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BeyondHeadlines > Holi Special > होली की के रंग, मस्ती, दोस्तों का हुड़दंग सबकुछ जैसे किसी ख़्वाब सा बनकर रह गया है
Holi SpecialLatest NewsLead

होली की के रंग, मस्ती, दोस्तों का हुड़दंग सबकुछ जैसे किसी ख़्वाब सा बनकर रह गया है

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published March 27, 2013 1 View
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5 Min Read
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Mahboob Khan for BeyondHeadlines

पुश्तैनी गाँव में जब होश संभाला तो गाँव के एक कोने में कुछ अलग रंग नज़र आते थे, चाहे वह दीवाली हो या होली. उन रंगों में शामिल होने की बहुत तलब होती थी लेकिन उस कोने में सबको जाने की इजाज़त नहीं थी, ख़ासतौर से बच्चों को तो क़तई नहीं.

बात ये है कि उस कोने में समाज के तथाकथित निचले तबके के लोग रहते थे और वहाँ समाज के उच्च तबके के लोग जाना पसंद नहीं करते थे. लेकिन इस पाबंदी की वजह से शायद मेरी वह तलब और मज़बूत होती गई और मैंने हिम्मत करके बड़ों से जानना चाहा कि साल में एक बार ये लोग इतना धमा चौकड़ी क्यों जमाते हैं, इतने रंग बिखेरते हैं कि सूरतें ही पहचान में नहीं आती.

क्या मैं इस रंग और मस्ती में शामिल नहीं हो सकता? मेरे इस सवाल एक बड़ा बवाल खड़ा कर दिया.

memories of holi

यह तमन्ना अधूरी ही रही, शहर में कॉलेज में दाखिला लेने के समय तक. और अमरोहा में जब कॉलेज में दाखिला लिया तो जैसे सबसे पहले इसी अधूरी तमन्ना को पूरा करना था. एक मुश्किल ये थी कि कॉलेज होली से कई दिन पहले ही बंद होने का ऐलान हुआ तो कुछ मायूसी हुई कि असली रंग और मस्ती तो कॉलेज में ही होती.

होली का दिन जैसे-जैसे नज़दीक आ रहा था दिल की धड़कनें तेज़ होती जा रही थीं, मैं दिखाना चाहता था कि होली में मेरी कुछ ख़ास दिलचस्पी नहीं है लेकिन अंदर से बेताबी बढ़ रही थी.

मम्मी से कहा भी कि अगर दोस्त बुलाने आएं तो कह दीजिएगा कि मैं घर पर नहीं हूँ, लेकिन यह भी डर बैठा कि सचमुच अगर दोस्त मुझे बिना लिए ही लौटकर चले गए तो सारा मज़ा ही ख़राब हो जाएगा. और जब रंगों से भूत बने दोस्तों ने जब दरवाज़े पर दस्तक दी तो इससे पहले कि मम्मी कुछ कह पातीं, मैंने आव देखा न ताव, जाकर मसख़रों की टोली में शामिल हो गया. फिर तो बस, जो हुड़दंग हमने मचाया उसे शब्दों में कहाँ बयान किया जा सकता है. हाँ, एक घटना आज भी नहीं भूलती.

अमरोहा के मशहूर और पुराने बसावन गंज इलाक़े में जब हमारी टोली पहुँची तो छतों पर लड़कियों की टोली रंगों से भरे गुब्बारे लिए हमारा इंतज़ार कर रही थी. उन्होंने ताबड़तोड़ गुब्बारों की बौछार हम पर कर दी लेकिन हममे से कुछ ने वे गुब्बारे क्रिकेट की गेंद की तरह कैच कर लिए और निशाना साधा.

अब उन लड़कियों की हालत देखने लायक थी. बहरहाल रंगों में इतने पुत चुके थे कि किसी को यह पता ही नहीं था कि आख़िर कौन कौन है? बस आवाज़ से पहचान हो पाती थी. और मज़ा तो तब आया जब दिन भर की मस्ती और कई दोस्तों के घर पर ख़ूब सारी गुंजिया खाने के बाद जब घर लौटा तो मम्मी ने छत पर से ही कह दिया- बेटा, महबूब तो घर पर नहीं है, वह तो दोस्तों के साथ होली खेलने गया है”.

अब जब से रोज़गार के सिलसिले में अमरोहा छूटा है, होली के रंग भी छूट गए हैं. जहाँ-जहाँ भी काम किया वहाँ होली और दीवाली के मौक़े पर ख़ासतौर से मुझ पर ही ज़्यादा नज़र रहती थी. और पत्रकारिता, रेडियो और टेलिविज़न की दुनिया में तो काम 24 घंटे चलता ही है. इसलिए जब सारे लोग होली मनाते हैं तो महबूब ख़ान मन मसोसकर काम कर रहा होता है. लेकिन जब से लंदन आया हूँ, यह भी पूछना पड़ता है कि होली कब है. मैं ही नहीं, कई दोस्तों से पूछा तो उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिए, चलो, किसी से पूछते हैं कि होली कब है.

अमरोहा की गलियों के साथ-साथ होली की के रंग, मस्ती, दोस्तों का हुड़दंग सबकुछ जैसे किसी ख़्वाब सा बनकर रह गया है लेकिन इस ख़्वाब को बार-बार देखने की कोशिश करता हूँ. आँख बंद करके उस सबको याद करता हूँ तो अनोखी ताज़गी मिलती है. एक ऐसी ताज़गी जो एक अनमोल धरोहर बन चुकी है.

(लेखक बीबीसी से जुड़े हुए हैं.)

TAGGED:happy holiHolijournalist's holimahboob khanmemories of holistory of holi
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