Edit/Op-Ed

सुप्रीम कोर्ट की फटकार और हमारी सरकार

Anurag Bakshi for BeyondHeadlines

केंद्रीय जांच ब्यूरो के कामकाज और आचरण पर सुप्रीम कोर्ट की बेहद तल्ख टिप्पणियों पर केवल एक कोने से विपरीत प्रतिक्रिया सुनने को मिली?

सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ यह प्रतिक्रिया कांग्रेस के एक अत्यंत वरिष्ठ नेता की ओर से की गई. जब पूरे देश ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीबीआइ को लगाई गई फटकार की सराहना की और यह उम्मीद की कि इससे सीबीआइ के कामकाज में दखलंदाजी करने वाले केंद्रीय मंत्रियों पर अंकुश लगेगा. तब कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अदालत की आलोचना करते हुए कहा कि क्या अदालत की ऐसी टिप्पणियां हमारे संस्थानों को कमजोर नहीं कर रही हैं?

उनके मुताबिक सुप्रीम कोर्ट को सीबीआइ को पिंजड़े में बंद तोता नहीं कहना चाहिए था. और अदालत का ऐसा कहना एक महत्वपूर्ण संस्थान को छोटा साबित करना है. दिग्विजय सिंह का यह भी कहना है कि अदालतों को संयम का परिचय देना चाहिए. और इसके बाद वह देश को यह प्राथमिक पाठ पढ़ाना भी नहीं भूले कि लोकतंत्र के स्तंभों को एक-दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए.

Supreme Court reprimand and our government

उन्होंने जो कुछ कहा है वह दरअसल कांग्रेस पार्टी की विचारधारा है. न्यायपालिका के संदर्भ में उनका एक बुनियादी तर्क यह भी था कि हमें(निर्वाचित प्रतिनिधियों को) लोगों ने चुना है. और हम लोगों के प्रति जवाबदेह हैं.

न्यायपालिका को 1970 के दशक में खास तौर पर निशाना बनाया गया था. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तीन न्यायाधीशों की वरिष्ठता को नज़रंदाज कर जस्टिस रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया. दरअसल हमारे संसद संविधान से परिचित नहीं हैं. और नए भारत की आकांक्षाओं से पूरी तरह बेखबर हैं.

सरदार स्वर्ण सिंह, एनकेपी साल्वे, वसंत साठे और एआर अंतुले सभी ने उनकी बात का समर्थन करते हुए यहां तक ऐलान कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट समेत किसी को भी संसद को यह कहने का अधिकार नहीं है कि वह क्या करे और क्या न करे.

बहस के दौरान कांग्रेस पार्टी के सदस्यों ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा का खुलकर उपहास उड़ाया. स्वर्ण सिंह ने कहा कि न्यायाधीशों ने इस जुमले का आयात किया है. इंदिरा गांधी ने कहा कि न्यायाधीशों ने इस जुमले की खोज की है. क्योंकि संविधान में ऐसी कोई बात है ही नहीं. ऐसी ही प्रतिक्रिया साल्वे की भी थी.
इसके बाद सांसदों ने न्यायपालिका के खिलाफ टिप्पणियों की बौछार कर दी. स्वर्ण सिंह ने कहा कि “अदालतों ने अपनी सीमाएं लांघी हैं.” साल्वे ने कहा कि “अब समय आ गया है कि संविधान को अदालतों से बचाया जाए.” प्रियरंजन दासमुंशी एक क़दम और आगे चले गए. उन्होंने कहा कि “जब तक सरकार के पास न्यायिक विवेक के विचार और चरित्र को बदलने की क्षमता नहीं होगी तब तक ऐसा ही होता रहेगा.”

इस पर सीएम स्टीफेन ने कहा “अब इस संसद की शक्ति किसी भी अदालत के दायरे से ऊपर हो गई है. अब यह अदालतों के ऊपर है कि क्या उन्हें इसकी अवमानना करनी चाहिए? मुझे नहीं पता कि उनके पास क्या इतना दुस्साहस होगा. लेकिन अगर वे ऐसा करती हैं तो वह न्यायपालिका के लिए एक खराब दिन होगा.”

दूसरे शब्दों में स्टीफेन स्पष्ट रूप से सुप्रीम कोर्ट के जजों को धमकी दे रहे थे कि वे सरकारी संस्थानों के कामकाज पर निगाह डालने की हिम्मत न करें. जब उन्होंने यह कहा कि हमारे पास अपने तौर-तरीके हैं. अपनी मशीनरी है तब वह एक ठग की ही भाषा बोल रहे थे. उन दिनों यही यूथ कांग्रेस की भाषा हुआ करती थी और अक्सर न्यायपालिका तथा मीडिया को धमकाने के लिए भी उसका इस्तेमाल किया जाता था.

क्या आपने किसी अन्य पार्टी के नेताओं को इस तरह सुप्रीम कोर्ट के जजों को धमकाने वाली भाषा बोलते हुए सुना है? मीडिया के खिलाफ भी सत्ता पक्ष का अनुदार ही नहीं, बल्कि दमनकारी भाव नया नहीं है. संविधान अंगीकार होने के एक साल के भीतर ही तमाम बंदिशें प्रेस पर असंवैधानिक रूप से लगाई गईं. उदहारण के तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार 19 को लेकर संविधान निर्माताओं ने मात्र चार प्रतिबंध-राज्य की सुरक्षा, नैतिकता, मानहानि एवं अदालत की अवमानना लगाए. लेकिन एक साल में ही संविधान-सभा के फैसले को दरकिनार करते हुए तत्कालीन सरकार ने पहले संविधान संशोधन के जरिये तीन नए प्रतिबंध-जन-व्यवस्था (पब्लिक ऑर्डर), विदेशी राष्ट्र से मैत्रीपूर्ण संबंध और अपराध करने के लिए उकसाना शामिल कर लिया.

जन-व्यवस्था रूपी प्रतिबंध महज इसलिए लाया गया. क्योंकि तत्कालीन शासन को सुप्रीम कोर्ट का रोमेश थापर बनाम मद्रास में प्रेस के पक्ष में किया गया फैसला पसंद नहीं आया. संविधान-निर्माताओं की भावना के साथ शायद इतना बड़ा खिलवाड़ पहले कभी नहीं हुआ.

संविधान के अनुच्छेद 13(2) में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है कि राज्य ऐसा कोई भी कानून नहीं बनाएगा जिससे किसी भी प्रकार से मौलिक अधिकार बाधित होते हों. इसके बावजूद संसद में प्रथम संशोधन के जरिये प्रेस स्वतंत्रता को ज़बरदस्त तरीके से बाधित किया गया.

इस संशोधन के तत्काल बाद प्रेस (आब्जेक्श्नेबल मैटेरियल) एक्ट 1951 लागू किया गया और 185 अखबारों के खिलाफ सरकार ने कार्रवाई की. इस संविधान संशोधन से कुपित होकर संविधान-सभा के सदस्य आचार्य कृपलानी ने कहा, यह संशोधन एक विचित्र छलावा है और सरकार की ऐसी मंशा के बारे में संविधान सभा सोच भी नहीं सकती थी.
उनका मानना था कि अनुच्छेद 13(2) के स्पष्ट मत के बाद भी अभिव्यक्ति स्वतंत्रता को बाधित करना संविधान की आत्मा के साथ खिलवाड़ करने जैसा है. इन सब बातों से बिना विचलित हुए सत्ताधारियों ने 1971 में एक अन्य संशोधन के जरिये 13(2) के प्रभाव को खत्म कर दिया. बाद में भी कुछ ऐसे प्रयास हुए जिनके माध्यम से प्रेस को पंगु बनाने की कोशिश की गई.

दुष्कर्म के मुद्दे पर जब मीडिया ने कड़कड़ाती रातों में भी पीड़िता को छुपा कर ले जाने के सारे उपाय पर पानी फेर कर जनता को एक-एक सत्य बताया तो उन्हें मंत्रालय ने एडवाइजरी के जरिये कंटेंट कोड एवं लाइसेंसधारी होने की याद दिलाई और संतुलित रिपोर्टिग करने की ताकीद की.

पहले भ्रष्टाचार, फिर दुष्कर्म और कश्मीर में दो भारतीय सैनिकों के साथ पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा की गई बर्बरता को लेकर भारत पाकिस्तान के संबंधों की शल्य-क्रिया करते हुए मीडिया ने अपना काम पूरी निष्ठा व ईमानदारी से किया. यह अलग बात है कि किसी ने पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात कही तो किसी ने सख्त संदेश देने की.

इस बात से शायद ही कोई इन्कार करे कि इन तीनों घटनाओं ने भारतीय जन-मानस को झकझोरा है. शायद ही कोई यह आरोप लगाए कि मीडिया में इतने ज़बरदस्त कवरेज के पीछे भी कोई कॉरपोरेट हित रहा हो या भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को कोई आर्थिक लाभ किसी कॉरपोरेट घराने से मिला हो.

भ्रष्टाचार के खिलाफ जनांदोलन को क्यों कोई कॉरपोरेट घराना ईंधन देगा? इतना सब होने के बावजूद मीडिया को मिली आलोचना! प्रधानमंत्री ने कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना-आंदोलन मीडिया की उपज है. जब इस मुद्दे को लेकर दोबारा जनता में वही उत्साह नहीं दिखा और मीडिया ने यह रिपोर्ट किया तो अन्ना और टीम अन्ना ने आरोप लगाया कि कॉरपोरेट घरानों के दबाव में मीडिया चुप हो गया है.

दुष्कर्म के मुद्दे पर जब मीडिया ने कड़कड़ाती रातों में भी पीड़िता को छुपा कर ले जाने के सारे उपाय पर पानी फेर कर जनता को एक-एक सत्य बताया तो उन्हें मंत्रालय ने एडवाइजरी के जरिये कंटेंट कोड एवं लाइसेंसधारी होने की याद दिलाई और संतुलित रिपोर्टिग करने की ताकीद की.

कांग्रेस ने अदालतों समेत अन्य संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता पर हमले करने की अपनी यह परंपरा आज भी जारी रखी है. जब भी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक जैसे स्वतंत्र संस्थानों ने किसी घोटाले को उजागर किया है तो कांग्रेस ने इस संस्था को ही निशाना बनाने से परहेज नहीं किया.

अब आपको पता चल गया होगा कि दिग्विजय सिंह ने क्यों यह सब कहा और वह संवैधानिक संस्थानों का कितना सम्मान करते हैं. फिर भी हैरत की बात है कि वह हमें यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि हमारे संविधान के बुनियादी मूल्य क्या हैं. दुर्भाग्य से हम उनकी बात सुनने के लिए विवश हैं.

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