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आडवाणी : प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा अभी मरी नहीं है…

Puja Singh for BeyondHeadlines

मोदी के चुनाव अभियान समिति का चेयरमैन बनने के 24 घंटे के अंदर ही आडवाणी ने भाजपा के तीन प्रमुख पदों से जिस तरह इस्तीफा से यह साफ हो गया है कि उन्हें मोदी की बढ़त मंजूर नहीं. मोदी से उनकी नाराजगी के कुछ उचित कारण हो सकते हैं, लेकिन ये कारण भी ऐसा कोई आधार तैयार नहीं करते कि उन्हें फिर से पीएम पद का उम्मीदवार बना दिया जाए.

आडवाणी ने अपने इस्तीफे में श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी और अटल बिहारी वाजपेयी का उल्लेख करते हुए लिखा है कि इन नेताओं को देश और देशवासियों के हितों की चिंता रहती थी. मुखर्जी और उपाध्याय की अकाल मृत्यु हुई और वाजपेयी खराब सेहत के कारण परिदृश्य से बाहर हो गए. लेकिन आडवाणी को यह कहीं अच्छे से पता होगा कि नाना जी ने किस तरह खुद को राजनीति से अलग कर लिया था. यह कहते हुए कि उम्रदराज नेताओं को सक्रिय राजनीति से किनारा कर लेना चाहिए. advani want to become pm

यह ज़रूरी नहीं कि आडवाणी भी ऐसा करें. लेकिन उन्हें वक्त की नजाकत समझते हुए तनिक बड़प्पन दिखाना चाहिए था. वह अगर मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाने के फैसले का समर्थन करते तो आज भाजपा ही नहीं, दूसरे दलों में भी उनकी जय-जयकार हो रही होती.

आडवाणी को अब यह स्पष्ट करना चाहिए कि वह मोदी का विरोध करके किस तरह पार्टी अथवा देश का हित कर रहे हैं? उनकी चिट्ठी तो खुद उनकी ही पोल खोल रही है, क्योंकि उससे यह बिल्कुल स्पष्ट नहीं हो रहा कि जिन भाजपा नेताओं ने मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाया, उन्होंने किस तरह पार्टी अथवा देश हित की अनदेखी कर दी? क्या पार्टी का हित तभी तक है जब तक हर काम उनकी मर्जी के माफिक हो?

इस समय देश में कांग्रेस के खिलाफ जिस तरह का माहौल है. उस अनुपात में भाजपा के पक्ष में हवा नज़र नहीं आती. वास्तविकता यह भी है कि यह बात भाजपा के विरोधी नहीं उसके सबसे वरिष्ठ नेता कह रहे हैं. यह नहीं भूलना चाहिए कि आडवाणी ने सक्रिय राजनीति से संन्यास नहीं लिया है. प्रधानमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा अभी मरी नहीं है. ऐसे में अपनी ही पार्टी के खिलाफ माहौल तैयार करके वह क्या हासिल करना चाहते हैं? अब यह किसी से छिपा नहीं है कि नितिन गडकरी को पार्टी अध्यक्ष के रूप में वह कभी स्वीकार नहीं कर पाए. वैसे स्वीकार तो वह राजनाथ सिंह को उनके पहले कार्यकाल में भी नहीं कर पाए थे.

लालकृष्ण आडवाणी का कहना है कि कर्नाटक के मुद्दे को ठीक से सुलझाया नहीं गया. उनके मुताबिक उस दौरान ऐसा लगा कि भाजपा भ्रष्टाचार के प्रति नरम है. राजग सरकार में जब अनंत कुमार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो आडवाणी चुप क्यों रहे? क्या भाजपा में येद्दयुरप्पा के अलावा सब हरिश्चंद्र हैं? क्या उन्हें पता नहीं है कि भाजपा शासित राज्यों में कौन-सा नेता अपने राज्य के ठेकेदारों को भेजता है? आडवाणीजी को अपने आसपास का भ्रष्टाचार क्यों नज़र नहीं आता. बाबू लाल मरांडी जैसा ईमानदार नेता पार्टी छोड़कर क्यों चला गया? बाबूलाल मरांडी के साथ वह क्यों नहीं खड़े हुए? ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि लालकृष्ण आडवाणी को येद्दयुरप्पा के भ्रष्टाचार से परेशानी है या उनकी नरेंद्र मोदी से करीबी से कष्ट…

नरेंद्र मोदी अच्छे हैं या बुरे… उनमें प्रधानमंत्री बनने की योग्यता है या नहीं… या फिर पार्टी को उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करना चाहिए या नहीं… इन सवालों पर बहस हो सकती है. पर एक बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि भाजपा का कार्यकर्ता सिर्फ नरेंद्र मोदी की ओर उम्मीद की नज़र से देख रहा है. वह किसी और नेता का नाम भी सुनने को तैयार नहीं है.

भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय परिषद का माहौल देखकर पार्टी के विरोधियों को भी जो नज़र आ रहा था वह जीवन के 85 वसंत देख चुके आडवाणी को नज़र नहीं आया. ऐसे समय जब पूरी पार्टी नरेंद्र मोदी की जयकार कर रही थी. आडवाणी को सुषमा स्वराज में अटल बिहारी वाजपेयी नज़र आ रहे थे. सुषमा स्वराज बेशक बहुत प्रभावी वक्ता हैं. चुनाव के दौरान उम्मीदवारों की ओर से उनके कार्यक्रम की मांग सबसे ज्यादा होती है, पर क्या उनकी तारीफ़ के लिए यह आखिरी मौका था.

भाजपा और संघ ने 2009 के लोकसभा चुनाव में आडवाणी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया था. देश के मतदाता ने आडवाणी के नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया. चुनाव के नतीजे आने के बाद उन्होंने चुनावी राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर दी, पर वह अपने इस फैसले पर टिक नहीं पाए. उसके बाद से इस राम-रथी का राजनीतिक आकलन गड़बड़ा गया है.

जीवन के दूसरे क्षेत्रों की ही तरह राजनीति में भी सच की अहमियत है. पर राजनीति में सच बोलते समय भी इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि अवसर क्या है? आडवाणी के पास अपनी नाराजगी जाहिर करने के लिए पार्टी के सारे मंच उपलब्ध हैं. फिर भी वह ऐसी बातें सार्वजनिक रूप से बोल रहे हैं तो उसके पीछे की राजनीतिक मंशा को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता.

नितिन गडकरी को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में दूसरा कार्यकाल न मिलने पर संघ के एक वरिष्ठ नेता और विचारक की टिप्पणी थी कि भाजपा को नियति ने बचा लिया. सवाल है कि आडवाणी को कौन बताएगा कि उनकी बेवक्त की शहनाई भाजपा के लिए मातम की धुन बनकर सुनाई दे रही है. वह जब बार-बार सुषमा स्वराज का नाम आगे बढ़ाते हैं तो उन्हें एक खेमे में खड़ा कर देते हैं. वह अपने बयानों से पार्टी में सुषमा स्वराज के नेतृत्व की स्वीकार्यता बढ़ा नहीं रहे.

उनके ऐसे बयानों से वही संदेश मिल रहा है कि पार्टी के अंदर खेमे हैं. यह भी कि आडवाणी नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय भूमिका के मुद्दे पर पार्टी के बहुमत से अलग राय रखते हैं. दरअसल आडवाणी की समस्या यह है कि वह रेफरी और खिलाड़ी की भूमिका एक साथ चाहते हैं. वह रेफरी की भूमिका में रह कर ये बातें बोलते तो उसका अच्छा प्रभाव पड़ता. किसी एक पक्ष में खड़े होकर निष्पक्षता के दावे में दम नहीं रह जाता. समय आ गया है कि वह खुद तय करें कि उन्हें पार्टी में क्या भूमिका चाहिए? प्रधानमंत्री बनने की इच्छा अभी मन में है तो खम ठोंककर मैदान में उतरें. सुषमा स्वराज के कंधे से बंदूक चलाना बंद करें. वह ऐसा नहीं करते हैं तो भाजपा को नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय भूमिका के साथ पार्टी में आडवाणी की भूमिका भी तय कर देनी चाहिए…

आडवाणी इससे खुश हो सकते हैं कि उनके त्यागपत्र के बाद भाजपा उनके समक्ष नतमस्तक हो गई. लेकिन यह कहना कठिन है कि इससे उनके मान-सम्मान में वृद्धि होगी. उन्हें यह पता होना चाहिए कि परिवार, संगठन या किसी राजनीतिक दल में जब बुजुर्ग अपनी ही चलाने पर अड़ जाते हैं तो किस तरह उनके अपने ही लोग उन्हें किनारे कर देते हैं. उन्हें पता होगा कि एनटी रामाराव, कांशीराम आदि नेता किस तरह अपने ही लोगों के द्वारा किनारे किए गए. पता नहीं आडवाणी की नाराजगी कैसे दूर होगी और दूर होगी भी या नहीं? लेकिन यह कोई रहस्य नहीं कि अन्य दलों की तरह भाजपा में भी ऐसे तमाम छोटे-बड़े आडवाणी हैं जो पार्टी और देश हित के आगे अपने हित को ज्यादा महत्व देते हैं.

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