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‘वन्दे मातरम’ राष्ट्रवाद की कल्पना के लिए नकारात्मक है

Omair Anas for BeyondHeadlines

राष्ट्र की कल्पना जिसमें उस में रहने वाले सभी वर्गों के इमेजिनेशन को शामिल न किया जाय तो वो कल्पना किसी दूसरे वर्ग के लिए एक इमेजिनरी कैदखाना बन जाता है, वो भारतीय इतिहास जिसमें दलितों को गर्व करने के लिए कुछ न हो वो उनको राष्ट्र की वही कल्पना नहीं दे सकता जो गैर दलितों को मिलेगा. इसलिए आज़ादी से पहले ब्रिटिश, मुग़ल, मौर्या, कुषाण, गुप्ता और अन्य  सम्राज्यवाद, समेत सभी किस्म की कल्पनाएँ जिसमें किसी एक वर्ग का इमेजिनेशन हो रद्द कर दिया जाना चाहिए था जो नहीं हुआ, और एक नई कल्पना गढ़नी थी जो सबके लिए सामान हो.

देखा जाए तो मनुस्मृती में भी दो चार बाते सत्य वचन, सफाई, प्रेम आदि जैसे मूल्यों पर होंगी, लेकिन इसके बावजूद उन श्लोकों को राष्ट्र की परिकल्पना के लिए मिट्टी गारे के लिए प्रयोग नहीं कर सकते, और यदि ऐसा हुआ तो वर्ण व्यवस्था के पीड़ित लोग उसे कभी नहीं मानेंगे, दस अछूत बन्धुवों से ये पूछ कर बताएं कि क्या वो मनुस्मृति के वो श्लोक जो वर्ण व्यवस्था से सम्बंधित न हों किया वो उन श्लोकों का जाप करने को तैयार हैं.

इसी तरह ‘वन्दे मातरम’ भी है जो एक विवादित पुस्तक और विवादित व्यक्ति के दिमाग से निकली है जो मुस्लिम नफ़रत पर आधारित है, इसलिए इस गीत को बढ़ावा देना दरअसल उस नफ़रत को बढ़ावा देना है. ये आप भली भांति जानते हैं कि इतिहास कभी पीछा नहीं छोड़ता. ‘वन्दे मातरम’ एक नफ़रत की कोख से जन्मा गीत है. इस बात से किसी तरह से पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता. (देखिये आनंद मठ से कुछ मुसलमानों के लिए नफ़रत भरी मिसालें)

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कुछ लोग कह रहे हैं की ‘वन्दे मातरम’ को आनंद मठ से अलग करके देखा जाना चाहिए. इतिहास में भटकने की बजाये खुले मन से आगे की ओर बढ़ना चाहिए. और ये कि वंदे मातरम् (आधुनिक) में  किसी तबके के खिलाफ कोई तकलीफदेह बात नहीं है. और ये की समाज तेजी से बदल रहा है.

पिछले पांच हज़ार साल में वर्ण व्यवस्था पर आधारित हमारी सामाजिक सरंचना में क्या बदलाव आया है. भारतीय संविधान द्वारा उसे रद्द किये जाने के बाद भी ये एक सच्चाई बनी हुई है. अमूमन समाज में बदलाव संरचनात्मक नहीं आता है बल्कि सिर्फ ऊपर ऊपर आता है. जब सत्ता और पावर का समीकरण बदलता है तो फिर व्यापक बदलाव आता है वो भी ज़रा धीरे धीरे…

भारत का इतिहास आपसी लडाई, संघर्ष, शोषण से भरा पड़ा है. जिसमें कोई एक वर्ग हमेशा पीड़ित रहा है. आज के सेकूलर और लोकतान्त्रिक भारत ने सभी वर्गों को पहली बार ये मौका दिया है कि वो समान रूप से समान अधिकारों और जिम्मेदारियों के साथ रहें और ये तजुर्बा अभी बस 60 साल का हुआ है. मुसलमान अभी इतना दिमाग खोलने को तैयार नहीं होगा, वो भी उस वक़्त जब वो देख रहा है की गुजरात में उसको कत्ल करने वाला, बाबरी मस्जिद पर चढ़ कर तांडव करने वाला, हर जगह वन्दे मातरम का नारा लगाता है.

जब कोई वन्दे मातरम जोर से गाता है मुस्लिम मन डरने लगता है. जैसे फिर कुछ होने वाला है. जय श्री राम और वन्दे मातरम पर उग्रवादी हिन्दू राष्ट्रवाद ने कब्ज़ा कर लिया है, जिससे इस बात का मौका ख़त्म हो गया है कि वन्दे मातरम को आनंद मठ से अलग कर के देखा जाय. (देखिये गुजरात दंगों में जयश्री राम और वन्दे मातरम का एक डरावना प्रयोग)

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दरअसल बच्चे को उसकी माँ से अलग नहीं किया जा सकता. वन्दे मातरम बंकिम चन्द्र चटर्जी की बौद्धिक संतान है और रहेगा. और समाज में उसको सम्मान उसी रूप से ही मिलेगा. मुसलमान इसी बात से विचलित हैं कि वन्दे मातरम दरअसल उस पुरानी नफ़रत भरी कहानी को दुबारा स्थपित करने की कोशिश है.

आज़ादी के संघर्ष के समय संघ परिवार के विचारकों ने इस गीत को आगे बढाया. उस ज़माने में मुसलमानों ने उसपर इसलिए कुहराम नहीं मचाया क्योंकि अग्रेजी सम्राज्यवाद का चैलेंज बहुत बड़ा था. लेकिन आजादी के बाद इस गीत को उनके ऊपर थोप कर जैसे धोका कर दिया गया हो.

मैं मानता हूँ कि आज का भारत मुग़ल काल के भारत से या फिर उससे पहले के भारत से लाख गुना बेहतर है. लेकिन उसे कथित गौरवशाली इतिहास की तरफ वापस ले जाने का संघ का आन्दोलन आज के बदलते भारत का रास्ता बार-बार रोक रहा है. ये बात कि भारत को कथित गौरवशाली इतिहास की तरफ ले जाने की संघ परिवार की विचारधारा एक तबके में बहुत मज़बूत हो गयी है, जिसके समीकरण वोट की राजनीती से फिट बैठ रहे हैं. इसलिए हिन्दू राष्ट्र का सपना मात्र सपना नहीं बल्कि एक सचमुच में चल रहे संगठित और समर्पित विचारधारा है.

इस विचारधारा में मुसलमानों की देशभक्ति को हमेशा शक के दायरे में रखना एक बहुत बड़ी राजनितिक ज़रूरत है, जिससे बहुसंख्यक वोट संगठित होता है. इसके लिए इतिहास में मुसलमानों द्वारा किये गए कथित अपराधों की सजा आज दी जायगी. हर वो चीज़ जो मुसलमानों से सम्बंधित हो वो या तो विवादित हो जाये, या शक के दायरे में हो या देशद्रोह की बू देने लगे, वन्दे मातरम का विवाद इसी सिलसिले की समय-समय पर आने वाला दृश्य है.

मेरी समझ ये कहती है कि हमें वन्दे मातरम पर इस मतभेद को स्वीकार करके एक दुसरे पर भरोसा करना होगा और मुसलमानों पर उसे थोपने की बजाये इक़बाल का सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा को भी एक संविधानिक दर्जा देकर दोनों गीतों को मान्यता देनी चाहिए. वक़्त गुज़रने दें अगर हम आगे को बढ़ते रहें तो आप की बात सही साबित हो जायगी कि वन्दे मातरम को आनंद मठ से हटा कर देखा जा सकता है और अगर संघ परिवार ने मुल्क को पीछे की ओर कथित गौरवशाली इतिहास की तरफ ले जाने की कोशिश की तो फिर संघर्ष गहरा होगा और ये खतरा गुजरात नरसंहार के बाद लगातार बढ़ता जा रहा है.

इसलिए एक सेकूलर डेमोक्रटिक भारत की ज़रूरत देश के हर वर्ग की है. इसलिए एक नए भारत का निर्माण एक नए इतिहास से ही संभव है. ये मान लेना बहुत ज़रूरी हो गया है कि भारत का आज़ादी पूर्व इतिहास तमाम तरह की समस्याओं से भरा पड़ा है. इतिहास हमारे आज के भारत को हांकने की कोशिश न करे.

कोई वन्दे मातरम आनंद मठ से अलग होकर गाये तो गाये. उसके देश प्रेम में शक करने की कोई वजह नहीं है, लेकिन जिन्हें मतभेद है तो उनके देश प्रेम पर सवाल न खड़े किये जाएँ. देश के लोगों से और देश प्रेम को किसी गीत के तराजू में तौलेंगे तो बड़ी भारी भूल होगी. उठाइए गद्दारों की और शहीदों की लिस्ट, जो वन्दे मातरम नहीं गाते हैं. उनके नाम देश के लिए क़ुरबानी में हर जगह नज़र आएंगे. और आगे भी, और जो वन्दे मातरम गाते थे उनके प्रमुख नाम गद्दारों की लिस्ट में अग्रेजों से समझौता करने वालों में ये नाम नज़र आएंगे, वन्दे मातरम गाना या नहीं गाना किसी तरह से देश प्रेम का सवाल नहीं है.

मतभेद को स्वीकार करके भी आगे की ओर सफ़र जारी रह सकता है.  ये मुल्क एक बाग़ीचा है जहाँ हर तरह के फूल के रहने से ही सुन्दरता है. उसे नर्सरी या एक फूल वाली कियारी मत बनाओ. मुस्लमान मन भी खुद को मुग़ल काल के सपनों से बाहर कर ले. और हिन्दू राष्ट्र का सपना देखने वाले रामराज्य के बजाय “काम काज्य” बनाने पर ध्यान दें. वन्दे मातरम मुल्क को पीछे की तरफ धकेलने वाले हिन्दू राष्ट्र के सपने का एक हिस्सा है जिसका नुक़सान सिर्फ मुसलमानों को नहीं बल्कि पूरी हिन्दुस्तानी कौम को उठाना होगा.

(लेखक जेएनयू में अंतर्राष्ट्रीय अध्यन केंद्र में शोधार्थी हैं, उनसे omairanas@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.)

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