Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
अगर आप पिछले एक सप्ताह से नक्सलवाद से संबंधित खबरें पढ़ रहे हैं और फिर भी नक्सल समस्या और इससे निपटने के भारत सरकार के प्रयासों का गणित आपकी समझ में नहीं आया है तो BeyondHeadlines आपके लिए लेकर आए है कुछ आंकड़ें जो नक्सल समस्या पर सतही रोशनी डालते हैं.
आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई में पिछले दस साल के दौरान करीब दो हजार जवानों ने जान गंवाई. यही नहीं करीब 5 हजार आदिवासी भी मारे गए. नक्सलवाद से निपटने के लिए सरकार ने इस दौरान हजारों करोड़ रुपये भी खर्च किए.
आरटीआई से हासिल अहम दस्तावेज़ बताते हैं कि साल 2003 से 28 फरवरी, 2013 तक 1863 SFs (स्पेशल फोर्सेज) और 4990 आदिवासी मारे गए हैं. यह जानकारी वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय महासचिव डॉ. एस.क्यू.आर इलियास को गृह मंत्रालय के नक्सल प्रबंधन प्रभाग से आरटीआई के द्वारा प्राप्त हुई है.
वहीं, BeyondHeadlines को गृह मंत्रालय के नक्सल प्रबंधन प्रभाग से प्राप्त जानकारी के मुताबिक केन्द्र सरकार, सुरक्षा संबंधी व्यय योजना के अंतर्गत नक्सल-रोधी अभियानों पर राज्य सरकारों (वर्तमान में वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित 9 राज्यों अर्थात आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओड़िशा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल) द्वारा किए गए व्यय की प्रतिपूर्ति करती है. पिछले दस वर्षों के दौरान सुरक्षा संबंधी व्यय योजना के अंतर्गत वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित 9 राज्यों को 2002-03 से लेकर 2011-12 तक 811.09 करोड़ रूपये जारी किए गए हैं. इसके अलावा नक्सल रोधी अभियानों के लिए मुहय्या कराई गई हवाई उड़ानों पर साल 2010-11 में 16.10 करोड़ और साल 2011-12 में 13.30 करोड़ रूपये खर्च किए गए हैं.
इसके साथ ही ‘Construction/fortification of Police Stations’ स्कीम के तहत नक्सल प्रभावित 9 राज्यों को साल 2010-11 में 10 करोड़ और साल 2011-12 में 210 करोड़ रूपया खर्च किया गया है.
नक्सल प्रभावित 9 राज्यों में Special Infrastructure Scheme के तहत साल 2008-09 में 9999.92 लाख, साल 2009-10 में 3000 लाख, साल 2010-11 में 13000 लाख तथा 2011-12 में 18582.01 लाख रूपये दिए गए हैं. यानी अगर देखा जाए तो इन चार वर्षों में नक्सल प्रभावित 9 राज्यों में Special Infrastructure Scheme के तहत 445.81 करोड़ खर्च किए जा चुके हैं.
इसके साथ ही गृह मंत्रालय का नक्सल प्रबंधन प्रभाग यह भी बताता है कि केन्द्र सरकार शत-प्रतिशत वित्त पोषण से वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित राज्यों के लिए विशेष अवसंरचना योजना आरम्भ की गई है. ग्यारहवीं योजना अवधि के दौरान इस योजना के लिए 500 करोड़ रूपये आवंटित किए गए हैं. वर्ष 2008-09 में 100 करोड़, 2009-10 में 30 करोड़ और 2010-11 में 100 करोड़ रूपये जारी किए जा चुके हैं.
यही नहीं, नक्सलवाद से निपटने के लिए गृह मंत्रालय का नक्सल प्रबंधन प्रभाग लोगों को हिंसा छोड़ने के लिए जारी विज्ञापन में पिछले दो सालों में 10 करोड़ 80 लाख रूपये जारी कर चुकी है. यानी साल 2010-11 में 570 लाख रूपये और साल 2011-12 में 510.19 लाख रूपये जारी किए गए हैं.
इसके अलावा गृह मंत्रालय का नक्सल प्रबंधन प्रभाग आरटीआई के जवाब में यह भी बता रहा है कि नक्सल प्रबंधन प्रभाग वर्ष 2006 में स्थापित किया गया था. वर्ष 2009-10 तथा 2010-11 में विज्ञापन एवं प्रसार उप शीर्ष के अंतर्गत क्रमशः 5 करोड़ एवं 2 करोड़ रूपये आवंटित किए गए थे, जिनमें से विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन को वर्ष 2009-10 को दौरान 4.26 करोड़ रूपये आवंटित किए गए थे, तथा 2010-11 के दौरान विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय को 2 करोड़ रूपये आवंटित किए गए हैं.
स्पष्ट रहे कि एक अप्रैल 2008 को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने आतंकी और सांप्रदायिक हिंसा में मारे जाने वाले लोगों के परिजनों को मुआवजा देने के लिए एक योजना शुरू की थी जिसके तहत आतंकी घटना या सांप्रदायिक हिंसा में मारे जाने वाले एवं गंभीर रूप से घायल होने वाले लोगों के परिजनों को तीन लाख रुपये राहत राशि देने का प्रावधना है. केंद्र सरकार की यह योजना 22 जून 2009 से नक्सली हिंसा में मारे जाने वाले लोगों के परिजनों पर भी लागू है.
ऊपर दिए गए आंकड़े आरटीआई के तहत सरकार से प्राप्त जानकारी पर आधारित हैं. बस्तर, दंतेवाड़ा और अन्य नक्सल प्रभावित इलाकों की हकीक़त और भयावह हो सकती है. बड़ा सवाल यही है कि कब तक देश के अंदर ही नक्सलियों और सरकार के बीच एक युद्ध सा चलता रहेगा? और कब तक देश के ही नागरिक दूसरे नागरिकों की जान लेते रहेंगे?
नक्सलवाद की एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में रहने वाले लोगों का सरोकार सरकार से कम ही है. सरकार से उनका पहला परिचय अपने जंगल और ज़मीन पर कब्जा करने आए एक हिंसक बल के रूप में ही होता है. यदि सरकार सड़क, शिक्षा और अस्पताल के रूप में आदिवासियों से मिले तो शायद यह सच्चाई थोड़ी कम कड़वी हो जाए.
