Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
आतंकवाद ‘सरकारी खेती’ होता जा रहा है. जिसका भी जी चाहता है, वो आतंकवाद के नाम पर ‘निजी फायदे’ की ज़मीन तलाशना शुरू कर देता है. अब ऐसे में गृह मंत्रालय के पूर्व अवर सचिव आरवीएस मणी का यह बयान कि ‘संसद व 26/11 मुम्बई हमले… दोनों आतंकी हमले की साजिश तत्कालीन सरकारों ने रची थी और इसका मकसद था आतंकवाद के खिलाफ कानून को मज़बूत करना…’ काफी महत्वपूर्ण है.
इस बयान में कितनी सच्चाई है, यह एक जांच का विषय है. लेकिन सरसरी नज़रों से देखा जाए तो बयान सच्चाई के काफी क़रीब नज़र आ रही है. क्योंकि 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद गैरकानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम (यूएपीए) में संशोधन किया गया था. और इस संसोधन के बाद इस क़ानून के तहत काफी गिरफ्तारियां हुई. हालांकि ज़्यादातर अदालतों से बेगुनाह साबित हुए.
26 नवंबर 2008 को मुंबई में हुए आतंकी हमला शुरू से ही संदिग्ध रहा है. खुद प्रधान कमिटी की रिपोर्ट ने इस पर कई सवालिया निशान लगाए हैं. वहीं आरटीआई के द्वारा पूछे सवालों पर भी सरकार हमेशा खामोशी अख्तियार करती रही है. सूचनाएं छिपाने की कोशिश की जाती हैं. अब सवाल उठता है कि इन्हें छिपाने का मक़सद क्या है? आख़िर आतंकवाद के सवाल पर पुलिस व सरकार को काठ क्यों मार जाता है. उसकी बोलती बंद क्यों हो जाती है. देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई के गृह मंत्रालय की आरटीआई के सवालों पर खामोशी इसी बात की पुष्टि कर रही है.
वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय सचिव डॉ. क़ासिम रसूल इलियास ने आरटीआई के तहत महाराष्ट्र सरकार के गृह मंत्रालय से पूछा था कि प्रधान कमिटी पर अब तक कितनी धन-राशि खर्च की जा चुकी है. और कमिटी के सुझाव पर अब तक क्या कार्रवाई की गई है? क्या राज्य सरकार द्वारा कोई और भी जांच के आदेश दिए गए हैं? साथ ही आरटीआई में यह भी पूछा है कि स्व. हेमंत करकरे के जैकेट के गायब होने पर जो जांच के आदेश दिए गए थे उसका क्या हुआ? लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने इस आरटीआई पर कोई जवाब देना मुनासिब नहीं समझा.
यही नहीं, हेमंत करकरे की पत्नी कविता करकरे ने भी अपने पति के शरीर से जैकेट के लापता होने के कारणों को जानना चाहा था, लेकिन उन्हें भी जवाब नहीं मिला था. अन्ततः उन्हें सूचना के अधिकार को आजमाना पड़ा तभी उन्हें आधिकारिक तौर पर बताया गया कि जैकेट गायब है. अब जबकि इस मसले पर काफी शोरगुल हुआ तो अपनी लाज बचाने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने इस बात की जांच के आदेश दिए कि आखिर जैकेट का क्या हुआ ? लेकिन आज तक इसकी कोई जांच रिपोर्ट नहीं आई है. ऐसे कई सवाल हैं जो इस पूरी घटना पर सवालिया निशान खड़ा करते हैं.
वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया को एक दूसरी आरटीआई के जवाब में महाराष्ट्र के गृह विभाग ने बताया है कि महाराष्ट्र सरकार के GAD GR No. Raasua.2008/C.R. 34/29-A के आधार पर अरूणाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल व भारत सरकार के पूर्व गृह सचिव श्री आर.डी.प्रधान की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय जांच कमिटी 30 दिसम्बर 2008 को बनाई गई थी. इस कमिटी ने महाराष्ट्र सरकार को अपनी रिपोर्ट 18 अप्रैल, 2009 को ही सौंप दी थी. यही नहीं, आरटीआई के जवाब में महाराष्ट्र के पुलिस आयुक्त कार्यालय ने यह भी बताया है कि अब तक इस मामले में तीन लोगों यानी (1) फहीम अरशद मुहमम्द युयूफ अंसारी, (2) सबाऊद्दीन अहमद शब्बीर अहमद शेख और (3) सय्यद ज़बीउद्दीन उर्फ अबु जिंदाल की गिरफ्तारी की गई है. इन तीनों पर 120 (ब), 302, 307, 326, 325, 364, 343, 353, 332, 419, 427, 121, 121 (अ), 122, 333, 435, 397, 465, 471, 474, 468, 506(2) के साथ-साथ और भी कई धाराएं लगाई गई हैं. आरटीआई के जवाब में यह भी कहा गया है कि फहीम अरशद मुहमम्द युयूफ अंसारी और सबाऊद्दीन अहमद शब्बीर अहमद शेख को अदालत ने दोषमुक्त क़रार दिया है. और अबु जिंदाल के विरूद्ध 15 अक्तूबर, 2012 को आरोप-पत्र दाखिल किया गया है.
वेल्फेयर पार्टी के डॉ.कासिम रसूल इलियास सरकार से सवाल करते हुए बताते हैं कि प्रधान कमेटी की रिपोर्ट में मुम्बई पुलिस और उसके आला अफसरों को जिम्मेदार ठहराया गया है. मुम्बई पुलिस के आतंकवादी हमले और आपात स्थिति से निपटने की योग्यता पर सीधे-सीधे सवालिया निशान लगाए गए हैं. इतना ही नहीं, रिपोर्ट में कहा गया है कि शहर पुलिस के पास 270 एके-47 भंडार में रखी थीं, जो वहीं पड़ी रही और उनका इस्तेमाल नहीं किया गया.
26/11 की रात आतंकवादी हमला हुआ, तब मुम्बई पुलिस के आला अधिकारियों में कोई सामंजस्य नहीं था और शहर पुलिस का सूचना तंत्र पूरी तरह विफल रहा. कमेटी ने ‘आतंकवाद निरोधी दस्ते’ (एटीएस) की कार्यकुशलता पर भी सवालिया निशान लगाए और कहा है कि एटीएस ने संकट के समय आदर्श मानदंड नहीं अपनाए. तो अब सरकार बताए कि उसने इस दिशा में अब तक क्या कार्रवाई की है?
गौरतलब रहे कि हमले के दौरान एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे, एक आईपीएस अधिकारी और एक मुठभेड़ विशेषज्ञ एक साथ एक ही पुलिस वाहन में शहीद हो गए थे. इसके बाद अलग-अलग स्थानों पर आतंकवादियों के साथ चली मुठभेड़ में मुम्बई पुलिस के कुल 17 जवान शहीद हो गए थे और कुल 170 से अधिक लोगों की जान गई थी.
अहम सवाल यह भी है कि देश के सबसे बड़े आतंकी हमले के मामले में तत्कालीन पुलिस कमिश्नर हसन गफूर ने अपने बयान में कहा था कि 26/11 की रात मुंबई के कुछ बड़े पुलिस अधिकारियों को उन्होंने आतंकियों से लोहा लेने को कहा था, लेकिन कुछ पुलिस अधिकारियों ने मौका-ए-वारदात पर जाने से अनिच्छा दिखाई. गफूर के मुताबिक ये पुलिस अधिकारी के.एल. प्रसाद, देवेन भारती, वेंकटेशम और परमबीर सिंह हैं. तो उन पर कार्रवाई क्यों नहीं की गई?
पर हैरानी ती बात तो यह है कि जिन अधिकारियों पर गफूर ने आरोप लगाए थे, उनमें से तीनों की पदोन्नति हो चुकी है. के.एल. प्रसाद को राज्य की खुफिया सेवा का मुखिया बनाया गया है. जबकि परमवीर सिंह को कोंकण क्षेत्र का आईजी बना दिया गया है, जो पूरा का पूरा समुद्र से ही घिरा है. यह नहीं, रामप्रधान समिति ने अपनी रिपोर्ट में मुंबई पुलिस की असफलता का सारा ठीकरा तत्कालीन पुलिस आयुक्त हसन गफूर के सिर फोड़ा था. उसके बाद ही गफूर को पुलिस आयुक्त पद से हटा कर पुलिस महानिदेशक गृह निर्माण बना दिया गया था.
इतना ही नहीं, अभी भी अनेकों सवाल हैं जिनका जवाब मिलना बाकी है. शहीद एडिशनल कमिश्नर अशोक काम्टे की विधवा विनीता काम्टे ने भी इस रिपोर्ट की प्रमाणिकता पर सवाल खड़ा किया था. विनीता के अनुसार इस उच्च स्तरीय जांच समिति की रिपोर्ट से 26 नवम्बर की रात मुम्बई पुलिस कंट्रोल रूम से की गई दस मिनट की फोन कॉल का रिकार्ड गायब कर दिया गया है. उन्होंने आरटीआई के जरिए अपने पति का मोबाइल विवरण मांगा था. हालांकि इस रिपोर्ट में भी मोबाइल पर उस रात हुई वार्तालाप का विवरण भी नहीं है. विनीता ने यह भी कहा था कि रिपोर्ट में कहा गया है कि इस तरह की आतंकी घटना से कोई पुलिस नहीं निपट सकती. ऐसे में लोगों का विश्वास पुलिस पर क्यों बरकरार रहेगा. जब पुलिस अपने ही महकमे की रक्षा नहीं कर पा रही है तो आम आदमी की रक्षा क्या करेगी?
महाराष्ट्र सरकार की यह रहस्यमय चुप्पी और परदे के पीछे का खेल उनके इरादों पर कई गंभीर सवाल खड़े करती है. यह सवाल बेगुनाहों की जान से जुड़े हैं और ऐसे में इन्हें टालने की कोशिश संविधान और न्याय दोनों के खिलाफ किसी विश्वासघात से कम नहीं है.