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नक्सल साथियों के नाम खुला पत्र

BeyondHeadlines News Desk

समाजवादी जन परिषद और श्रमिक आदिवासी संगठन की तरफ से अनुराग मोदी ने अपने नक्सल साथियों के नाम खुला पत्र लिखा है. हम उनके पूरे पत्र को नीचे प्रकाशित कर रहे हैं…

नक्सल साथियों के नाम खुला पत्र

 सबसे पहले तो, मैं आपसे इस बात को कबूल करूं कि शुरुआत में मेरे मन में आपको अपना साथी संबोधित करने में थोड़ी झिझक थी. लेकिन मेरे मन की यह दुविधा ज्यादा देर नहीं टिकी. मैं यह मानता हूं,  हम साथी हैं. क्योंकि हम दोनों ही बेहतर समाज बनाने की लड़ाई की लड़ाई लड़ रहे है. यह अलग बात है कि हमारी राहें अलग-अलग हैं,  लेकिन हमारी मंजिल तो एक है. और इस एक मंजिल के राही  होने के नाते तो हम साथी हुए.

 मैं यहाँ यह बहस नहीं करना चाहता कि अहिंसात्मक आन्दोलन का जो रास्ता हम लोगों ने अपनाया है वो ही सही है, और आपका अपनाया हुआ हिंसात्मक आन्दोलन का रास्ता गलत है. यह बहस कभी ख़त्म नहीं होगी. क्योंकि मेरी  हिंसात्मक  आन्दोलन को लेकर अपनी आलोचना है,   ठीक उसी तरह जैसी आपकी आलोचना अहिंसात्मक आन्दोलनों को लेकर होगी.

मैं अन्य लोगो की तरह आपको बिगड़ा हुआ क्रांतिकारी भी नहीं मानता. मैं जानता हूँ, आपको अपने  हिंसा के रस्ते में उतना ही अटूट विश्वास है, जितना मुझे अहिंसा के रास्ते में. हम दोनों का ही अपने- अपने रास्ते बदलना कठिन है; शायद असम्भव. लेकिन फिर भी,  मेरे मन में विगत कुछ समय से कई सारी बाते उमड़ रही है.  मैं इस पत्र के माध्यम से अपनी इस बैचैनी, मन की उथल-पुथल, सवाल, चाहे  जो कहे, को आप-तक पहुँचाना  चाहता हूँ.

आपसे विनम्र अनुरोध है,  मेरी इन बातों को कतई भी कोई सीख मानने की भूल न करे. ना तो मेरी कोई ऐसी कोई बौद्धिक क्षमता ही है, और ना ही इतना गहरा अध्ययन कि मैं हिंसात्मक और अहिंसात्मक  आन्दोलन पर आपसे बहस कर सकूँ. पिछले २३ साल के आदिवासियों के बीच काम के अपने अनुभव, आजादी के आन्दोलन के इतिहास के कुछ पन्ने पढ़ने से बनी थोड़ी-बहुत समझ,  विगत कुछ वर्षो में फिलिस्तीन और अरब देशों के साथ-साथ कश्मीर के आंदोलनों में आ रहे बदलाव,  इस सबको आपसे बाँट रहा हूँ.

सबसे पहले,  मैं आदिवासी समुदाय के साथ कम के अपने अनुभव की बात करू. इन 23 सालों में मैंने एक बात आदिवासी समुदाय के बारे में बहुत गहरे से समझी है. अपनी सत्ता स्थापित करना और फिर उसमे लोगो को सत्ता के नियम से जीना सिखाना या मजबूर करना, यह बात उनकी मूल सोच से ही मेल नहीं खाती.

आदिवासी समुदाय एक संतोषी समाज है,  उसमे अपार क्षमता है लेकिन लालसा ज़रा भी नहीं. वो अपनी ज़रूरत के अनुसार ज़मीन जोतता है.  अपनी ज़रूरत भर के कपडे पहनता है और  ज़रूरत भर के संसाधन अपने पास रखता है. यहाँ तक कि उनके राजाओ के किले भी कहीं से कहीं तक किले न लगकर बस एक झोटे-मोटे दुर्ग होते हैं. उनमे पूरे देश पर कब्जा करने कोई लालसा नहीं है, चाहे फिर वो सत्ता बुलेट के  रस्ते से आए, या बैलेट के रास्ते से.

आदिवासी कि सबसे मूल सोच है,  स्वंत्रता. अपनी मर्जी के अनुसार जीने कि आजादी. अपनी परम्पराएं निभाने की आजादी.  सत्ता के नियमो में बंधकर अपना जीवन बेहतर बनाना यह उसे मंजूर नहीं. ऐसा नहीं है कि आदिवासी गांधी या मार्क्स को नहीं समझता है. वो गांधी के आन्दोलन के मर्म को तो नमक सत्याग्रह को जंगल सत्याग्रह में अपनाकर ही समझ गया था. इतना ही नहीं अंगेजों के खिलाफ सस्त्र विद्रोह और फांसी में चढ़ने वालो में भी सबसे आगे रहकर,  उसने अपनी विद्रोही तेवर का दूसरा रूप भी जमकर दिखाया. लेकिन इस सबके मूल में है,  उसकी प्रकृति के अपने सम्बन्ध और अपने परिवेश में आजादी के मायने की असली समझ.

आदिवासी अपनी समझ अनुभूति से बनता है. हमारी और आपके तरह किताबी ज्ञान से नहीं. आदिवासी समुदाय का अंग्रेजों के साथ झगडा सत्ता को लेकर उतना नहीं था जितना उसके अपनी जंगल में आजादी को लेकर था. अंग्रेजों ने जंगल में उसकी सारी स्वतंत्रतायें छीन ली थी और उसे अपने नियम कानून में बांधना शुरू कर दिया था. इसलिए जब आदिवासी समुदाय ने ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका तब उसने बाकी हिन्दुस्तानी राजाओ की तरह गणित नहीं लगाया  कि ब्रितानी बन्दूकों और तोपों के आगे वो अपने तीर-कमान लेकर कैसे लडेगा. वो लड़ा,  और हजारों की संख्या में शहीद भी हुआ. ऐसा नहीं था कि वो यह सच्चाई समझने में नाकाम था, लेकिन उसे अपनी आजादी मौत से भी ज्यादा अजीज थी. इसलिए उसने ब्रितानी हुकूमत की हरदम मुखालफत की. और आज भी, हिंसात्मक-अहिंसात्मक यह सैधान्तिक बहस से उसे मतलब नहीं है, जो उसके पास आया और उसे विश्वास हो गया, वो अपनी आजादी के लिए बिना लाभ-हानि के गणित लगाये उसके साथ हो लिया.

उसे बस अपनी आजादी चाहिए.  उसे सत्ता पर बैठकर दुसरे की जिन्दगी नियंत्रित करने की लालसा नहीं है. यह आजादी की असली अनुभूति ही है,  इसलिए देश कथित रूप से आजाद होने के बाद विगत 65 सालो से अगर कोई एक समुदाय है,  जो अपनी असली आजादी के लिए,  हिंसक हो या अहिंसक तरीके से, लगातार संघर्ष कर रह है, तो वो है आदिवासी…

दुनिया का अनुभव बताता है कि  बुलेट के रास्ते आई सत्ता में बैलेट के रास्ते आई सत्ता से ज्यादा  अंकुश है. और वैसे भी सत्ता किसी भी रास्ते से आए थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ विकास का मॉडल तो वही पश्चिमी ही रहना है. विकास के इस मॉडल के चलते ही संसाधनों पर कब्जे के लिए ही हिंसात्मक और अहिंसात्मक दोनों ही तरह के आंदोलनों का दमन हो रहा है.

आपके लिए सलवा जुडूम है तो हमारे लिए वन सुरक्षा समिति और बाकी सारे कानून. इन दोनों के नाम पर आदिवासी समाज को आपस में भिड़ाया जा रहा है. आपके कब्जे वाले इलाकों में ज़मीन पर संसाधनों की ज़रुरत पड़ते ही नक्सलवाद देश की सबसे बड़ी समस्या बन गया. केंद्र सरकार के गृह विभाग से लेकर ग्रामीण विकास विभाग ने एक गृह युद्ध जैसी स्थिती बना रखी है. यहाँ तक कि दो एक दुसरे को फूटी आँख नहीं सुहाने वाली पार्टियां,  कांग्रेस और भाजपा  में दोस्ती हो गई.  भाजपा द्वारा शुरू किया सलवा जुडूम कार्यक्रम कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा लीड कर रहे थे.

अब दूसरी बात, हम देखें किस तरह से समय के साथ आंदोलनों कि रणनीति में समय-समय पर परिवर्तन आये.  वो अहिंसात्मक से हिंसात्मक और फिर अहिंसात्मक हुए. इस मामले में भगत सिंह और फिलिस्तीन के आन्दोलनकरियो की रणनीति में कई समानताएं हैं. पहले हम फिलिस्तीन कि बाते करे…

फिलिस्तीन में 1930 के आसपास प्रदर्शनों, धरनों, रैलियों का दौर लोगों की बढ़ती बसाहट के साथ ही शरू हो गया था. यह आन्दोलन हर दमन के बावजूद 1933 तक अहिंसात्मक रहा. जब 1933 में  एक रैली के दौरान ब्रितानी घुड़सवार सिपाही की लाठियों से घायल होने के बाद प्रसिद्ध नेता  71 वर्षीय मुसा अल हुसैन काजिम का इंतकाल हो गया.  तब फिलिस्तीन आन्दोलन ने अचानक हिंसा की राह पकड़ ली.

यह कुछ-कुछ भगत सिंह द्वारा लाला लाजपतराय पर बरसी ब्रितानी लाठी के बदले में सांडर्स की हत्या जैसा है. फिलिस्तीन में शुरू हुआ हिंसात्मक आन्दोलन का दौर लगभग 7 दशक तक अविराम जारी रहा. इस दौरान फिलस्तीन गुरिल्ला युद्ध ने नई उचाई छूई. लेकिन इसी फिलिस्तीन आन्दोलन में,  विगत 5-6 सालों से,  वापस एक रणनीतिक परिवर्तन का दौर दिख रहा है. वहां विरोध के नए-नए तरीके ढूढने की कोशिश तेज़ हुई हैं.

इसका परिणाम यह है कि वहां अनेक तरह से  लोगो द्वारा अहिंसात्मक विरोध का दौर चल रह है. न सिर्फ बड़ी रैलियों का दौर चल रहा है बल्कि  इज़राइल की जेलों में 10 हजार फिलिस्तीनी कैदी भूख हड़ताल तक कर रहे है. यह अलग बात है कि इन रैलियों में पथराव आम बात है, लेकिन फिलीस्तीनी आन्दोलन का इतिहास देखते हुए इन रैलियों में पथराव को हिंसा नहीं माना जा सकता. हालाँकि इन अहिंसात्मक आंदोलनों को किसी भी बड़ी फिलिस्तीनी पार्टी का समर्थन नहीं है. लेकिन इन प्रदर्शनों के चलते हालात यह है कि पूरी दुनिया को घातक से घातक हथियार सप्लाई करने वाली इज़राइली हुकूमत की इज़राइल डिफेन्स फोर्स को इन प्रदर्शनकारियो से निपटना ज्यादा भारी पड़ रहा है.

हमारे देश के जम्मू और काश्मीर में भी विरोध की रणनीति में गहरा परिवर्तन आ रहा है. जम्मू और कश्मीर में विरोध कि जड़ काफी पुरानी हैं. यहाँ शुरू हुआ अहिंसात्मक आन्दोलन को 1989 में  हिंसा के दौर में चला गया. 1999 में आत्मघाती हमलो का दौर… लेकिन अब फिर महीनों चलने वाली रैलियों का दौर शुरू हो गया है. इन रैलियों में पत्थरबाजी ज़रुर होती है, लेकिन हमें इसे भी स्थानीय परिपेक्ष्य हिंसा कहने से बचना होगा.

जब मैं आजादी के आन्दोलन में क्रांतिकारियों के इतिहास पर नज़र डालता हूँ,  तो मेरी नज़र भगत सिंह और उनके साथियों पर पड़ती है. किस तरह उन्होंने अपने विचार बदले बिना  समय के अनुसार सांडर्स की हत्या से लेकर असेम्बली में बम फेंकने और जेल में भूख-हड़ताल तक अपनी रणनीति को बदला.

8 अप्रैल 1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेम्बली में फेंके बम ने ब्रितानी हुकूमत के एक भी नुमाइन्दे को किसी भी तरह से हताहत नहीं किया. लेकिन फिर भी उस अहिंसात्मक बम की गूंज आज तक सुनाई दे रही है. इसके बाद ब्रितानी ट्रायल कोर्ट में दिए जवाब और  जेल में चली लम्बी भूख हड़ताल…  पहले 14 जून 1929 से 4 अक्टूबर तक चली 112 की दिन कि भूख-हड़ताल,  जो 63 दिन बाद अपने साथी बटुकेश्वर दत्त की भूख-हड़ताल से हुई मौत के बाद भी 59 दिनों तक जारी रही.  फिर 1930 के फरवरी माह में 15 दिन की भूख हड़ताल…

उनकी अगस्त 1930 में की गई भूख हड़ताल के बारे में तो सन 2007 में मालूम पड़ा. जब सुप्रीम कोर्ट भगत सिंह के केस से सम्बंधित दस्तावेज सार्वजनिक किए. इन भूख-हड़तालो ने क्रांतिकारियों को देश के जनमानस में स्थापित कर दिया  और अचानक भगत सिंह का कद गाँधी के समकक्ष हो गया.

अंत में  हम अरब देशो में आए वर्तमान बदलाव के दौर को देखे… किस तरह दशकों की हिंसा से ग्रस्त इन देशों में लोग बन्दूकों और तोपों के सामने निहत्थे सडकों पर उतर रहे हैं. आज जब हमारे देश में विदेशी पैसों से देश में एनजीओ चलाने वाले लोग जंतर-मंतर से देश बदलने के दावा करते है.  सरकार के सामने ताल ठोकते हैं और अहिंसात्मक आन्दोलनों को कानून की नोक पर कुचला जा रहा है.

सब तरफ भयानक उथल पुथल है. इस ऐतिहासिक समय में आप दुर्गम और दूरस्थ इलाकों में बैठकर,  युद्ध लड़कर अपनी ऊर्जा जाया न करें. आज ज़रुरत है,  फिलिस्तीन से लेकर कश्मीर तक बह रही बदलाव की हवा का सम्मान करने का… हम जानते है कि आप भी बेकार के खून-खराबे में विश्वास नहीं करते हैं.  हिंसा को आपने एक रणनीति के तौर पर अपनाया है. लेकिन जब पूरी दुनिया में विरोध की रणनीति में तेजी से बदलाव आ रहा है.  मेरा अनुरोध है कि आप लोग भी अपनी रणनीति पर पुनः विचार करें. और जिस तरह भगत सिंह से लेकर आज फिलस्तीन के आन्दोलनकारियों की बदलती रणनीति के चलते सरकारी दमन एक तरफ़ा पड़कर सबके सामने नंगा हो गया. और इन क्रांतिकारियों के विचार पूरी दुनिया को मालूम पड़े. उसी तरह आपके रणनीति परिवर्तन से सरकार की सारी युद्धात्मक तैयारी धरी की धरी रह जायेगी और इससे न सिर्फ आदिवासी एक गृह-युद्ध की आग से बच जायेंगे  बल्कि आप जैसे समर्पित  विचारों के समूहों के अपनी रणनीति में बदलाव लाने से व्यापक व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता आसान होगा.

अनुराग मोदी

समाजवादी जन परिषद्/श्रमिक आदिवासी संगठन , बैतूल, म. प्र

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