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सेंसर बोर्ड का खोता अस्तित्व…

Praveen Kumar Yadav for BeyondHeadlines

सेन्सर बोर्ड, किसी वक्त अपने आप में एक सशक्त संस्था के रूप में कार्यरत था. किसी भी Movie Advertisement या किसी अनावश्यक चलचित्र में जिस धार के साथ सेंसर बोर्ड की कैंची चलती थी, वर्तमान में वह धार भोथरी हुई सी प्रतीत होती है.

न जाने कितनी ही फिल्में बड़े आराम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता के नाम पर कितना कुछ ऐसा दृश्य डाल दिये जाते हैं जो कि फिल्म की पटकथा से कहीं से भी मेल नहीं खाते. ऐसे आपत्तिजनक गीत जिन्हें आजकल आइटम सांग कहा जाता है. बड़ी ही विशेष भूमिका के साथ इन्हें स्थान दिया जाता है. इसलिए नहीं कि ये कहानी की मांग है, अपितु केवल इसलिए कि पटकथा न सही तो इसी भड़काऊ, अश्लील गीत के सहारे ही फिल्म कम से कम एक आध हफ़्ते तो खींच ही सकते है.

बिना किसी पूर्व शोध के ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर, सामाजिक मुद्दों की संवेदनशीलता को परखे बिना ही केवल विवादास्पद दृश्यों के सहारे की सफलता की चाह अब निर्माता निर्देशकों में जोर पकड़ने लगी है परन्तु इन सभी गतिविधियों का निषेध संभव है, यदि सेंसर बोर्ड अपनी जि़म्मेदारियों का निर्वहन ईमानदारी से करे.

परन्तु सेंसर बोर्ड में भी सभी समितियों में फिल्म क्षेत्र से जुड़े लोगों का ही बोलबाला है. ऐसी स्थिति में ‘‘सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का’’ वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है. जो खुद नंगे हैं वो भला दूसरे के घरों में कैसे पत्थर मारेंगे.

Censor Board lost existenceसर्वाधिक स्थिति गंभीर तब हो जाती है जब वर्तमान समय में आने वाली फिल्मों के साथ-साथ विज्ञापनों एवं धारावाहिकों पर भी सेंसर बोर्ड का नियंत्रण लगभग समाप्त हो चुका है. यह स्थिति भयावह इसलिए है कि टी॰वी॰ ज़्यादा दृश्य क्षेत्र कवर करता है. आज घर-घर में टी॰वी॰ एवं डी॰वी॰डी॰ की पहुंच हो चुकी है. और ऐसी परिस्थिति न जाने कितनी आंखों के द्वारा ऐसे दृश्य देखे जा रहे हैं जो पारिवारिक रूप से असहज करने वाले हैं. विभिन्न प्रकार के विज्ञापनों में उत्तेजक तत्वों की भरमार रहती है. उदाहरण के तौर पर Deo, Condoms और Men’s under  Garments के विज्ञापनों को तो परिवार के साथ देखना ही संभव नहीं है.

ऐसे विज्ञापन बच्चों की कोमल भावनाओं पर विपरीत असर डालते हैं. अतः सरकार को इन विज्ञापनों को दिन के समय में दिखाना पूर्णतः प्रतिबंधित करना चाहिए खासकर Prime Time में जब सारा परिवार एक साथ बैठकर टीवी देखता है. उस समय तो बिल्कुल ही निषेध होना चाहिए. अभी कुछ दिनों पहले मैंने एक पारिवारिक पृष्ठभूमि पर बने धारावाहिक में भी ‘चुम्बन’ दृश्य देखा तो भौंचक्का रह गया कि कम से कम छोटा पर्दा तो इन दृश्यों से परहेज़ रखता था. परन्तु टीआरपी बटोरने की फिराक में इन चैनल वालों ने सारे सामाजिक दायित्वों को सूली पर टांगने की कसम खा रखी है. अतः अब सेंसर बोर्ड का दायित्व है कि वो अपने कर्तव्यों पर खरा उतरे और छोटे पर्दे पर धीरे-धीरे पांव पसार रही इस गन्दगी से निजात दिलाए.

(लेखक उत्तर प्रदेश के एक प्रबंधन संस्थान में अध्यापक हैं.)

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