Ahmad Ansari for BeyondHeadlines
अभी मैं ‘वन्दे मातरम’ का उर्दू में अनुवाद देख ही रहा था कि एक मेरे एक दोस्त मुझ से मिलने आ गए. बात ‘वन्दे मातरम’ की ही होने लगी. मैंने उनसे पूछा कि आखिर प्रॉब्लम क्या है वन्दे मातरम गाने में?
उन्होंने कहा देखो अहमद भाई! हम लोग मुसलमान हैं. एक अल्लाह को मानते हैं. अल्लाह के साथ किसी को शरीक नहीं करते. और इस्लाम में लिखा है कि अल्लाह के अलावा किसी के आगे सर मत झुकाओ.
मैंने कहा- हाँ! ये तो है. लेकिन अगर मैं ‘वन्दे मातरम’ गाता हूं तो इस में सर झुकाने की बात कहां से आ गई? मैं तो अपने देश की वंदना करता हूं. अपने देश की तारीफ करता हूं.
वो बोले कि अहमद भाई बात सही है आपकी, लेकिन हम अपने देश की तारीफ करने में हम अपना ईमान ख़राब नहीं कर सकते.
थोड़ी देर तक हम लोगो में बात चीत हुई. फिर वो बोले कि अहमद भाई मुझे कुछ पैसे की ज़रुरत थी.
मैंने पूछा- कितना? बोले ज्यादा नहीं पांच सौ चाहिए. मैंने पांच सौ की नोट निकाली और उनकी तरफ बढ़ाते हुए ज़मीन पर गिरा दी. उनको लगा कि मेरे हाथ से छूट कर निचे गिर गयी है. उन्होंने जल्दी से झुक कर मेरे पैर के पास गिरी हुई नोट उठा ली.
जैसे ही खड़े हुए मैंने पूछा क्या साहेब पांच सौ की नोट के लिए आपने मेरे आगे सर झुका दिया. बोले, क्या मतलब?
मैंने कहा अभी आप कह रहे थे कि अल्लाह ने अपने इलावा किसी और के आगे सर झुकाने की लिए मना किया है और अभी-अभी आपने पांच सौ रूपये की नोट उठाने के लिए मेरे आगे अपना सर झुकाया है.
वो बोले, अहमद भाई आप कैसी बातें कर रहे हो. अगर कोई चीज़ निचे गिरी है तो उसको उठाने के लिए मुझे तो झुकना ही पड़ेगा. इसका मतलब वो थोड़े ही जो हम मस्जिदों में जाकर सजदे करते हैं.
मैंने कहा- देखने वालों को तो यही लगेगा कि आप मेरे आगे झुक रहे हो. वो बोले कि मेरे दिल में क्या है ये अल्लाह जानता है.
मैंने कहा- सही बात कही आपने. मैं भी वही समझाना चाह रहा था आपको. किसके दिल में क्या होता है ये अल्लाह जानता है. तो फिर ‘वंदे मातरम’ गाने से ईमान कैसे खराब हो सकता है? क्या ‘वन्दे मातरम’ गाने वाले के दिलो की बातें अल्लाह नहीं जानता. ज़बान से ‘वन्दे मातरम’ गाने में क्या बुराई है? अगर केवल ‘वन्दे मातरम’ गाने भर से कोई इस्लाम से बाहर हो जाता है तो क्या सिर्फ पहला क़लमा “ला इलाहा इल लल्ला, मोहम्मदूर्र रसूल अल्लाह ” ज़बान से पढ़ देने भर से कोई मुसलमान हो जायेगा.
मैंने बहुत सारे अपने हिन्दू दोस्तों को देखा है जो ये क़लमा पढ़ते हैं, बल्कि मैंने भी अपने कई दोस्तों को ये क़लमा याद कराया है तो क्या वो सारे मुसलमान हो गए ? …
नहीं ! इस्लाम की बुनियाद तो पांच चीजों पर है और जब तक कोई इन पाँचों चीजों को फॉलो नहीं करता वो मुसलमान नहीं हो सकता. उसी तरह अगर कोई ‘वन्दे मातरम’ गीत एक बार नहीं हज़ार बार भी गायेगा, उसके ईमान में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला.
दोस्तों! वन्दे मातरम एक ऐसा गीत है जिसने हमें आज़ादी दिलाने में अहम् भूमिका निभाई. अंग्रेजो से लड़ाई के वक़्त सभी क्रांतिकारी इस गीत को गाया करते थे. और आज़ादी के बाद जब हमें अपना संविधान मिला तो इसी गीत को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया गया. और अगर प्रॉब्लम थी तो उस समय विरोध क्यों नहीं किया गया?
हमें अपने संविधान का सम्मान करना चाहिए. क्योंकि इसी संविधान ने हमें अपना धर्म को मानने की आज़ादी दी है. ये हमारा संविधान ही है जिसने मुसलमानों को अपनी मस्जिदों पर लाउड स्पीकर लगा कर अज़ान देने की आज़ादी दी है. मस्जिदों के पास अगर हिन्दू बस्तियां भी होती है और उनके घरों में नन्हे बच्चे और कुछ बूढ़े बीमार भी होते हैं, जिनको इन अज़ान की आवाज़ों से बहुत तकलीफ होती है, फिर भी आज़ादी है मुसलमानों को अपने धर्म की.
उसी तरह दुर्गा पूजा और दीपावली में भी तेज़ आवाज़ में बजने वाले डीजे से मुसलमानों को भी तकलीफ होती है. लेकिन हमारा संविधान हर धर्म के बराबर होने का अधिकार देता है.
हमें गर्व होना चाहिए अपने संविधान और अपने देश पर. अपने देश की इस धरती माँ ने ही हमें ज़मीन का टुकड़ा दिया है जिस पर अपनी मस्जिद बना कर अपने रब के आगे सजदा करते हैं. देश की ज़मीन का वो टुकड़ा ही है, जिस पर हम अपना घर बनाते हैं और जिस देश की ज़मीन से पैदा होने वाले गेंहू और चावल या अन्य अनाज खाकर ही हम जिंदा हैं. और मरने के बाद यही धरती हमें अपने ज़मीन का टुकड़े (कब्रिस्तान) में अपने दिलों के अन्दर दफ़न कर लेती है.
देश और धर्म में हमेशा अपने देश को पहले रखो. पहले देश होना चाहिए और फिर धर्म. जब ज़मीन ही नहीं रहेगी तो सजदा कहा करोगे?
पहले मैं अपने भारतीय होने पर गर्व करता हूं फिर मुस्लमान… मेरे लिए देश पहले है धर्म बाद में. मैं अपने देश के लिए एक नहीं हज़ार बार ‘वन्दे मातरम’ गाऊंगा.