Anurag Bakshi for BeyondHeadlines
पिछले कुछ वर्षो में भाजपा ने यह जताने की कोशिश की है कि वह दक्षिण के दक्षिण में अपनी जगह बनाना चाहती है, यानी हिंदुओं के पक्ष में, यह हर तरह से भगवा होगी.
भाजपा ने यह मान लिया है कि अलग दिखने के लिए उसे मुसलमानों के साथ भेद करना होगा. उन्हें विश्वास है कि यही वह समय है जब हिंदू कार्ड खेलना चाहिए. इसने नरम हिंदुत्व में विशुद्ध सांप्रदायिकता जोड़ दी है.
कट्टरपंथी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनाव समिति का अध्यक्ष स्वीकार कर भाजपा ने पंथनिरपेक्षता को लेकर हर तरह की अस्पष्टता खत्म कर दी है. पद स्वीकार करने के बाद मोदी के भाषण में देश की उस सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के खिलाफ जो तीखापन था, वह कांग्रेस को परिदृश्य से गायब होते देखना चाहते हैं.
संभव है ऐसा हो या न भी हो, लेकिन भाजपा ने उसको साफ करने का लक्ष्य बनाया है. मोदी को लाने से इस प्रक्रिया को तोड़ा नहीं जा सकेगा, लेकिन यह क़दम उन हिंदुओं को प्रभावित करेगा जो उदार विचारों में विश्वास रखते हैं.
इस वर्ग ने पिछले दो चुनावों में भाजपा को जीतने से रोका है, क्योंकि जब वोट देने का वक्त आया तो उसने उन उदार शक्तियों के पीछे अपनी ताकत लगा दी. आरएसएस मोदी में एक ऐसा व्यक्ति देख रहा है जो हिंदुत्व की विचारधारा के नजदीक है और मुसलमान विरोधी है.
असली मोदी उसी समय बेनकाब हो गए थे जब गुजरात में दंगे हुए थे. इतने सालों बाद भी खेद का एक शब्द भी नहीं बोलना उनकी मुस्लिम विरोधी सोच को दिखाता है.
भाजपा की कमान ऐसे व्यक्ति के हाथों में होना खतरनाक है जिसमें उदार विचार भी नहीं हैं. हिंदू और मुसलमान के बीच मतभेद पैदा करने पर तुले मोदी युवाओं की मानसिकता को प्रदूषित कर सकते हैं.
उदारवाद और आदर्शवाद पहले से पीछे की ओर जा रहा है. संकीर्णतावाद और कट्टरपंथ साझा संस्कृति के बचे-खुचे हिस्से को भी नष्ट करेगा. आजादी की लड़ाई उस सोच पर आधारित थी जिसमें समुदाय या जाति के आधार पर आजाद भारत में कोई भेद न करने की बात थी.
यह ज़रूर है कि इसके लिए जैसा प्रयास होना था, नहीं हो पाया. फिर भी इसने इस देश को एक बनाए रखा जिसमें सांप्रदायिकता के आधार पर बंटे होने के उदाहरण ज्यादा नहीं हैं. इस प्रक्रिया में देश सांप्रदायिक शक्तियों और सेक्युलर तत्वों के बीच अंतर को समझने लगा.
वैसे आडवाणी की उपस्थिति उम्मीद पैदा करती है, जिसे सब कोई देख सकता है. पुराने नेतृत्व ने इसे रोकने की कोशिश की. ऊंचे कद के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने तो पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा तक दे दिया. फिर भी गैर-जिम्मेदार के नेतृत्व में नई पीढ़ी उदार विचारों को जगह देने के मूड में नहीं थी.
कहा जाता है कि अंदर ही अंदर आडवाणी ने उन्हें चेताया था कि भारत के लिए मोदी सही व्यक्ति नहीं हैं. माहौल ज्यादा तीखा हो सकता है जब भाजपा हिंदूवाद का खुल्लम-खुल्ला प्रचार करेगी.
सच है कि यह विचार संविधान की उस मूल भावना के विपरीत है जो देश को पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक प्रजातंत्र बनाना चाहती है. मोदी का महत्व बढ़ने का सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेस को मिलेगा जो अपनी बनावट में सेक्युलर है, फिर भी असली नुकसान तो भारतीय राष्ट्र का ही है.
