्यकों और शक्तिशाली लोगों का माध्यम हो गया है, क्या अल्पसंख्यक (भले ही वह विचारधारा से अल्पसंख्यक क्यों न हों) इंटरनेट पर भी निशक्त हैं?

फेसबुक का ही दूसरा चेहरा यह है कि यहां धर्म के खिलाफ, हिंसा फैलाने वाला और फूहड़ कंटेंट खूब लिखा जाता है लेकिन वह नहीं हटाया जाता. अभी रविवार को ही उत्तर प्रदेश के आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर और उनकी समाजसेविका पत्नी नूतन ठाकुर एक फेसबुक पेज के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने गए थे. इस फेसबुक पेज का कंटेंट न सिर्फ आईटी एक्ट की धारा-66ए का खुला उल्लंघन है बल्कि यह आईपीसी की भी कई धाराओं का उल्लंघन करता है, लेकिन फिर भी उनकी एफआईआर दर्ज नहीं की गई.

यही नहीं बेहद फूहड़ कंटेंट वाले इस पेज़ को अभी तक न फेसबुक ने हटाया है और न ही इसे चलाने वाले के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई ही की गई है.

इंटरनेट किस तरह से सिर्फ ताकतवर लोगों का माध्यम बनकर रह गया है इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि भारत में पोर्न और अश्लील सामग्री प्रतिबंधित होने के बावजूद हजारों ऐसी वेबसाइटें हैं जो खुले पोर्न सामग्री बेचती है. यही नहीं, फेसबुक पर भी कई पेजों पर सिर्फ अश्लीलता परोसी जाती है. कानून का खुला उल्लंघन होने के बावजूद यह सब नहीं रुकता क्योंकि इसके पीछे अरबों डॉलर का कारोबार है और सरकारें भी इससे कमाती है.

हमारे लिए यह शर्मनाक है कि एक ओर जहां मनीषा जैसे लोग अपनी मौलिक ओर स्वच्छ सोच को भी खुलकर फेसबुक पर बयां नहीं कर सकते वहीं दूसरी ओर कई बेहद फूहड़ पेज जहां धर्म, समाज और हमारे कानूनों का खुला मखौल उड़ता है बेखौफ संचालित किए जाते हैं.

मनीषा के पास अपने अधिकारों के लिए कानूनी लड़ाई का रास्ता खुला है, वह इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राईट्स के तहत फेसबुक पर मुक़दमा ठोक सकती हैं. लेकिन यह अंतिम उपाय नहीं है. वक्त की ज़रूरत है कि हम फेसबुक की सोच को समझे और उसे उसकी सही जगह दिखाएं. फेसबुक हमारे ही कंटेट से चलता है. हम लिखते हैं, हमारे मित्र पढ़ते हैं तब फेसबुक को विज्ञापन मिलते हैं. लेकिन जब फेसबुक पर हमारा लिखा ही मिटाया जाने लगेगा तो फिर हम क्या करेंगे?

इस पूरे मामले का दूसरा पहलू यह भी हो सकता है कि फेसबुक ने सरकारी एजेंसियों के कहने पर कंटेंट हटाया हो. यदि ऐसा है तो यह और भी भयानक है. क्योंकि कांग्रेस सरकार की पूरी कोशिश फेसबुक और सोशल मीडिया को नियंत्रण में करने की है.

इससे भी बड़ा खतरा यह है कि सोशल मीडिया को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही बीजेपी की यदि सरकार आई तो क्या जो स्वतंत्रता है वह भी रह जाएगी? अब तक अल्पसंख्यक विचारधारा के लोग फेसबुक पर बोलने की हिम्मत जुटा लेते थे, उन्हें लगता था कि उनके आजाद और नए विचारों के लिए यहां स्थान है, लेकिन अब फेसबुक ने भी अपना असली रंग दिखा दिया है.

वक्त की ज़रूरत है कि फेसबुक के अल्पसंख्यक अब इकट्ठा हों मिलकर अपनी आवाज़ उठाए, वरना आज एक मनीषा को शांत किया गया है, कल तमाम अल्पसंख्यक विचारधारा वाले लोगों को निशक्त कर दिया जाएगा. या हो सकता है सरकार इंटरनेट के इस्तेमाल पर ही पाबंदी लगा दे और हम देखते भर रह जाएं.

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