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संस्मरण और जीवनी का संगम

अरूण प्रकाश

‘व्योमकेश दरवेश’ की संरचना बहुत दिलचस्प है, आखिरी अध्याय में लेखक के निजी जीवन साहित्य, चरित्र आदि को जोड़ कर देखने की कोशिश की गई है. इस प्रयास में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के ललित निबंध, कुछ कविताएं भी आ गई हैं. पुस्तक के लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी की इस पुस्तक में उपस्थिति इस तरह से पाई जाती है-जैसे परिवार का अंतरंग रहा करता है. विश्वनाथ त्रिपाठी ने पुस्तक की संरचना में छेड-छाड ही नहीं किया बल्कि अपनी दार्शिनक उड़ानों को भी पुस्तक में जगह दे दी है. इतना ही नहीं द्विवेदी जी का व्यक्तित्व ‘‘सर्जना की अथक कार्यशाला था’’ विश्वनाथ जी ने लिखा है कि द्विवेदी जी ‘प्रायः अपने अंतरयामी की बात करते है, जीवनीकार वाह्य स्थितियों में उनके मन पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने का प्रयास कर सकता है.’

 ‘किन्तु उनके अंतरयामी को समझ-परख पाना मेरे बस में नहीं है- अक्षमता का यह बोध इस किताब के लिखते समय बराबर बना रहा’ अंग्रेजी में ऐसे साहित्य के लिए एक पद का इस्तेमाल किया जाता है- ‘पर्सनल लिटरेचर’. हिन्दी में ऐसा नहीं है, इस लिए सुविधाजनक यह होगा कि हम संरचना को निर्धारित स्वरूप देने के लिए जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण तथा निबंध का मिश्रण कह सकते है.

जो हजारी प्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व को उपरी तौर पर जानते हैं, उनके लिए यह आश्चर्यजनक है कि ज्योतिषशास्त्र का यह विद्ववान अंधविश्वासी क्यों नहीं था? मानवतावादी क्यों था, कुपमण्डूप होने के बजाय विश्वदृष्टि से संपन्न क्यों था? इस रहस्य की चाभी शांतिनिकेतन में है. रविन्द्रनाथ ठाकुर के आकर्षण से खिचे-खिचे देश के चुनिन्दे चित्रकार, मूर्तिकार, भाषावैज्ञानिक, आलोचक, साहित्यकार, नृत्यकार तथा अन्य विषयों की प्रतिभाएं शांतिनिकेतन पहुंच गई थीं. वहां इतनी रोशनी थी कि आत्मा का अंधेरा मिट जाए. रविन्द्रनाथ ठाकुर के अधिकारिक जीवनीकार प्रभात कुमार चटर्जी तथा बलराज साहनी के हवाले से काफी सूचना हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में प्राप्त होती है.

ध्यान रहे कि बलराज साहनी तब अध्यापक थे, प्रख्यात अभिनेता तो बाद में बने. शांति निकेतन में हिन्दी भवन की स्थापना द्विवेदी जी का प्रमुख कार्य था. हिन्दी भवन को अनुठा बनाने में द्विवेदी जी जी-जान से लगे तो ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान धरा का धरा रह गया. शांति निकेतन में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भरपूर अध्यापन किया और उनके ज्ञान क्षितिज का अभूतपूर्व विस्तार हुआ. दैनिक नवजीवन के होलीकांक में द्विवेदी जी का व्यंग चित्र था उसके साथ ये कविता भी प्रकाशित थी-

‘‘बलिया की गोरी मिट्टी ने यह अशोक का फूल उगाया।।

अचरज क्या जब घोर दार्शनिक रस की चरम मूर्ति बन आया।।

अपनी कथा अमर कर डाली बाणभट्ट की गाथा गाकर,

ज्योतिष से क्या जान लिया था निज, भविष्यफल गणित लगाकर।।

शब्द तुम्हारे बने भाव-शर, भाव तुम्हारे यश के केतन,

मन में चिंतन शांति लिए तुम स्वयं बने हो शांतिनिकेतन।।’’

जैसा की इस कविता में कहा गया ‘शब्द तुम्हारे बने भाव-शर, भाव तुम्हारे यश के केतन’ पंडित जी का ज्योतिष छूटा और भविष्य की आशंका की जगह मानसिक शांति मिली. यूं कहते हैं कि पंडित जी कुछ ऊँचे लोगों का ज्योतिषफल जांचा करते थे, लेकिन इसमें संदेह यह भी है कि ऐसा मत रखने वाले लोग द्विवेदी जी के विरोधी रहे हैं, वैसे विश्वनाथ त्रिपाठी जी की किताब में फलित-ज्योतिष वाले प्रसंग में कुछ भी नहीं लिखा है. द्विवेदी जी की एक और ऐसी ही पुस्तक है- ‘प्राचीन भारत के मनोविनोद’ इस के बारे में विश्वनाथ त्रिपाठी कोई जिक्र नहीं करते.

हिंदी में दो रचनाकारों की जीवनी-रामविलास शर्मा कृतः निराला की साहित्य साधना तथा अमृतराय कृत कलम का सिपाही –प्रेमचंद. ऐसी ही मानक पुस्तकें रहीं हैं जिनसे  आनायास ही इस पुस्तक की तुलना करने को मन हो उठेगा. जाहिर है दोनों की संरचना में रचनाकार का जीवन तथा उनकी रचनाशीलता का विश्लेषण किया गया है. एक प्रकार से देखे तो इसमें जीवनी और आलोचना का मेल है. त्रिपाठी जी की पुस्तक में भी यह मेल साफ-साफ दिखता है परंतु अतिरिक्त रूप से त्रिपाठी जी का स्वयं का जीवन भी इस पुस्तक से झांकता है और यह ताक-झांक छूटा नहीं है बल्कि सुदीर्घ है. इसलिए इस पुस्तक को त्रिपाठी जी ने स्वयं संस्मरण कहा है. स्वाभाविक ढ़ांचा जीवनी और आलोचना का है और त्रिपाठी जी का आत्मकथात्मक टीका-टिप्पणी सुमेलित नहीं रह पातीं हैं.

हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना रंजक है, वे शास्त्रीय ज्ञान को और गाढ़ा नहीं करते बल्कि उसे पतला करते है ताकि सामान्य पाठक वर्ग उसका आनंद ले सके. विष्णुचन्द्र शर्मा द्वारा संपादित ‘कवि’ नाम की पत्रिका में द्विवेदी जी ने भवानी प्रसाद मिश्र पर एक समीक्षा लिखी जिसमें कहा कि कविता को देखने में पद और पढ़ने में कविता होनी चाहिए. अदभुत वक्ता और शिक्षक थे द्विवेदी जी इस प्रसंग में विश्वनाथ जी ने ऐसा सटीक लिखा है- ‘‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी क्लास में वैसा ही पढ़ाते जैसा सभाओं में भाषण देते थे. वे हमें कबीर, पदमावत, कीर्तिलता और रासो पढ़ाते, क्लास में हम प्रबुद्ध सजग बने रहते, धरती पर ही रहते द्विवेदी जी के क्लास में साहित्य-लोक में पहुँच जाते, ज्ञान रस बन जाता, ज्ञान की साधना और सेवा-दोनो की प्रेरणा मिलती.’’

यह पंडित जी का रचना-छल है कि वे पाठक को जययात्रा, मंगल्य, छंद, लय से मोहित कर देते है. उदास होना भी बेकार है सो उन्हें कबीर दास याद है. द्विवेदी जी के गद्य की प्रशंसा हिन्दी वाले ही नहीं दूसरे भी करते थे. त्रिपाठी जी ने अपने हवाले से कहा है-‘‘उनके जैसा गद्य लेखक इस समय हिन्दी में दूसरा नहीं है.’’

द्विवेदी जी अपने भोजपूरी समाज ओर भाषा की अभिव्यक्तियों को निस्संकोच हिन्दी में ले आते थे. ऐसे ही एक शोभावगत गुण है ‘‘मुहदूबरपन’’ अब संकोचपन से मुहदूबरपन से सटीक नहीं हो सकती. इस तरह की विशिष्टताएं उनके निबंधों में खूब मिलती हैं, उपन्यासों में भी है. द्विवेदी जी पर दूसरी रचनाओं का असर है लेकिन वह इतना कम है कि न के बराबर है. यानी वे दूसरों की खूबियों का आत्मसातीकरण करते है. आधुनिकतावाद का अत्मसातीकरण जिस तरह से ‘अनामदास का पोथा’ में हुआ है ऐसे उदाहरण बिरल है. एक तरह से यह पुस्तक और विशिष्ट है कि वह रामचंद्र शुक्ल से भिन्न है. शुक्ल जी में यदा-कदा ब्राह्मणवाद झांकने लगता है. वहीं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है- ‘‘और दलितों में भी दलित-नारी इतिहास की प्रत्येक शोषक व्यवस्था में सर्वाधिक शोषित-नारी’’ द्विवेदी जी के यहाँ नारी एक ओर सौन्दर्य-समृद्धि का प्रतीक है दूसरी ओर करूणा की मूर्ति. गरीब तो पुरूष भी होते हैं और नारी भी. रोग भी दोनों के हिस्से में हैं. लेकिन काया का विधान ऐसा है कि शरीर सम्पर्क का परिणाम नारी को भोगना पड़ता है. इस भेद का नाजायज फायदा उठाकर पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने भिन्नता को असमानता में परिवर्तित कर दिया है. इस विषय में एक सोवियत समाजशास्त्री ने मार्के की बात कही थी- ‘‘गर्भ निरोधक उपकरणों के कारण यह संभव हुआ है कि नारी इतिहास में पहली बार काम-क्रीड़ा में समतुल्य भाग ले सकती है.’’ हरिशंकर परसाई ने यहां तक कहा कि नारियों को संकल्प लेकर कुछ दिनों के लिए पुरूष-सम्पर्क बन्द कर देना चाहिए. फिर प्रजनन के लिए प्रकृति को कोई अन्य रास्ता बनाना पड़ेगा. ठेठ नारीवादी बात ऐसी नारीवादी बात कि कोई नारीवादी ऐसा अब तक नहीं कर सका है. हिन्दी में यह श्रेष्ठ कृति अपनी आत्मीयता और विचारशीलता के संगम के लिए वर्षों तक याद की जाएगी. हिन्दी में जीवनी का अकाल पड़ा रहता है. अनेक बडे़ रचनाकार प्रतीक्षित हैं. अनगिणत बडे़ राष्ट्रीय व्यक्तित्व हैं जिनकी जीवनी मूल में छोडि़ए, अनुवाद तक में नहीं है. ऐसे में हिन्दी में यह श्रेष्ठ कृति अपनी आत्मीयता और विचारशीलता के संगम और लोकप्रिय स्वरूप के लिए लोकप्रिय सिद्ध होगी और वर्षो याद की जाएगी.

(सुभाष गौतम से बातचीत पर आधारित…)

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