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BeyondHeadlines > Latest News > यदि आडवाणी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं तो इसमें बुरा क्या है?
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यदि आडवाणी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं तो इसमें बुरा क्या है?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published June 10, 2013 2 Views
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9 Min Read
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Anurag Bakshi for BeyondHeadlines

कई मायनों में आडवाणी के साथ अन्याय किया गया. पार्टी में उनसे ईष्या रखने वाले ऐसे नेता उनकी जड़ काटने में लगे रहे जो लोकप्रियता में उनके सामने कहीं नहीं ठहरते थे. आडवाणी ने अपना हक़ छोड़कर अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था, किंतु जब सरकार बनी तो उसी समय उनके त्याग का सम्मान करते हुए उन्हें उपप्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं किया गया. बाद में जॉर्ज फर्नाडीस आदि के दबाव में उन्हें उपप्रधानमंत्री पद सौंपा गया. वाजपेयी ने बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए अपना पूरा ध्यान देश के विकास की ओर लगाया तथा देश-विदेश से संबंधित नीतियों का दायित्व परोक्ष रूप से आडवाणी पर छोड़ दिया. आडवाणी ने पाकिस्तान की यात्रा में जिन्ना के संदर्भ में केवल शिष्टाचार के नाते अपने उदार व्यक्त किए थे. उन्होंने जिन्ना के ‘सेक्युलर’ होने की बात जिन्ना के ही एक भाषण से उद्धरण देते हुए सामान्य रूप में कही थी. वह एक बहुत साधारण घटना थी. जिस पर हमारे देश में कुछ लोगों ने बवाल न मचाया होता तो उस ओर किसी का ध्यान भी न जाता. किंतु आडवाणी को नीचा दिखाने पर तुले लोगों ने उसे तूल देकर अर्थ का अनर्थ बना दिया.

मध्य प्रदेश में ग्वालियर में भाजपा कार्यकर्ताओं की सभा में आडवाणी ने भाजपा-शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की चर्चा बड़े सामान्य रूप में की और सभी की प्रशंसा की. मोदी के लिए उन्होंने यह कहा कि गुजरात एक स्वस्थ राज्य था, जिसे उन्होंने चमत्कारपूर्ण ढंग से उत्कृष्ट बना दिया. इसके विपरीत मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ राज्य अत्यंत पिछड़े हुए राज्य थे, जिन्हें शिवराज सिंह चौहान व रमन सिंह ने अपनी योग्यता के बल पर विकसित राज्यों की श्रेणी में खड़ा कर दिया. आडवाणी के इस सामान्य वाक्य का जान बूझकर अर्थ का अनर्थ किया गया तथा इस अभियान में भाजपा के भी कुछ लोग योगदान कर रहे थे. आडवाणी ने शिवराज सिंह चौहान को उनके विनम्र आचरण के कारण अटल बिहारी वाजपेयी जैसा बताया तो इसमें गलत क्या है..? भाजपा में शिवराज सिंह चौहान न केवल अपनी योग्यता व उपलब्धियों के लिए बल्कि अपनी विनम्रता के लिए भी विख्यात हैं. भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय पटल पर उत्तर प्रदेश का इतिहास अपने को दोहराता प्रतीत हो रहा है. उत्तर प्रदेश में जिन कल्याण सिंह ने भाजपा को प्राणवान एवं शक्तिमान बनाया था उन्हें ही उपेक्षित व अपमानित करने की विभिन्न चेष्टाएं हुई थीं. वही स्थिति आज राष्ट्रीय पटल पर लालकृष्ण आडवाणी की हो रही है. जिन आडवाणी ने भाजपा को शून्य से शिखर पर पहुंचाया उन्हें ही किनारे करने की चेष्टा की जा रही है. उनके विरुद्ध अनर्गल बातें कही जा रही हैं. यहां तक कि उन्हें कुर्सी का भूखा बताया जा रहा है.advani8

यदि आडवाणी में प्रधानमंत्री बनने की इच्छा हो तो इसमें बुरा क्या है? छोटे-छोटे नेताओं में यह इच्छा होती है तो आडवाणी राजनेता में यह इच्छा होनी अच्छी बात है. वह जिस ऊंचाई के नेता हैं, उसका प्रमाण हाल की उक्त घटना से मिलता है, जब उनकी विचारधारा के धुर-विरोधी एवं समाजवादी आंदोलन के पुरोधा मुलायम सिंह यादव ने उनकी प्रशंसा की थी. आडवाणी को पद लोलुप बताना सही नहीं है. एक विपक्षी राजनेता ने इस पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की.

उनके अनुसार “लोग यह कहकर सोनिया गांधी के ‘त्याग’ का उल्लेख करते हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री का पद ठुकरा दिया था, जबकि यथार्थ यह है कि सोनिया गांधी एक समय प्रधानमंत्री पद पर अपना दावा पेश करने के लिए समर्थक सांसदों की सूची लेकर राष्ट्रपति के पास गई थीं, किंतु राष्ट्रपति ने उनके दावे को अस्वीकार कर दिया था.” आडवाणी का मामला इसके विपरीत है. उनमें अद्भुत संगठन-क्षमता है तथा उनकी इसी क्षमता ने भाजपा को शून्य से शिखर पर पहुंचाया. उन्होंने ही भाजपा को देशव्यापी बनाया. आज भाजपा में दूसरी पीढ़ी के जितने भी काबिल नेता हैं. सारे आडवाणी के गढ़े हुए हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी आडवाणी की देन हैं. भाजपा के संसदीय बोर्ड में जितने नेता हैं उनमें से वाजपेयी और मुरली मनोहर जोशी के अलावा सभी आडवाणी के बनाए हुए हैं. संसदीय बोर्ड से बाहर भी ऐसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त है. इसके बावजूद आडवाणी पार्टी में अलग-थलग पड़ते हैं. अपने ही बनाए लोगों के बीच आज उनका कद बौना हो गया है.

भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने जिस तरह खुद को पार्टी कार्यकारिणी की गोवा बैठक से दूर रखा उससे उनके हाशिये पर जाने का मार्ग स्वत: प्रशस्त हो गया है. आम जनता इस पर शायद ही यकीन करे कि वह बीमारी के कारण गोवा नहीं जा सके. परिस्थितियां तो यही बयान कर रही हैं कि वह मोदी को चुनाव प्रचार अभियान समिति का प्रमुख बनाए जाने के पक्षधर नहीं थे और इसीलिए उन्होंने गोवा न जाने का फैसला किया. यदि यह मान भी लिया जाए कि खराब सेहत उनकी गोवा यात्रा में बाधक बनी तो वह चिट्ठी-पत्री या फिर वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिये बहुत आसानी से वहां उपस्थित रह सकते थे. गोवा में उनकी गैर हाजिरी ने तो उन्हें एक तरह से परिदृश्य से बाहर करने का काम किया है. नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार अभियान समिति का प्रमुख बनना प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी दावेदारी पर परोक्ष रूप से मुहर लगने जैसा है. वह जिन हालात में चुनाव प्रचार अभियान समिति के प्रमुख बने उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके सामने कई तरह की चुनौतियां हैं. नि:संदेह भाजपा की स्थिति कांग्रेस जैसी नहीं है और हो भी नहीं हो सकती. लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि कोई महत्वपूर्ण फैसला लेने के मौके पर पार्टी कलह से ग्रस्त नज़र आने लगे.

चुनाव प्रचार अभियान समिति के प्रमुख का फैसला करने से पहले कलह की सी जो स्थिति बनी उससे मोदी के समक्ष यह और अच्छे से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि पहली ज़रूरत पार्टी को एकसूत्र में बांधने की है और जाहिर है दूसरी ज़रूरत चुनाव प्रचार के ज़रिये ऐसा माहौल पैदा करने की है कि भाजपा हर लिहाज से कांग्रेस का कहीं अधिक मज़बूत विकल्प नजर आने लगे.

ऐसा इसलिए करना आसान है क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व वाली सत्ता ने पिछले चार वर्षो में बेहद ख़राब प्रदर्शन किया है. इस अभियान की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि पार्टी अपने सारे मतभेद भुलाकर एकजुट हो. यह एकजुटता केंद्रीय नेतृत्व के स्तर पर भी होनी चाहिए और राज्यों के नेतृत्व के स्तर पर भी संगठन क्षमता के धनी नरेंद्र मोदी को यह भान होना चाहिए कि अनेक राज्यों में पार्टी का नेतृत्व बिखरा हुआ है.

इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि भाजपा जहां एक समय के अपने गढ़ उत्तार प्रदेश में बेहद कमजोर है वहीं दक्षिण के ज्यादातर राज्यों और पश्चिम बंगाल में उसकी उपस्थिति नगण्य सी है. मोदी के चुनाव प्रचार अभियान समिति का प्रमुख बनने के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं और इस दल के समर्थकों में जोश का संचार होना स्वाभाविक है, लेकिन बात तब बनेगी जब यह जोश वोटों में तब्दील होगा.

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