2014 आम चुनाव : किसके सर होगा ताज? राहुल या मोदी ?

Beyond Headlines
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Anurag Bakshi for BeyondHeadlines

अब जब आम चुनाव में बहुत कम समय शेष रह गया है. अपने जयपुर अधिवेशन में जहां कांग्रेस ने राहुल गांधी को अपना उपाध्यक्ष निर्वाचित करके उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करने के संकेत दिए थे, वहीं भाजपा ने गोवा में मोदी को चुनाव अभियान की कमान सौंपकर यह साफ कर दिया कि वही अगले चुनाव में उसका मुख्य चेहरा होंगे.

इस प्रकार अगला चुनाव इस मायने में काफी दिलचस्प होगा कि यह देश की दो बड़ी पार्टियों के बीच की टक्कर न होकर दो व्यक्तित्वों के बीच की टक्कर होगी. भारतीय चुनावी इतिहास में ऐसा पहली बार होगा.

Collusion in the BJP and Congress?अगले साल का  चुनाव सीधे-सीधे राहुल बनाम मोदी के बीच का चुनाव होगा. राजनीति पर अनास्था के मौजूदा माहौल में लोग अब पार्टी के बजाय व्यक्ति में अपनी आस्था की खोज करने लगे हैं. अगला चुनाव इसी व्यक्ति-आस्था की पुष्टि करेगा. पार्टी-आस्था की नहीं. भले ही प्रकारांतर से उसे पार्टी के प्रति ही आस्था का नाम क्यों न दे दिया जाए.

नरेंद्र मोदी चाय का ठेला लगाने से अपने कॅरियर की शुरुआत करके आज एक कुशल प्रबंधक एवं सफल मुख्यमंत्री के पड़ाव तक पहुंचे हैं, और आज स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि यूरोपीय समुदाय से ‘तथाकथित जाति बहिष्कृत’ यह नेता उन्हीं के संसद में सादर आमंत्रित है.

यह राजनीति के क्षेत्र में उनके हाथी की चाल की तरह स्थिर, किंतु ठोस क़दमों का ही परिणाम है कि अब उनके धुर विरोधी लोग ही नहीं, बल्कि अमेरिकी संसद में भी उनके पक्ष में आवाजें उठने लगी हैं.

दूसरी ओर नेहरू और इंदिरा गांधी की विरासत की थैली थामे वह राहुल गांधी हैं, जिन्होंने अपनी सरकार के नौ साल के लगातार लंबे कार्यकाल में किसी मंत्रालय तक की जिम्मेदारी संभालकर न तो अपनी क्षमता का परिचय दिया और न ही कोई प्रशासनिक प्रशिक्षण लेना उचित समझा.

हां, राज्यों के चुनावों में अपनी पार्टी की बागडोर ज़रूर संभाली, लेकिन परिणाम पहले से भी बुरे रहे. उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक उपलब्धि यह है कि वह उत्तर प्रदेश में पिछले चुनाव में कांग्रेस को उल्लेखनीय सफलता दिलाने में सफल रहे. वैसे यह बात अलग है कि पिछले विधानसभा चुनाव में उनके खुद के संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस को भारी पराजय का सामना करना पड़ा.

यह भी हैरत की बात है कि पिछले कुछ समय में भ्रष्टाचार और महिला सुरक्षा को लेकर जो जनांदोलन उभरे उनमें राहुल गांधी की कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई.

यदि हम सिर्फ मोदी और राहुल गांधी के व्यक्तित्वों के आधार पर निष्कर्ष निकालना चाहें तो निर्णय देना कोई मुश्किल काम नहीं है. लेकिन चुनावी दंगल के अखाड़े में उतरे दो पहलवानों की शारीरिक ताक़त से ही बात नहीं बनती है. इन दोनों व्यक्तित्वों के पीछे भारत की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियों का हाथ है. इसलिए अन्य निर्णायक तत्व भी बहुत से होंगे, जो आने वाले समय में धीरे-धीरे अधिक स्पष्ट होते जाएंगे.

इतिहास गवाह है कि स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी 1989 के चुनाव में इस प्रभामंडल के करिश्मे को दोहरा नहीं पाए थे. इंदिरा गांधी को सत्ता सौंपी नहीं गई थी. उन्होंने हासिल की थी और हासिल करने से पूर्व उसका जमकर प्रशिक्षण लिया था.

2014 के चुनाव नतीजे चाहे जो भी हों, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों को यह चिंता ज़रूर हो रही है कि लोकतांत्रिक चुनावों मे व्यक्तित्वों की मुठभेड़ का होना कितना सही है. जब चुनाव निहायत ही व्यक्ति केंद्रित हो जाते हैं, तब उसके एकतंत्रीय व्यवस्था के रूप में काम करने का खतरा बढ़ जाता है. यह एक प्रकार से ‘लोकतांत्रिक तानाशाही’ का रूप ले सकती है.

कुछ राज्यों में क्षेत्रीय दल आज लगभग इसी पैटर्न पर चल रहे हैं और राज भी कर रहे हैं. लोकतांत्रिक प्रणाली अपनी सच्ची आत्मा के अनुरूप काम कर सके. इसके लिए ज़रूरी है कि मतदान पार्टी के सिद्धांतों को किया जाए, न कि व्यक्ति विशेष को.

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