Rajeev Kumar Jha for BeyondHeadlines
पूर्वी चम्पारण मुख्यालय से लगभग दो किलोमीटर दूर एक गाँव है बरियारपुर. गाँव क्या है शहर और गाँव के बीच का ब्रोडलाईन है. चकिया, कांटी, मुजफ्फरपुर से होते हुए पटना और उससे आगे जाने वाले वी.आई.पी लोगो को जैसे गच्चा देती हो यह गाँव… डी.एम. से लेकर सी.एम तक सांसद से लेकर विधायक तक इसी गाँव की सरहद से गुजरते हैं. अब काले शीशे से बरियार पुर न दिखे तो अलग बात है.
खैर! शाम के लगभग सात बजें है. गाँव के घर लालटेन और डिबरियों से लाल हो गए हैं. बिजली के पोलों पर वर्षों से लटकी तारें जैसे खिल खिला रहीं हैं. इसी बीच एक घर में आठवी का छात्र विवेक लालटेन लेकर पढने बैठा है. इधर पास में मोतिहारी शहर बिजली से जगमगा रहा है. आप अब चहकिए मत! दरअसल यहाँ इस सप्ताह मुख्यमंत्री का दौरा है. ये बिजली भी न नेताओं के आने पर हीं जगमगाया करती है.
शहर के हर चौक चौराहे पर आई.पी.एल. की खुमारी चढ़ी है. सो बिजली आज और ज्यादा सुहावन लग रही है. इधर तेज हवा के झोंके से विवेक की लालटेन बार-बार बुझ जा रही है. उधर कई घरों में चूल्हे में पानी पटा दिया गया है. आग लगने का डर जो है. अब आंधी जाए तब तो चुल्हा जले! अब आंधी जाए तो लालटेन जले!
उधर आई.पी.एल.में छक्कों की बरसात पर किलकारियों और सिटिओं से आसमान के कान का चदरा फट रहा है. इधर कल टीचर से मार खाने को तैयार विवेक बिना होमवर्क किये सो गया है. घर के चूल्हे अभी तक नहीं जले हैं.
अब विकास तो हो रहा है पर हमारे गाँव कहाँ है?बिजलियों के खम्भों में तार के जाल तो बिछ रहें हैं, पर बिजली कहाँ है?
बरियारपुर के धर्मेन्द्र कुमार, विनय कुमार, त्रिलोकीनाथ बताते है “वर्षों से हम बिजली की समस्या से जूझ रहे हैं. गांव में पोल और तार तो लगे है पर अब ऐसा लगने लगा है कि वह केवल हम ग्रामीणों को चिढाने के लिए ही थे.
ऐसा नहीं है कि यह समस्या गिने चुने गांवो या शहरों की है. लेकिन इनमें गांवो के हालात ज्यादा बदतर हैं. पूरा राज्य बिजली के लिए त्राहि त्राहि कर रहा है. पटना, मुजफ्फरपुर, कांटी आदि जैसे कुछ बड़े शहरों को छोड़ दें तो सोरपानिया, मुरली, रुपौलिया, ढाका, भण्डार, देवापुर, पताही, सुगौली, फुलवरिया, चोरमा, छगाराहा, सुगाव आदि जैसे सैकड़ों गाँव में बिजली महज एक नैनसुख बनकर रह गई है.
छोटे शहरों में भी चार घंटे से अधिक बिजली नहीं रहती. यदि किसी शहर में आठ से दस घंटे बिजली किसी दिन रह जाए तो वहाँ के लोग समझ जाते है कि उस दिन निश्चित हीं कोई न कोई मंत्री या विधायक अथवा कोई कद्दावर नेता आया है.
दरअसल, राज्य में औसतन 3000 मेगावाट बिजली की जरुरत है. लेकिन अलग अलग केन्द्रीय विद्यूत संयंत्रों से जो बिहार को हिस्सा मिलता है वह लगभग 1772 मेगावाट है. इस कारण पूरे राज्य में बिजली के लिए विभागीय छिना झपटी स्वाभाविक है.
बिहार में कर्पूरी ठाकुर की सरकार के दौरान 1977 में लगाईं गयी दो बिजली इकाईओं के बाद भी यहाँ बिजली उत्पादन में कोई ख़ास इजाफा नहीं हुआ. फिर 17 मार्च 1986 में बिन्देश्वरी दुबे के कार्यकाल में मुजफ्फरपुर विद्यूत संयंत्र में 110 मेगावाट की दूसरी यूनिट स्थापित की गई लेकिन रख-रखाव के अभाव में इसने भी दम तोड़ दिया.
बिहार इकोनॉमिक्स सर्वे रिपोर्ट 2013 के मुताबिक़ राज्य में केंद्र सरकार की 6800 मेगावाट की परियोजनाए है. इसमें से 1772 मेगावाट बिजली यहाँ आवंटित होती हैं. इसमें 900 से 1000 मेगावाट बिजली ही सही से मिल पाती है. अब दस करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले राज्य में इतनी बिलजी ऊंट के मुंह में जीरा डालने की तरह है. अकेले पटना में 450 मेगावाट बिजली की जरुरत है जिसमें 250-300 मेगावाट ही मिलता है. अब उससे जो बचे उसमें पूरा बिहार है. सबसे बड़ी दुर्भाग्य की बात तो यह है कि गांवो के देश भारत में राष्ट्रीय औसत 20.30 फीसदी की एक चौथाई बिजली ही किसानों को मिल पाती है. 2002-03 में बिजली की मांग और आपूर्ति का फीसद अंतर 4.6 फिसद था जो 2010-11 में बढ़कर 48.53 फीसद हो गया. फिर कैसे नहीं होगी हाहाकार… कैसे नहीं जलेंगे लालटेंन… कैसे बने विवेक का होमवर्क?
बिजली का पता नहीं बढ़ गया बिजली दर
एक तो भीषण गर्मी ऊपर से बिजली की बेवफाई और इसी बीच बिजली दर में इजाफे की घोषणा नें लोगों की व्याकुलता को और बढ़ा दिया है. बढ़ी हुई दरें एक अप्रैल से लागू हो चुकीं हैं. व्यवसायिक और अन्य वर्ग के करीब 24 लाख उपभोक्ताओं के लिए औसतन 6.9 फीसदी बढ़ोतरी की गई है. इस से बिहार राज्य पावर होल्डिंग कम्पनी लिमिटेड को करीब 241 करोड़ अतिरिक्त राजस्व की प्राप्ति होगी. घरेलू आपूर्ति वर्ग में प्रति माह 100 यूनिट खपत करने वालों को अब 2.85 रुपये देने होंगे, जबकि 101-200 यूनिट के लिए 3.50 रुपये, 201-300 यूनिट के लिए 4.50 रुपये, 300 से अधिक यूनिट खपत करने वालों को 5.30 की दर से बिजली बिल देने होंगे.
क्या कहती है सरकार
बिहार के मुख्यमंत्री साफ़ शब्दों में यह कह चुके हैं कि 2015 तक यदि गाँव-गाँव तक बिजली नहीं पहुंचाई और बिजली कि समस्या से निजात नहीं दिलाया तो वह वोट माँगने नहीं जायेंगे. हालाकि यह घोषणा किये भी लगभग तीन साल बीत चुके हैं. इस बीच शहरों की स्थिति तो ज़रुर सुधरी है किन्तु गांवो की स्थिति जस की तस बनी हुई है.
गाँव में बिजली की स्थिति दुरुस्त करने के लिए कारवाई शहरों से शुरू करनी होगी. बिजली बिल को सख्ती से वसूलना होगा. सरकारी कर्मचारियों जिनके यहाँ लाखों रुपये बिजली बिल बाकी रहते हैं उन्हें सख्ती से वसूलना होगा. जो उपभोक्ता समय पर लगातार बिल का भुगतान करते हैं उन्हें स्थानिय स्तर पर पुरस्कृत करने से भी अच्छा सन्देश जाएगा. सबसे अहम कदम यह कि राज्य में मध्य प्रदेश की तर्ज पर कम से कम 50 बायोमास संयंत्र लगाए जाएँ. बिहार जैसे कृषि प्रधान राज्य के लिए यह संयंत्र न केवल बिजली की किल्लत को दूर करेगा बल्कि बिहार से बाहर मजदूरों के पलायन में रोकने में अहम भूमिका भी निभाएगा. इस संयंत्र की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें गोबर, घास, गेहूं और धान के नाड़, भूसा आदि जैसे अपशिष्ट पदार्थों से बिजली का उत्पादन किया जाता है. अब गेहूं और धान भी पैदा करो और अच्छी कीमत में भूसा, चोकर और गोबर तक बेचो. मतलब किसानों के लिए यह आम के आम और गुठलियों के दाम सिद्ध होगा.
(लेखक बिहार विश्व विद्यालय में पत्रकारिता में शोधछात्र है और उनसे cinerajeev@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है )