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साहित्य के अमूल्य सम्पदा हैं स्व० रमेश चंद्र झा

Rajeev Kumar Jha for BeyondHeadlines

(7 अप्रैल पुण्य तिथि पर रमेश चन्द्र झा को याद करते हुए)

आज फिर बम फट पड़ा शहर में है
अनगिनत लाश चीर घर में है.
मेरा मुन्ना लौट कर घर न आया अबतक
न जाने क्या हुआ डगर में है….

वर्षों पहले लिखी कविवर रमेश चंद्र झा की ये पंक्तियाँ आज के हालात को बयां करने में सफल है. उनकी ये पंक्तियाँ आज के इस दौर में प्रासंगिक बनी हुई हैं. 8 मई 1925 को जन्मे साहित्य के इस महान साधक का साहित्य उपेक्षा का शिकार है. हिंदी साहित्य को अपनी लेखनी से विविध विधाओं में अनगिनत कृतियाँ देकर श्री झा ने जो सेवाएं की हैं, उसका सही मूल्यांकन अभी तक नहीं हो सका है. अपनी लेखनी के माध्यम से दर्जनों लेखक-कवियों की खोज ख़बर लेने वाले साहित्य के इस पुरोधा को आज का साहित्य जगत भूलता जा रहा है. वे न केवल कवि, रचनाकार अथवा पत्रकार थे, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. अंग्रेजों की ओर से उन्हें देखते ही गोली मार देने का आदेश था. स्वतंत्रता प्राप्ति के 25 वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी ने 15 अगस्त 1972 को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में स्मरणीय योगदान के लिए उन्हें ताम्र पत्र भेंट किया था.

झा जी का घर पूर्वी चम्पारण के ही फुलवरिया गाँव में है. कभी सृजन कर्मियों के लिए तीर्थ बना यह गाँव आज वीरान पड़ा है. आज इस साहित्य योधा के साहित्य कर्मों और कृतियों की ख़बर लेने वाला कोई नही है. जो सख्स ताउम्र नए राहगीर लेखक कवियों और पत्रकारों को उंगली पकड़ा कर चलना सिखलाता रहा और ना जाने कितनों को शागिर्द से उस्ताद बना दिया उसके व्यक्तिव और कृतित्व से किसी को कोई  सरोकार नहीं. तक़लीफ में जी रहे उनके परिजनों से किसी को कोई वास्ता नही.

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ये जिला परिषद मोतिहारी में कार्यरत रहे. नौकरी के साथ साथ चम्पारण की साहित्य साधना में जुटे लोगों को प्रोत्साहित करते हुए इन्होने 70 से ज्यादा पुस्तकें लिखीं. आर्थिक तंगी में अपनी अधूरी जिंदगी जीते हुए 7 अप्रैल 1994 को उन्होंने हमसे विदा ले ली. आर्थिक तंगी के कारण इनकी कई पांडुलिपियाँ अप्रकाशित रह गईं जो नष्ट होती जा रहीं हैं और इसकी सुधि लेने वाला कोई नहीं. गुप्त काल की घटना पर आधारित ऐतिहासिक उपन्यास शिक्षा-भिक्षा, के अलावा खादी के उद्योग, चिड़ियों का नगर, व्यक्ति और व्यक्तित्व, अगस्त क्रान्ति की लपटों में, इंदिरा गांधी सफलताओं का वर्ष… जैसी पांडुलिपियों को प्रकाशक का इन्तजार है. इन सबों के अलावे भी उनकी कई पांडुलिपियाँ हैं. ये वहीं रमेश चंद्र झा हैं जो अपने समकालीन हरिवंश राय बच्चन, रामवृक्ष बेनीपुरी, शिवपूजन सहाय, नागार्जुन, कुश्वाहा कांत, कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर जैसे अनेक साहित्यिक दिग्गजों के प्रिये पात्र बने रहे.

प्रायः सभी समकालीन साहित्य मनीषियों के विचार पत्र के माध्यम से कविवर के पास आते रहे और सबों ने अनेकानेक राष्ट्रीय मंचों पर झा जी का लोहा माना. हरिवंश राइ बच्चन ने लिखा ”रमेश चंद्र झा जी की रचनाओं से मेरा परिचय हुंकार (पटना) साप्ताहिक के मार्फ़त हुआ. रांची कवि सम्मलेन में उनसे मिलने और उनके मुख से उनकी कविताओं को सुनने का सुयोग प्राप्त हुआ. उनकी रचनाओं का अर्थ मेरे मन में और गहराया. झा जी के गीतों में हृदया बोलता है और कला गाती है. मेरी मनोकामना है कि उनके मानस से निकले हुए गीत अनेकानेक कंठो में उनकी अपनी सी प्रतिध्वनि बन गूंजे.” कविवर झा की पुस्तक मुरलिका जब बच्चन जी ने पढ़ी तो उन्होंने मुक्त कंठ से प्रशंसा भरा पत्र भेजा –

आदरनिय झा जी ,
मई आपकी मुरलिका को लगातार तीन बार पढ़ गया. क्या गज़ब लिखा है आपने. बहुत बहुत धन्यवाद मुरलिका के लिए. आपकी आगामी कृति का इन्तजार रहेगा.

आपका
हरिवंश राइ बच्चन

मुरलिका के अधिकांश गीत आकाशवाणी के सुगम संगीत के लिए चुने गए. इस पुस्तक की रिकॉर्ड तोड़ बिक्री हुई. इस काव्य पुस्तक की भूमिका रामवृक्ष बेनीपुरी ने लिखी. उन्होंने लिखा ”दिनकर के साथ बिहार में कवियों की जो नई पौध जगी उसका अजीब हश्र हुआ. आँखे खोजती हैं, इसके बाद आने वाली पौध कहाँ है? कभी कभी ज़मीन की मोटी परत छेद कर नए अंकुर झांकते हुए दिखाई पड़ते हैं… रमेश वही अंकुर है…

हिंदी साहित्य जगत के इस नायक को ‘अपने और सपने’ (चम्पारण की साहित्य यात्रा) लिखने के लिए शिव पूजन सहाय जैसे लेखकों ने तहे दिल से शुभकामनाएं भेजीं और काशी विद्यापीठ के तत्कालीन कुलपति डा०विद्यानिवाश मिश्र ने साधुवाद दिया. कविवर की विद्वता ही थी कि शिवपूजन सहाय उन्हें ‘मान्यवर झा जी, सादर प्रणाम… के संबोधन से पत्र लिखा करते और देवघर विद्यापीठ के तत्कालीन कुलपति विजेंद्र गौड़ उनका चरण स्पर्श किया करते. हिंदी में सैकड़ो कवितायें, मुक्तक, संगीत रूपक. रुबाइयां, गज़ल, आदि लिखने के अलावा इन्होने दर्जन भर से ज्यादा उपन्यासों की रचना की. साहित्य संसार को उन्होंने ”मिट्टी बोल उठी, मजार का दिया, वत्सराज, आजादी की रह में, दुर्ग का होरा, राव हम्मीर” जैसे ऐतिहासिक उपन्यास दिए तो  ”एक समय की बात” जैसा लोकप्रिय बाल उपन्यास भी दिया. इनके अलावा ”चोखातीं दीवारें, जीवन दान, चलती लकीरें, धार के फूल, रूप की राख, धरती की धुल, पास की दूरी, मीरा नाची रे,” जैसे अनेक उपन्यासों की रचना कीं. कविवर की हरेक कृतियाँ उन्हें बारीं बारी से अमरत्व प्रदान करतीं गईं. बाल साहित्य पर भी उनकी अनेक पुस्तकें आयीं. ”चम्पारण की साहित्य साधना, चम्पारण साहित्य और साहित्यकार, चम्पारण की साहित्य यात्रा, स्वाधीनता समर में सुगौली, अपने और सपने, जैसे कई शोध परक पुस्तकें भी आपने लिखीं.

रक्षा साहित्य पर देश के गिने चुने साहित्यकार हीं लिखते रहें हैं स्व० झा ने रक्षा साहित्य पर भी अपनी लेखनी चलाई. चीनी आक्रमण के समय सन 1968 में उन्होंने ”यह देश है वीर जवानों का” नाम से एक ग्रन्थ लिखा जो दो भागों में प्रकाशित किया गया. इस ग्रन्थ की भूमिका तत्कालीन रक्षा मंत्री यशवंत राव बलवंत राव चौहान ने लिखी. इस ग्रन्थ के प्रकाशन के शुभ अवसर पर तत्कालीन स्थल सेनाध्यक्ष जेनरल जेएन चौधरी ने अपना वीरोचित सन्देश दिया.

रमेशचंद्र झा ने न सिर्फ हिंदी साहित्य में अपना अमूल्य योगदान दिया बल्कि मैथली और भोजपुरी में भी अपनी लेखनी चलाई. भोजपुरी में सबसे पहला उपन्यास इन्होने ही लिखा. जिसका नाम है-सुरमा सगुन विचारे ना. भोजपुरी का यह पहला धारावाहिक उपन्यास आज अप्रय है. कविवर झा ने भोजपुरी में एक से बढ़कर एक गजलें भी लिखीं.

हिन्दी के अप्रितम कथाकार कुशवाहा कान्त पर इन्होंने उस समय संस्मरण लिखा जब उनकी ह्त्या कर दी गई थी और तब कोई भी उनपर कुछ लिखने को तैयार नही था. इस समय उनकी एक लंबी नौ पेज की आत्म्व्यन्जक निबंध -आप बीती सुनिए, छपी.

कुल मिला कर इस साहित्यिक योधा ने साहित्य के लिए जो किया, साहित्य को जो दिया उसे भूल पाना मुमकिन नहीं. पर आज की पीढ़ी उन्हें भूलती जा रही है. यह बात जग जाहिर है कि साहित्यिक दलबंदी मिट्टी को सोना और सोना को मिट्टी बनाती है. यह भी वास्तविकता ही है कि अगर रमेश चंद्र झा ने साहित्य के चहरे पर राजनीति की पॉलिश की होती तो आज उनके साथ भी एक हुजूम होता.

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