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और मैं भी फुटपाथ पर आ गई…

Anita Gautam for BeyondHeadlines

पिछले एक महीने से उत्तर प्रदेश के जिला गोण्डा की रेल टिकट के लिए परेशान घूम रही थी. तल्काल टिकट मिलना तो कोसों दूर की बात साधारण आरक्षण जो कि तीन महीने पहले ही बुक कराई है, उसकी वेटिंग 150, 200, यहां तक की 400 चल रही है.

ऊपर से रेल आरक्षण केन्द्र, जहां पांव रखने तक की जगह नहीं. स्टेशन के आजू-बाजू मंडराते टिकट ब्रोकर 360 रूपये की टिकट का 2000 रूपये मांग रहे थे. हिम्मत नहीं हुई कि 360 रूपये की टिकट के लिए 2000 या और उससे अधिक दूं.

फिर सोचा चलो कोई बात नहीं, तत्तकाल की लाइन में सुबह 4-5 बजे लग कर टिकट ले लूंगी. पर नई दिल्ली, रेल भवन और सरोजनी नगर आरक्षण केन्द्र पर तो मामला एक दम उल्टा था. जिसे देख मैं हैरान हो गई. लोग 20-20 घंटे पहले से नई दिल्ली जैसे दिल्ली के तमाम रेलवे आरक्षण केन्द्र पर चादर बिछाए लाइन में बैठे, आपस में ही नम्बर तय किये हुए सुबह के 10 बजे का इंतजार कर रहे थे.

खैर भीड़ का अंदाजा तो मुझे था. पर इस कदर लोगों की लाइन कि अच्छे से अच्छा इंसान फुटपाथ पर आ जाएगा. सोचा न था. मैं और छोटा भाई रात के 3.30 बजे घर से इस उम्मीद से निकले की शायद हमारा नम्बर आ जाए… पर आज फिर महिलाओं की लाइन में मेरा 16वां नम्बर और भाई बेचारा सोच में पड़ गया कि लाइन में लगूं भी कि नहीं क्योंकि पुरूषों की लाइन ठीक वैसे लग रही थी जैसे किसी देवी के दर्शन के लिए बैठे श्रद्वालु जो मंदिर का पट खुलने की प्रतीक्षा कर रहे थे.

Photo Courtesy: guardian.co.uk

लाइन में आगे बैठी तीन महिलाएं, जिन्हें पटना जाना था दो दिन से लगातार रात 1 बजे से ही लाइन लगा रहीं थी पर किस्मत इतनी खराब कि नम्बर आते-आते वेटिंग टिकट भी हाथ से चली जाती. नींद की झपकी के साथ सुबह-सुबह टाइम पास करने के लिए 4 बजे से ही मजे में फुटपाथ पर बैठ आगे बैठी दो औरतों से गप्पे मारने लगी. उसी बीच सोचा चलो रेल भवन भी हो आउं, पर वहां लाइन में नम्बर 44 वां मिला और सरोजनी नगर में 67…  फिर लगा नई दिल्ली ही बेहतर है और वापिस सुबह-सुबह आधी दिल्ली घूम फिर कर नई दिल्ली पहुंच गई.

पर मजेदार बात ये थी कि सुबह-सुबह शांत दिल्ली लगी बड़ी सुंदर… प्रदुषण मुक्त हल्की ठंडी हवा आधी थकावट दूर हो गई. फुटपाथ पर बैठे-बैठे ऐसे दिग्गज चेहरे, उन टिकट दलालों के थे भी नज़र आए जो कभी न्यूज चैनल के कैमरे से बचते हुए भागते नज़र आते थे.

मुझे लगा यहां मुकाबला बहुत तगड़ा है इतने दिग्गज लोग यहां बैठे हैं. मुझे टिकट मिलना लगभग असंभव सा लग रहा था. फिर भी 10 बजते ही काउंटर खुला और 1-1 सैकेंड के लिए दिल की धड़कन तेज होती रही… और डर सताने लगा न जाने टिकट मिलेगी भी की नहीं?

10:18 पर मेरा नम्बर आते ही गोण्डा क्या गोरखपुर, बिहार तक नो रूम हो गया. हार कर मैनें लखनऊ तक की एसी चेयर कार की 3 टिकट जिनमें से दो कनफर्म और एक वेटिंग मिल गई. हालांकि चेहरे पर टिकट मिलने की खुशी कुछ कम थी अगर मेरे गांव तक टिकट मिलती तो लगता मैं 100 प्रतिशत नम्बरों से पास हुई, पर लखनऊ तक की टिकट की खुशी मात्र 70 प्रतिशत ही रही. कारण आगे के 3 घंटे धक्के खाते हुए जाना पडेगा.

भारतीय रेल में धक्का और मुक्का हमेशा मुफ्त में मिलता है. पर भारतीय रेल अच्छे से अच्छे इंसान को फुटपाथ पर भी सुला सकती है, ये उस रोज जाना. टिकट दलालों का एक तत्काल टिकट में 2000-4000 तक का मुनाफा करवा सकती है सोच सोच कर आश्चर्य हो रहा था…

जून-जुलाई को छोड़ दिया जाए तो भी कभी ऐसा नहीं होता कि टिकट आसानी से मिल जाए… मेरी समझ से तो टिकट दलालों का बिजनेस सबसे बेहतर है. सिजन के हिसाब से कमाई, इस हिसाब से यदि कोई  20 दिन भी टिकट करवाये तो अच्छी आमदनी हो सकती है. बावजूद सरकार महंगाई, किराये में बढ़ोतरी और पवन बंसल का रोना रो रही है.

स्पेशल ट्रेनों के नाम कुछेक ट्रेनों को सप्ताह में एक दो दिन चला नेक काम करने का दावा कर रही है. जनरल में बैठना तो दूर कोई खड़ा होकर भी नहीं जा सकता तो स्लिपर में इंसान गाय-बैल, घोड़ा, गदहा, की तरह पेलमपेल है.

कालाबाजारी को समाप्त करने का वादा सिर्फ सरकारी कागजों, पोस्टरों तक सीमित है. विपरित सरकार ही कालाबाजारी को बढ़ावा दे रही है. हैरत की बात है मामा-भांजे के खेल में आम जनता पीस रही है. वाई-फाई देने का वायदा करने वाले भारतीय रेल के मंत्री गरमी में परेशान लोगों को ट्रेन तो क्या प्लेटफार्म पर पानी तक मुहैया कराने में असमर्थ हैं. माना पवन मामा या ममता दीदी लंबे समय रेल मंत्री न रहे हों पर 9 साल से पुरानी बहु की तरह सत्ता में राज कर रही सरकार बखूबी जानती है कि इन दो महीनों में जहां बच्चों के स्कूल की छुट्टियां पड़ती हैं, उत्तर भारत में शादी ब्याह का मौसम होता है तो क्यों पहले से ही कोई पुख्ता इंतजाम नहीं करती?

मजे की बात यह कि मैं तीन टिकट के लिए एक महीने से परेशान घुम रही थी. तत्काल में ऐसे लोगों को भी देखा जो ईलाज करवाने मुंबई जाना चाहते थे. तो किसी के बेटे की बैंगलूर में परीक्षा थी तो कोई ऐसा भी था जिसके पिता का देहांत हो गया. उन्हें टिकट लेने में कितनी असुविधा का सामना करना पड़ा. पर भारत सरकार और भारतीय रेलवे तो चैन से सोना चाहती है. भले ही समाने वाले की जान क्यों न चली जाए.

यही बात जब मैंने अपनी एक मित्र को बताया तो वो बड़े शान से बोली कि कल ही मेरे परिवार के चार सदस्य गोरखपुर गये हैं. मैंने अपने घर के नजदीकी एक दलाल को रात में चारों के ब्यौरे आईकार्ड की कापी सहित दे दी और मात्र 1000 रूपये प्रति व्यक्ति अधिक दे कर मेरे घर वालों की टिकट बड़े मजे से मिल गई.

सोचने पर मजबूर करने वाली बात है कि एक ओर सरकार दलालों को समाप्त करने के लिए 10 से 12 बजे तक इंटरनेट सर्वर लगभग बंद कर देती है. लोगों से आग्रह करती है कि तत्काल टिकट आरक्षण केन्द्र से ही बनावाएं तो फिर ये दलाल 1000-2000 या सामने वाली की ज़रूरत के हिसाब से मुंह फाड़ दाम तय कर कन्फर्म टिकट कहां से मुहैया करा देते हैं, और वो भी बिना किसी असुविधा का सामना किये बगैर?

टिकट का रोना पहली बार रोया जा रहा है ऐसा नहीं है. हर बार इस मौसम में क्या बेमौसम लोगों को ऐसी मारामारी का सामना करना पड़ता है. मौके का फायदा देख चोरों की चांदी हो जाती है. पर्स, घड़ी, चैन तो क्या पूरा का पूरा सामान का पता नहीं लगता. तो कुछेक को भीड़ में मौत का सामना तक करना पड़ता है. जब देश की राजधानी का यह हाल है तो और शहरों में क्या हाल होगा?

मंहगाई, डीजल के दाम का हवाला दे कर सरकार रातों रात किराये में बढ़ोत्तरी तो कर देती है फिर लोगों की असुविधा के नाम सुविधाएं मुहैया क्यों नहीं कराती? यकीनन सरकार और सरकारी बाबूओं को टीए में एसी अथवा हवाई यात्रा मुफ्त में मिलती है. इसलिए उन्हें इस परेशानी और लोगों के जान-माल से कोई मतलब नहीं होता. पर भारत जिसे हम स्वतंत्र देश के नाम से जानते हैं, वहां लोग सड़क पर ऐसे आ जाते हैं, सोचा न था…

 नोट: भारतीय रेल से जुड़ी आपकी भी कोई कहानी हो तो हमें beyondheadlinesnews@gmail.com पर मेल करें…

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