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पुलिस और हमारी सोच…

Anita Gautam for BeyondHeadlines

वैसे दिमाग तो बेलगाम घोड़े की तरह विरचण करता ही रहता है. पर आज एक बात को लेकर स्थिर हो गया कि देश में हर छोटे से लेकर बड़े इंसान को गलत काम करने के बाद भगवान के बाद सिर्फ पुलिस का ही डर सताता है. भगवान से कोई बचे न बचे पर शायद पुलिस से बचना नामुमकिन होता है, बशर्ते जब तक पुलिस ईमानदारी से आरोपी के पीछे न पड़े.

पर सोचने वाली बात ये है कि पुलिसवाले देश के चोर-उचक्कों, खूनी, बलात्कारी, आतंकवादी और तमाम अपराध करने वालों के कारण कितना समय अपने आपको और अपने परिवार को दे पाते होंगे?

लोग बोलते हैं पुलिस रिश्वत लेती है, मानती हूं. कुछ अपवाद हो सकता है, पर कभी किसी ने सोचा है कि और सरकारी महकमे की तरह इस महकमें में वो सारी सुविधाएं क्यों नहीं होती? जहां तक मुझे पता है, देशभर में पुलिसवालों की तनख्वाह कम होती है. पर आज तक मैंने कभी किसी पुलिस वालों को रोज़गार भत्ता बढ़ाने हेतु जंतर-मंतर या इंडिया गेट अथवा कोई यूनियनबाजी करते नहीं देखा.

पुलिस और हमारी सोच...

हम आम लोग तो आसानी से पुलिस को निकम्मी बोल मुंह में रखे गोलगप्पे फोड़ लेते हैं, पर पुलिस जब अपनी पर आती है तो चुहे के बिल में से चालाक लोमड़ी को भी निकाल लाती है. हमारे भाई-बाप महीना भर घर से दुर रहे तो घर के बजट के साथ-साथ अनुशासन तक बिगड़ जाता है.  फिर यह पुलिसवाले तो साल में न जाने कितने दिन अपने परिवार में बिता पाते होंगे.

जब देश में लोग होली, दिपावली, दशहरा, ईद, मुहर्रम, न्यू ईयर इव जैसे त्यौहारों के नशे में चुर होते हैं तो ये सड़क, चैराहों, गली, मोहल्लों में खड़े सर्दी, गर्मी, बरसात हमारी रक्षा करते हैं. ऐसा नहीं है कि देश के तमाम सरकारी/गैरसरकारी दफ्तरों कोई पूरी तरह ईमानदार हो. फिर हम बेईमानों की लिस्ट में इनका नाम ही सबसे उपर क्यों लिखते हैं?

इसमें कई ईमानदार, देशभक्त ऑफिसर भी हैं जो कभी रिश्वत से अपनी वर्दी को दागदार नहीं करते. खैर हम तो उस देश के वासी हैं जहां हम रावण की अच्छाईयों को आज तक नहीं देख सके, तो ये तो जीती जागती पुलिस है. अपनी आदतन हम तो सिर्फ बुराईयों को ही उजागर करते हैं, सो हम कभी किसी पुलिस वाले की अच्छाई बोल ही नहीं सकते.

अब तक की जिंदगी में मेरा तीन बार पुलिस से पाला पड़ा. दो बार तो पुलिसवाले ईमानदार के साथ नेक दिल निकले. और एक बार ऐसा भी हुआ कि उन्होंने अपनी जिम्मेवारी से सीधा-सीधा पल्ला झाड़ा, तो क्या मैं भी अपने मन में पुलिस के प्रति नकारात्मक विचारधारा बना लूं?

वैसे मैं तो ऐसा नहीं कर सकती. क्योंकि हम जिसके प्रति जैसी विचारधारा बनाते हैं, अक्सर हमारे सामने वही होता है. समाज पुलिस के प्रति अपनी सोच बदल सकते हैं या नहीं वो तो पता नहीं, अलबत्ता देश के चोर-उचक्के और बड़े स्तर के अपराधी साल में कोई एक दिन अपराध छोड़ चैन से बैठ जाएं तो कम से कम एक दिन पुलिस वाले आम इंसान की तरह चैन से बैठ कुछ सोच पाएंगे.

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