Puja Singh for BeyondHeadlines
डा. मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में नौ साल पूरे कर लिए. नौ साल की उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि वह पद पर बने रहे. मनमोहन सिंह एक नौकरशाह रहे हैं और वह नौकरी करना जानते हैं. पर क्या देश को प्रधानमंत्री के रूप में एक ऐसे नौकरशाह की ज़रूरत थी, जिसके लिए अपनी नौकरी से बड़ा कुछ न हो.
बात थोड़ी कड़वी लग सकती है. पर सच्चाई के करीब है. ऐसा नहीं है तो पिछले नौ साल और खासतौर से पिछले चार सालों में प्रधानमंत्री कभी भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ खड़े क्यों नजर नहीं आए? इस सरकार के घोटालों की जांच उनकी मेज़ पर पहुंचने के बाद क्यों अंधेरी गली में खो जाती है? नौकरशाह चुप रहता है, राजनेता बोलता है, कभी सच कभी झूठ, पर बोलता ज़रूर है.
उसे पता है कि उसे जिस मतदाता ने सत्ता में बिठाया है, उसे बताना ज़रूरी है कि ऐसा क्यों हुआ और वह इसके लिए किस तरह से जिम्मेदार नहीं है. समस्या यहीं से शुरू होती है. मनमोहन सिंह मतदाता के प्रति जवाबदेह नहीं हैं. उनकी जवाबदेही दस जनपथ से शुरू होती है वहीं खत्म हो जाती है.
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के दूसरे कार्यकाल के चार साल पूरे हो गए हैं. यह मौका किसी भी सरकार उसके मुखिया और पार्टी के लिए जश्न का मौका होना चाहिए. पर चौथी वर्षगांठ से एक दिन पहले केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक विनोद राय को चुनौती दे रहे थे कि वह सार्वजनिक बहस कर लें कि स्पेक्ट्रम घोटाले पर उनकी रिपोर्ट में कितनी सच्चाई है.
यह घटना एक बात की पुष्टि करती है कि सरकार में बैठे लोगों को सच नज़र नहीं आ रहा या वे उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. ऐसा न होता तो मनीष तिवारी पहले सीबीआइ और सुप्रीम कोर्ट से पूछते. यह इस सरकार की स्वभावगत समस्या है कि वह वास्तविकता को स्वीकार नहीं करना चाहती. वह 2जी घोटाले की जांच के लिए बनी संसद की संयुक्त संसदीय समिति की मसौदा रिपोर्ट के जरिये सीएजी पर हमला करती है कि उसकी रिपोर्ट ने दुनिया में भारत को सबसे भ्रष्ट देश के रूप में दिखाया है. तो इस सरकार की नज़र में भ्रष्टाचार करने वाले नहीं उसे उजागर करने वाले दोषी हैं.
नौ साल पहले कांग्रेस ने नारा दिया था- कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ… पर नौ साल में कांग्रेस का हाथ आम आदमी की दोनों जेबों में पहुंच गया. एक से पैसा महंगाई के खाते में गया और दूसरे से भ्रष्टाचार के खाते में. जिस तरह से मनमोहन सिंह की ईमानदारी देश के किसी काम नहीं आई उसी तरह अर्थव्यवस्था का उनका ज्ञान भी काम नहीं आया. सरकार घोटालों और घोटालेबाजों के बचाव में लगी है. पार्टी तय नहीं कर पा रही कि प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा बचाए या कांग्रेस अध्यक्ष की. पवन बंसल और अश्रि्वनी कुमार के इस्तीफे के मसले पर पहले कहा गया कि सोनिया गांधी इन्हें हटाना चाहती हैं. पर प्रधानमंत्री बचा रहे हैं. फिर सफाई दी गई कि मंत्रियों को हटाने के फैसले पर दोनों में कोई मतभेद नहीं है.
प्रधानमंत्री को सोचना चाहिए कि उनके कार्यकाल में हर नियुक्ति विवादास्पद क्यों हो जाती है. उन्होंने केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पीजे थामस की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कोई सबक क्यों नहीं लिया? वह पहले प्रधानमंत्री हैं जिनके प्रशासनिक फैसलों पर सुप्रीम कोर्ट ने इतनी तीखी टिप्पणियां की हैं और फैसले बदले हैं.
कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री को इस मौके पर सोचना चाहिए कि उन्होंने देश के साथ जो किया क्या उसी के लिए उन्हें जनादेश मिला था? संप्रग का पहला कार्यकाल सांसदों की खरीद-फरोख्त से पूरा हुआ और दूसरे कार्यकाल को पूरा करने का श्रेय सीबीआइ को जाना चाहिए. यह दोनों नेताओं के राजनीतिक कौशल पर सवाल उठाता है.
संप्रग के दूसरे कार्यकाल में राजनीति, अर्थव्यवस्था, प्रशासन और नीतिगत फैसलों की जो दुर्दशा हुई है उसने पहले कार्यकाल की उपलब्धियों को धूमिल कर दिया है, संप्रग का दूसरा कार्यकाल भ्रष्टाचार ही नहीं संवैधानिक संस्थाओं के मानमर्दन के दौर के रूप में भी याद किया जाएगा. सरकार फैसले लेने की क्षमता खो चुकी है और फैसलों को लागू करने वालों का सरकार से भरोसा उठ चुका है. पहले कार्यकाल में सरकार की नीतियों पर सवाल उठ रहे थे. दूसरे कार्यकाल में उसकी नीयत पर सवाल उठ रहे हैं. प्रधानमंत्री आज अपने ही लोगों के बीच अकेले पड़ गए हैं.
सरकार इसलिए चल रही है, क्योंकि गिरी नहीं, ऐसे में जश्न! बैकग्राउंड से आवाज़ आ रही है- …बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया…
