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सिनेमा के सौ साल : ‘श्रीराम’ से लेकर ‘तेरी बहन’ तक…

Anita Gautam for BeyondHeadlines

बहुत दिनों से टीवी पर मुंबई टाकिज के कुछेक गाने हर जगह छाए हुए हैं जिसमें हर दशक को बखुबी दिखाया गया है. बावजूद उसके आज बहुत दिनों बाद रामानंद सागर द्वारा बनाई रामायण देख आंखे भर आईं. 80 के दशक में शायद लोग कामधाम छोड़, रामायण ठीक उसी प्रकार देखा करते थे जैसे आज के दौर मे लोग आईपीएल या कोई मैच देखते हैं. तब लोग राम का वनवास, सीता हरण यहां तक कि मां सीता की अग्नि परीक्षा से लेकर उनका धरती मां में समाना देख फूट-फूट वैसे रोते थे, जैसे अब कहानी घर-घर की में मिहीर को मरता देखकर…

कार्यक्रम देखने की उत्सुकता बच्चों और महिलाओं में ठीक वैसी ही होती थी जैसे आज सास-बहु धारावाहिक या कार्टून देखने की होती है. उस समय बच्चे खेल-खेल में राम-भरत-शत्रुघ्न, लक्ष्मण, हनुमान, सीता और रावण की भूमिका निभाते थे, उन सबके मुखौटे और नकली पूंछ लगा घुमते थे और आजकल के बच्चे डारिमान, स्पाइडर मैन, निंजा-हतौड़ी और आयरन मैन के मुखौटे लगा घुमते हैं. आज की महिलाएं सीता का किरदान निभाना तो दूर कमोलिका, मल्लिका, झूंपा लहरी बनने की बखुबी कोशिश करती हैं…

Indian Cinema Completes 100 Years

अजीब बात है, एक वो दौर था और एक ये दौर है. इस दौर में संबंधों की समझ न के बराबर रह गई है और वो डोर अब मज़बूत नहीं रही, इसके पीछे वो हाई क्लास तबका है जो समाज को नये-नये आइडिया देता है. ऐसे धारावाहिक या फिल्में हैं जिसे देख लोग 2 तो क्या 4 शादियों को गलत करार नहीं देते. लोगों को लगता है जब धारावाहिक में मिस्टर बजाज दो शादी कर सकते हैं तो मैं क्यों नहीं? राखी का स्वयंवर हो सकता है तो मैं क्यों नहीं? अरे फला हिरोईन ने तो चार शादी की फिर मैं क्यों नहीं? लेकिन ऐसे हाई क्लास लोग अपने कुकर्म को सुकर्म मानकर लोगों के सामने अपनी मानिकता को चित्रित करते हैं और हम लोग भी भेड़चाल में विश्वास करने वाले अपने शरीर को ढ़कने की जगह उसे अधनंगा किये मॉडर्न फैशन की बात करते हैं.

पर्दे का खुलापन कहिए या समाज का, महेश भट्ट जैसे महान लोग ये तक बोलते शर्म नहीं करते कि अगर पूजा मेरी बेटी न होती तो मैं इससे शादी कर लेता, तो फिर ये वहीं समाज ही तो है जिसमें बाप-बेटी का भाई-बहन की इज्जत को तार-तार करने से बाज नहीं आ रहा. आखिर समाज हम से ही तो है.

वहीं लिव इन रिलेशनशिप, एक्सट्रा मैरिटल अफेयर्स नामक नये नये शब्द संबंधों की शब्दावली में जुड़ते जा रहे हैं. मानों अब तो समय के साथ संबंधों की परिभाषा का भी माडलाइजेशन हो गया हो. यदि किसी मीडिया या फिल्म निर्माता टाइप लोगों से आज कल की फिल्मों में हो रही अश्लीलता पर बात की जाए तो वो हंस कर बोलते हैं हम तो वही दिखाते हैं जो जनता देखना चाहती है. अब वो जमाना गया.

फिर कोई ज़रा मुझे यह समझाए कि आज कौन सा जमाना है, क्या इस ज़माने की पसंद और मांग बलात्कार से भी उपर उठकर गैंगरेप में बदल गयी है या औरत का स्वरूप सिर्फ मर्दों को गोरा करने वाली क्रीम तक रह गया है? आज शायद लोगों की पसंद यूटीवी, एमटीवी, फैशन चैनल, स्टार प्लस या एक्शन मूविस हो गई हैं. जो गलती से आस्था या संस्कार चैनल देख लिया पाया जाता है लोग उसे बाबा या माताजी बोलने लगते हैं. बुक स्टाल पर आप भी किसी दिन अपना सामान्य ज्ञान बढ़ाने के लिए एक बार किसी धार्मिक पुस्तक के बारे में पूछिएगा, अंग्रेजी अथवा हिन्दी किताबों पर अधनंगे कपड़ों में कोई गोरी नज़र आ जाएगी और दुकान वाला आपको घुर कर देखेगे, मैं ऐसा इसलिए बोल रही हूं कि विगत दिनों में संस्कार पत्रिका लेने नई दिल्ली स्टेशन, अधिकांश मेट्रो स्टेशन की दुकानों के अलावा सरकारी दफ्तरों के बाहर की दुकानों पर भी संस्कार पत्रिका को ढूंढ रही थी, संस्कार पात्रिका तो क्या अन्य कोई धार्मिक पत्रिका नहीं मिली, अलबत्ता दुकान वाला हंसते हुए बोला-अरे मैडम इसे पढ़ता भी कौन होगा? फिर आप ही सोचिए क्या इन सबके चलते हम अपनी गंदी मानसिकता और अपराधों पर काबू पा संकेगें?

मैं आज सिर्फ ये सोच रही हूं कि हमारी आने वाली पीढि़यां क्या सीखेंगी? हम तो स्वयं माड्रन कल्चर और आधुनिकता के अधीन हो चुके हैं फिर कौन उन्हें संस्कार, संस्कृति, समाज, राष्ट्रधर्म, पिता भक्ति, मां का आदर कर वचनों का पालन करने की शिक्षा देगा? क्या सलमान खान, जान इब्राहिम, इमरान हाशमी, सनी लियोनी, मल्लिका शेहरावत, करीना कपूर आदि कलाकारों से हमारा समाज सुधरेगा?

80 के दशक में भी मीडिया और सिनेमा थी और आज भी है, फिर इतना परिवर्तन क्या हमारी सोच और ज़रूरतों के हिसाब से नहीं हो रहा? क्या आपको नहीं लगता हमें ऐसे धारावाहिक या फिल्मों का बहिष्कार करना चाहिए? ज़रूरी नहीं हर जंग हर लड़ाई का समाधान युद्ध या जंतर-मंतर से इंडिया गेट तक की मोमबत्ती यात्रा ही हो…

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