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नक्सलवाद पर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत…

Anurag Bakshi for BeyondHeadlines

छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी नेताओं के काफिले पर नक्सलियों का हमला हर लिहाज से एक भयावह घटना है. यह पहली बार है जब किसी संगठन ने किसी राज्य में राजनीतिक दल विशेष के नेतृत्व का सफाया करने का दुस्साहस किया हो. और उसमें एक हद तक कामयाब भी रहा हो. नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ के दो कद्दावर नेताओं के साथ कई अन्य नेताओं की जान लेकर केवल राज्य कांग्रेस में एक शून्य ही पैदा नहीं किया. बल्कि यह भी साबित कर दिया कि उनके इरादे कहीं अधिक खतरनाक हो चुके हैं.

यह राजनीतिक विरोधियों से निपटने के लिए बंदूक के इस्तेमाल की उनकी विचारधारा को बेहद भयानक तरीके से सतह पर लाने वाली घटना है. नक्सलियों की इस हरकत को लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमले की संज्ञा देना बिल्कुल सही है, लेकिन जो तत्व भारतीय संविधान और कानून पर यकीन ही नहीं करते, उनसे लोकतंत्र का सम्मान करने की अपेक्षा ही व्यर्थ है.

नक्सलियों ने अपने खिलाफ संगठित अभियान छेड़ने वाले महेंद्र कर्मा को ही घेर कर नहीं मारा. बल्कि उन्होंने बातचीत से समस्या का समाधान खोजने की वकालत करने वाले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल को भी उनके बेटे समेत मार डाला.

लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि रेड बेल्ट के नाम से मशहूर नक्सलियों के गढ़ में इस तरह के दुस्साहसिक हमले पहले भी हो चुके हैं. रेड बेल्ट यानी लाल पट्टी वह इलाका है जहां नक्सलियों-माओवादियों ने जनजातीय वन क्षेत्रों में बेहद गरीब लोगों पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया है. सवाल यह है कि यह सब क्यों हुआ? सुरक्षा में कहां खामी रह गई और हमने क्या सबक सीखा? ध्यान रहे कि नक्सलियों ने सलवा जुडूम के संस्थापक महेंद्र कर्मा से बदला लेने का सार्वजनिक ऐलान किया था.

naxalism

क्या अब उन लोगों को यह समझ आएगा कि नक्सलियों को समझा-बुझाकर मुख्यधारा में लाने की उम्मीद करना एक तरह से खुद को धोखे में रखना है? सच तो यह है कि आंकड़ों के ज़रिये यह साबित करने की कोशिश भी एक छलावा ही है कि नक्सली कमजोर पड़ते जा रहे हैं. उनका हर नया हमला यही बताता है कि वे दिन-प्रतिदिन कहीं अधिक ताकतवर और हिंसक होते जा रहे हैं.

हालांकि हमारे नीति-नियंता हर बार यह आभास कराते हैं कि वे चेत गए हैं. लेकिन उनकी चैतन्यता कुछ कठोर प्रतिक्रियाओं तक ही सीमित रहती है. इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि प्रधानमंत्री ने एक बार फिर नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बता दिया. क्योंकि उनकी ओर से बार-बार यह कहे जाने के बावजूद हालात करीब-करीब जस के तस हैं.

सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि राज्य सरकारें केंद्र के साथ मिलकर न तो नक्सलियों पर दबाव बना पा रही हैं और न ही नक्सलवाद से ग्रस्त इलाकों में विकास की गति बढ़ा पा रही हैं. कई इलाके तो ऐसे हैं जहां कानून एवं व्यवस्था पूरी तौर पर नक्सलियों के रहमो-करम पर है. कहीं-कहीं तो उनकी समानांतर सत्ता कायम हो गई है.

सुरक्षा का मसला एक जटिल विषय है और हर बार इस तरह के हमले के बाद इस पर चर्चा होती है. लेकिन जो कुछ किया जाना चाहिए वह नहीं किया जाता. यह एक तथ्य है कि गंभीर आंतरिक खतरे से जूझ रहे छत्तीसगढ़ सरीखे राज्य में दिल्ली जैसे वीआइपी शहर की तुलना में बहुत कम पुलिस बल है. ऐसा क्यों है?

इसलिए क्योंकि जिन लोगों पर आम जनता को सुरक्षा उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी है उन्हें बस अपनी सुरक्षा की चिंता है. वे तभी चेतते हैं जब खुद उनके ऊपर खतरा खड़ा होता है, चाहे छत्तीसगढ़ हो अथवा झारखंड… दोनों ही राज्यों के पुलिस थाने बहुत दयनीय दशा में हैं.

संसाधनों की बात तो छोड़िए. उनमें से अनेक के पास तो खुद की बिल्डिंग भी नहीं है. पुलिस के पास न तो पर्याप्त हथियार हैं और न ही उन्हें सही तरह प्रशिक्षित किया जाता है. जब उनका सामान्य प्रशिक्षण ही सतही होता है तो अशांति और विद्रोह से निपटने के अभियानों के समुचित प्रशिक्षण की कल्पना ही नहीं की जा सकती. इसके अतिरिक्त एक समस्या यह भी है कि पुलिसकर्मियों में स्थानीय संस्कृति से संबंधित मुद्दों की सही समझ और संवेदनशीलता भी नहीं होती. जनजातीय क्षेत्रों में यह कमी एक बड़ी समस्या का रूप ले लेती है.

पुलिस सुधार पर गठित किए गए अनगिनत आयोगों और प्रत्येक बड़े हमले की जांच ने इस कमजोरी की ओर इशारा किया है. लेकिन सुधार की सिफारिशों से संबंधित फाइलें सरकारी अलमारियों में कैद हैं. हर घटना के बाद कुछ दिन सुधार की बातें होती हैं और फिर सब कुछ पहले जैसा हो जाता है.

छत्तीसगढ़ में हुए खौफनाक हमले के बाद आवाजें उठेंगी. एक आवाज़ के तहत और अधिक सुरक्षा की मांग की जाएगी. मसलन सेना तैनात करने, ड्रोन का इस्तेमाल करने और सुरक्षाकर्मियों को ज़्यादा हथियार उपलब्ध कराने की तथा दूसरी आवाज़ के तहत विकास की बातें की जाएंगी. कुल मिलाकर इस पर जोर देने की कोशिश की जाएगी कि नक्सलवाद के खूनी खेल से निपटने के लिए बहुत ईमानदारी से प्रयास करने की ज़रूरत है.

चिंताजनक यह है कि नक्सलियों की सत्ता के आगे पुलिस भी असहाय नज़र आती है. छत्तीसगढ़ की घटना यह भी बताती है कि नक्सलियों के समक्ष राज्यों के साथ-साथ केंद्र की खुफिया एजेंसियां भी नाकाम हैं. नक्सलियों से मिलकर लड़ने की बातें तो बहुत होती हैं. लेकिन जब लड़ने की बारी आती है तो कभी केंद्र और राज्य विशेष में असहमति उभर आती है तो कभी राज्य सरकारें अपना-अपना राग अलापने लगती हैं.

इस सबसे तो ऐसा लगता है कि नक्सलियों की चुनौती को अभी भी हल्के में लिया जा रहा है. और शायद यही कारण है कि वे अपनी ताक़त और हिंसा बढ़ाते चले जा रहे हैं. कम से कम अब तो यह समझा जाना चाहिए कि मौजूदा तौर-तरीकों से नक्सलवाद से नहीं लड़ा जा सकता. नक्सलियों के खिलाफ सख्ती भी बरतनी होगी और साथ ही उनके आधिपत्य वाले इलाकों में कानून का शासन कायम कर विकास करके भी दिखाना होगा.

यदि इन दोनों मोर्चो पर एक साथ सक्रियता नहीं दिखाई जाती तो एक हिंसक विचारधारा से प्रेरित नक्सलवाद से निपट पाना और मुश्किल होगा. यह एक शुभ संकेत है कि राजनीतिक दल अब यह कह रहे हैं कि उन्हें नक्सलियों की चुनौती से निपटने के लिए एक साथ आना चाहिए. लेकिन उन्हें यह याद रखना होगा कि उनका यह नेक विचार एक बार फिर आरोप-प्रत्यारोप तथा कभी खत्म न होने वाले जांच आयोगों में सिमटकर नहीं रह जाना चाहिए. उन्हें बिना किसी देरी के सुरक्षा के तंत्र की खामियों पर ध्यान देना होगा और न्यायिक सुधारों की गति बढ़ानी होगी. जगदलपुर में दिल दहला देने वाले हमले में मारे गए लोगों के प्रति यही सच्ची श्रृद्धांजलि होगी…

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