Shamina Shafique for BeyondHeadlines
इस सच से आप इंकार नहीं कर सकते कि देश का कोई भी कानून 100 फीसद सफल नहीं है, जब तक कि इसके लिए 100 फीसद प्रयास नहीं किया जाए. इस बात से भी आप इंकार नहीं कर सकते कि धीरे-धीरे महिलाओं में जागृति आ रही है. महिलाएं पहले की अपेक्षा अब ज़्यादा सशक्त हैं. जो महिला कल तक घूंघट काड़ कर भी निकलने में कतराती थीं, वोट करने का सलीका नहीं पता था. आज वो महिला चुनाव लड़ती है (भले ही एक पुरूष उसके पीछे हो). और न सिर्फ चुनाव लड़ती है बल्कि जीतती भी है. यह अलग बात है कि जीत के बाद भी पुरूष ही उसका लाभ उठाते हैं. उसकी वजह हमारा समाज है, समाज में सदियों से चली आ रही प्रथाएं हैं. इनको सबको बदलने में समय तो लगेगा ही.
गांव की बात करें तो जहां पर महिलाएं अपने पति, पिता या ससूर के सामने बैठ नहीं सकती थीं, उससे पहले खाना नहीं खा सकती थी. वहां उस महिला को हमारे देश के संविधान व कानून ने वो शक्ति दी है कि वो प्रधान कहलाती है. यानी हम देखें तो उस पुराने सोच को बदलने में समय ज़रूर लग रहा है, लेकिन बदला नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता.
एक महिला चुनाव जीत कर आती है तो पहले झिझकती है कि कुर्सी पर कैसे बैठे? ससूर खड़े हैं, पति खड़ा है, यानी पहली बार संकोच करती है लेकिन जब दुबारा चुनकर आती है तो उसमें ज़बरदस्त कॉंफीडेंस आ जाता है. काफी कॉंफीडेंस के साथ अपनी कुर्सी पर जाकर बैठेगी, क्योंकि अब तक वो अपने अधिकार को जान चुकी होती है.
मेरा मानना है कि समय के साथ चीज़ें बदलती हैं. और आज महिला सशक्तिकरण की लहर चल रही है. आप देखेंगे कि आने वाला समय महिलाओं का ही होगा. जहां तक महिलाओं के उत्पीड़न की बात है तो उस उत्पीड़न के लिए ज़ाहिर सी बात है कि जो उत्पीड़न कर रहा है, वो ही सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है. लेकिन उससे ज़्यादा ज़िम्मेदार हमारा समाज है. किसी और की बेटी के साथ कुछ होता है तो हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन जब हमारे घर-परिवार में बीतता है तब हम जागते हैं. हमें यह सोच अब बदलना होगा. उत्पीड़न किसी के साथ हो, हमें बोलना पड़ेगा. समाज को कानून के प्रति जागृत करने होगा. और जब जागृति आएगी तो समाज की तमाम कुरीतियां स्वयं ही समाप्त हो जाएंगी.
एक सच्चाई यह भी है कि हमांरा समाज आज भी पुरूष प्रधान समाज है. इसे बदलने की आवश्यकता है. क्योंकि समाज का पुरूष प्रधान होना भी महिला उत्पीड़न का सर्वश्रेष्ठ कारण है. राष्ट्रीय महिला आयोग की सोच है कि ग्रामीण अंचलों में पहुंचने की है. शहरों में लोगों को कुछ हद तक तो अपने अधिकार व कानून पता हैं, लेकिन छोटे शहरों में जहां महिला उत्पीड़न सबसे ज़्यादा होता है और किसी को कानून व अपने अधिकारों की कोई जानकारी नहीं है. बड़े शहरों में तो सामाजिक संस्थाएं लोगों को जागरूक करने का कार्य कर रही हैं लेकिन गांवों में जागरूकता फैलाने वाला कोई नहीं है. ऐसे में हमारी व आपकी ज़िम्मेदारी बनती है कि छोटे शहरों व गांवों में भी लोगों को उनके कानून व अधिकारों के प्रति जागरूक करें. और वैसे भी महिलाएं शक्ति का दूसरा रूप हैं, उसे बस मालूम होना चाहिए कि उसके अधिकार क्या हैं, फिर तो अपने आप ही सशक्त हो जाएगी.
(शमीना शफ़ीक़ राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्या हैं और यह लेख अफ़रोज़ आलम साहिल से बातचीत पर आधारित है.)