Abhishek Upadhyay for BeyondHeadlines
उत्तराखंड की त्रासदी में रामकृष्ण मिशन का काम देखकर दिल खुशी से भर गया. रोज़ सुबह मिशन के लोगों को राहत सामग्री बांटने में जुटा देखता था. गेरूए वस्त्र धारण किए मिशन के हदय से समर्पित कार्यकर्ता…
शायद इकलौती ऐसी संस्था, जिसे मीडिया से कोई मतलब नहीं. तड़के भोर से लेकर देर रात तक राहत सामग्री त्रासदी से प्रभावित गांवों में ले जाते हुए. और क्या सिस्टम तैयार किया था, राहत सामग्री बांटने का. पूरी ज़मीनी तैयारी के साथ.
पहले मिशन के कार्यकर्ता उन गांवों का सर्वे करते थे. एक एक घर जाकर… जिन घरों में प्रभावित लोग हैं, उनके नाम नोट करते. उन्हें एक कार्ड देते. फिर उसी कार्ड को लेकर वे लोग मिशन द्वारा स्थापित राहत सामग्री के स्टोर रुम तक पहुंचते. फिर उन्हीं प्रभावित लोगों को राहत सामग्री से भरे बोरे दिए जाते.
राहत भी दी तो उपयुक्त पात्रों को. इन बोरों में पूरी की पूरी गृहस्थी होती. चावल, दाल, चीनी, नमक से लेकर कंबल, स्टोव तक सभी कुछ… जिन गावों तक संपर्क पूरी तरह कट गया था, वहां मिशन के लोग नजदीकी सुगम प्वाइंट तक गाड़ियां लेकर पहुंचते और यहां भी उन्हीं कार्डों के जरिए प्रभावित परिवारों को राहत पहुंचाने का काम शुरु होता.
बाद के दिनों में तो देखा कि प्रशासन तक राहत सामग्री के बंटवारे की खातिर मिशन के आगे हाथ फैलाए खड़ा था. प्रशासन के हेलीकाप्टरों में सबसे अधिक रामकृष्ण मिशन की दी हुई राहत सामग्री जा रही थी. प्रशासन जो राहत सामग्री बांट रहा था, उसमें बंदरबांट और अव्यवस्था के आरोपों की बाढ़ थी, मगर मिशन के निस्वार्थ काम में कहीं भी किसी तरह की अनियमितता या अव्यवस्था का नामोनिशान नहीं था.
सबसे हैरान करने वाली बात यह लगी कि गुप्तकाशी में राहत सामग्री बांटने वाला लगभग हर संगठन या जत्था सबसे पहले मीडिया को ढूंढता. निवेदन करता कि भाई, आज इस गांव में बांटने जा रहे हैं, ज़रा कवर कर लेना…
मगर जो असली काम कर रहे थे, वे मीडिया को पूछ ही नहीं रहे थे. होटल के सामने ही हैलीपैड था. रोज़ ही मिशन के कार्यकर्ताओं को राहत सामग्री के साथ हैलीपैड पर जाते देखता. हाथ में माइक आइडी देखने के बावजूद एक भी मिशन का कार्यकर्ता हमसे बात करने तक को नहीं रूका. एक ही धुन थी राहत सामग्री सही व्यक्तियों तक पहुंचाने की.
खुद पहलकर उनसे बात की. बेहद विनम्रता से मिले. गुप्तकाशी में किराए की बिल्डिंग लेकर राहत पहुंचाने का काम कर रहे थे. वहां आमंत्रित किया. मैं गया भी… मगर वहां भी कवरेज का कोई आग्रह छोड़ दीजिए, कवरेज की बात तक नहीं. वहां लंबी लाइन लगी थी, पीड़ितों और उनके परिवारी जनों की.
सबके चेहरे पर संतुष्टि, मिशन की राहत व्यवस्था से. सबके हाथों में मिशन के सर्वे किए हुए कार्ड… पर मिशन के कार्यकर्ताओं का ध्यान वहां भी हम पर न होकर, पीड़ित परिवारों के लिए की जा रही व्यवस्था पर था. अदभुत दृश्य था ये. दिमाग में अभी तक झनझना रहा है.
आपदा के दौर में जहां सरकारी मशीनरी से लेकर बड़े बड़े स्वनाम धन्य बाबा और महात्मा अपनी राहत सामग्री के प्रचार के लिए मीडिया को ढूंढ रहे हों, जहां पीड़ित बाद में दिखाई दे रहे हों, मीडिया पहले, वहां रामकृष्ण मिशन के कार्यकर्ताओं के काम करने के इस जज्बे ने आंखे खोल दीं.
सब कुछ बुरा ही नहीं है. सब कुछ भ्रष्ट ही नहीं है. सब कुछ पतित ही नहीं है. रामकृष्ण मिशन जैसे संस्थान जब तक जीवित हैं, मानव मात्र की उम्मीदें जिंदा हैं.
इन उम्मीदों का एक ही धर्म है, एक ही मजहब और एक ही आस्था है और वह है इंसानियत… स्वामी विवेकानंद ने लिखा था, “मैं उस धर्म और ईश्वर में विश्वास नहीं करता, जो विधवा के आंसू पोछने या अनाथों को रोटी देने में असमर्थ है.”
वाकई वक्त आ गया है कि ऐसे धर्म और ऐसे ईश्वर को नकार दिया जाना चाहिए, जहां केवल पूजन और अजान ही सब कुछ हो और दीन व लाचार आंखों से बह रहे आंसुओं के लिए कोई जगह न हो.