पापा गुस्सा, मैं हुड़दंगी…

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होली की अधिकतर मेरी यादें या तो बिहार के मधेपुरा जिले में स्थित अपने गांव आनंदपुरा से जुड़ी हैं या फिर मुंगेर शहर के उस छोटे से शहर तारापुर से, जहां पापा पदस्थापित थे. पापा के कॉलेज में होली के मौके पर 8-10 दिनों की छुट्टी होती थी और हम लोग भरपूर मजा लेते थे. एक ओर पापा को होली के हुड़दंग से सख्त नफरत थी, वहीं मुझे हुड़दंग करने में मजा आता था. इस कारण सुबह होते ही पापा अपना मूड खराब कर लेते और शाम तक उनका मूड वैसा ही रहता. लेकिन जब शाम तक हुड़दंगियों की फौज अपने-अपने घर को चली जाती तब उनका मूड अच्छा हो जाता. लेकिन होली जैसा मौका हो तो फिर मैं कहां चूकने वाला. उनके मूड ऑफ रहने के बावजूद घर के पिछवाड़े से किसी ने किसी बहाने हुड़दंगियों के बीच चला ही जाता.

 Photo Courtesy: theatlantic.com

पैरों पर गुलाल, माथे पर टीका

जब हमलोग तारापुर में होते तो वहां मनोज भैया, सुभाष भैया, प्रभाष भैया, मानव भैया, बाबू साहेब, संतोष, मोनी, राजेश, रत्नेश, केशव, मुन्ना, टुन्ना, बबलू, बुच्चन आदि लोगों के साथ जमकर होली मनाता था. हम सभी लोगों की टोली पूरे तारापुर का चक्कर लगाती. हम लोगों के घर के सामने काफी जगह थी और सुबह होते ही सभी युवाओं की टोली जमा हो जाती. फिर सभी मिलकर उल्टा नाथ महादेव मंदिर, उर्दू बाजार, पुरानी बाजार, थाना, मोहनगंज, हटिया, बस स्टैंड होते हुए यानी पूरे तारापुर का चक्कर लगाते हुए घर पहुंचते. शाम होते ही सभी तैयार होकर सभी के घर जाते. बड़ों के पैरों पर गुलाल डालते और छोटों के माथे पर टीका. जिसके यहां जाता, कुछ न कुछ खाने के लिए ज़रूर मिलता.

दही-बड़े और अनरसा

मुझे बचपन से दही-बड़े (दही-भल्ले) अच्छे लगते. होली की शाम मैं जब भी किसी के यहां जाता तो वहां दहे-बड़े जरूर खाता. और तो और मां और सभी बहनें तो अलग-अलग तरह के पकवान के साथ खाना बनाने में जुटे रहते जिसकी तैयारी 2-3 दिन पहले से ही शुरू हो जाती. मिथिला में ‘अनरसा’ नामक पकवान होली के मौके पर बनाया जाता था. हमारे यहां भी मां बनाती थी. संयोगवश तारापुर कॉलेज के किसी भी प्रोफेसर या स्टॉफ के यहां यह नहीं बनता था और शाम में पापा के कॉलेज के सभी स्टाफ मेरे यहां आते. घर से बाहर काफी जगह थी और फिर वहीं 40-50 लोगों की बैठक हो जाती और सभी लोग उस ‘अनरसा” का स्वाद लेते. तारापुर छोड़े हुए 16 साल हो गए हैं लेकिन हर होली वहां की याद आती है.

जब घोंटा था भांग

होली के मौके पर ही मैंने पहली बार भांग पीया था. उस वक्त करीब 7-8 साल का रहा होउंगा. गांव में था. गांव के एक चाचा बमजी और हम उम्र कल्याणजी ने कहा कि ज़रा पीकर देखो कितना अच्छा लगता है. उन्होंने वादा किया कि वह मेरे भांग पीने की बात किसी को नहीं बताएंगे. मैंने एक-दो घूंट लिया लेकिन मुझे अच्छा नहीं लगा. रात में मां ने भोजन करने के लिए बुलाया तो मेरा पैर लड़खड़ा रहा था. हालांकि मैंने खुद पर कंट्रोल किया और किसी को मालूम भी न हुआ लेकिन उस चाचा ने मुझे दगा दे दिया और दो-चार दिनों बाद मां को उन्होंने बता दिया.

होली के बाद मेरी चचेरी बहन की शादी थी और मां को जैसी ही पता चला मां ने मुझे बुला भेजा. उस वक्त मैं भोज खा रहा था. उन्होंने जैसे ही मुझे बुलाया और सवाल किया तो मुझे सांप सूंघ गया. मां ने मेरी पिटाई तो नहीं की लेकिन पांच बार उठक-बैठक लगाने को कहा और हिदायत दी कि कभी भांग को मुंह लगाया तो तुम्हारी खैर नहीं.

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