Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
बीते रविवार को पश्चिम चंपारण के बेतिया शहर में हुईं हिंसा के निशान अब धुल चुके हैं. जिंदगी की रौनक ने ‘दंगों’ के ख़ौफ़ को दरकिनार कर दिया है. शहर फिर से चल पड़ा हैं. लेकिन कुछ जिंदगियाँ ठहरी हुई हैं. ये जिंदगियाँ शायद अब पहले जैसी न रहे.
लेकिन जिन आँखों ने जलते वाहन, चिल्लाते लोग, भागते-छिपते शहर-वासी, जिंदगी भर की कमाई से बनाए आशियानों पर पथराव और इंसान के खून के प्यासे लोग देखें हैं वे शायद सुकून के लिए भटकती रहें. सवाल यह है कि ऐसा क्या हुआ कि एक शांत सा रहने वाला शहर अचानक जल उठा?
अगर हम जानना चाहें तो इसका जबाव कुछ लोगों की राजनीतिक महत्वकांक्षा में छुपा है. यह हिंसक झड़प नागपंचमी के दिन निकलने वाले महावीरी अखाड़े के दौरान हुए. यह अखाड़ा इस शहर की गलियों से पहली बार नहीं गुज़रा था. फिर ऐसा क्या हुआ कि हर साल उल्लास और मेलभाव से गुज़रने वाला अखाड़ा इस बार हिंसा का मैदान बन गया.
दरअसल इस बार अखाड़े के साथ निकलने वाली धार्मिक झांकियों में भगवान राम और हनुमान जी के बजाए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी विराजमान थे. जो झांकियां अब तक धर्म और सही राह पर चलने का संकेत देती रहीं थी, उनमें इस बार नरेंद्र मोदी की राजनीतिक महत्वकांक्षा झलक रही थी.
यह पहली बार हुआ था जब शहर के लोगों ने भगवान को हटाकर किसी नेता को झाँकी में सजा दिया था. यानी इस बार के अखाड़े में धर्म से जुड़े लोगों से ज्यादा राजनीतिक लोग शामिल थे.
एक सप्ताह बाद अब अखाड़े के दौरान हुई हिंसा और उसमें घायल हुए लोगों के दर्द पर राजनीति हावी हो गई है. बिहार में सत्ताधारी जनता दल (यूनाइटेड) के नेता हिंसा को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की राजनीतिक साज़िश मान रहे हैं.
जेडीयू सांसद अली अनवर ने संसद परिसर में स्पष्ट रूप से कहा- “बिहार के नवादा व बेतिया के दंगों के पीछे भाजपा का हाथ है. क्योंकि भाजपा का नेचर और सिग्नेचर दोनों ही सांप्रदायिक है.” उन्होंने यह भी कहा- “जब तक वो उनके साथ थे, हमारी पार्टी ने भाजपा को काबू में रखा था और राज्य में अमन चैन कायम किया था.” शिवानंद तिवारी ने भी ऐसा ही बयान दिया है.
हालाँकि भाजपा ऐसे तमाम आरोपों को सिरे से ख़ारिज करती है. भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने इस घटना के लिए विपक्ष को जिम्मेवार ठहराए जाने को निराधार बताया और दावा किया कि वर्तमान सरकार के न्याय के साथ विकास और सुशासन के दावे की हवा निकल गयी है. यदि यह माना जाए कि इस दंगे से सुशासन की हवा निकलती है तो जदयू नेताओं के बयान को सही मानने का एक और कारण पैदा हो जाता है.
भाजपा के सांसद संजय जायसवाल ने इसे प्रशासन की विफलता क़रार दिया और उच्च स्तरीय जांच की मांग की. जदयू नेताओं के बयानों की निंदा करते हुए उन्होंने कहा, “गठबंधन टूटने के बाद जदयू को कहीं जनाधार दिखाई नहीं दे रहा है. इनके साथ न बहुसंख्यक है और ना ही अल्पसंख्यक. इसीलिए हताशा में जदयू नेता उलूल-जुलूल बयानबाज़ी कर रहे हैं. बेतिया के लोग अमन पसंद हैं और यहां कभी कोई दंगे का इतिहास नहीं है.”
भाजपा नेताओं द्वारा भीड़ का नेतृत्व करने के आरोपों को नकारते हुए उन्होंने कहा कि चार लोगों को गोली लगी थी जिनमें तीन बहुसंख्यक थे.
लेकिन संजय जायसवाल के बयान को प्रशासनिक आँकड़े ग़लत साबित करते हैं. प्रशासन के मुताबिक़ हिंसक झड़प में सिर्फ एक ही युवक को गोली लगी. उसका नाम सादिक़ हुसैन है.
जेपी आंदोलनकारी व शहर के बुजुर्ग नेता ठाकूर प्रसाद त्यागी बताते हैं कि दरअसल, वर्तमान सांसद अपने बाप-दादा के नक्शे-क़दम पर चल रहे हैं. वे कहते हैं, “एक दंगाई के बेटे से आप उम्मीद भी क्या कर सकते हैं. बाप की पूरी जिन्दगी शहर में साम्प्रदायिक राजनीति करते-करते गुज़र गई. 1984 में सरस्वती पूजा के दिन वाले दंगे को कौन भूल सकता है. और इस दंगे में वर्तमान सांसद के बाप का क्या रोल रहा था, इसे पूरा चम्पारण भली-भांति जानता है. वो तो भला हमने अपनी जान की बाजी लगाकर इस दंगे को रोक पाया था. और फिर बेतिया-वासी यह भी जानते हैं कि जिस जगह हिंसक झड़प है, वहां भाजपा नेता खुद ही रहती हैं. क्या पता सबसे पहले पथराव उनके घर से ही शुरू हुआ हो.”
एनसीपी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री नागमणी भी दंगे को राज्य सरकार की नाकामी ही मानते हैं. वे कहते हैं, “लालू शासन में कभी दंगे नहीं हुए थे. अल्पसंख्यकों को कभी सांप्रदायिक ताक़तों से खतरा महसूस नहीं हुआ था. मगर मौजूदा शासन में अब दंगे हो रहे हैं. इसे संभालने में प्रशासनिक तंत्र पूरी तरह से फेल हो गया है.”
उन्होंने भाजपा पर सवाल दाग़ते हुए कहा कि नीतिश मंत्रीमंडल में साथ थे, तब राज्य में ऐसी कोई घटना नहीं हुई. अचानक ऐसा क्या हो गया कि साम्प्रदायिक तनाव, दंगा व महाबोधी मंदिर में बम विस्फोट जैसी घटनाएं होने लगीं?
नागमणी नीतीश को नसीहत देते हुए कहते हैं कि उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव से इस मामले में सीख लेनी चाहिए. लालू ने अपने शासनकाल के दौरान दंगाइयों पर ‘बुलडोज़र’ चलाने की धमकी दी थी. यही कारण था कि उनके शासनकाल में बिहार में सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए.
लालू के शासनकाल के दौरान 1996 में सिर्फ सीतामढ़ी में एक दंगा हुआ था. लालू प्रसाद यादव बेहद त्वरित कार्रवाई करते हुए स्वयं सीतामढ़ी पहुँच गए थे और दंगों को काबू में किया था.
राष्ट्रीय नेताओं के साथ-साथ अब स्थानीय नेता भी इस घटना से फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं. BeyondHeadlines ने यहां के तमाम स्थानीय नेताओं से बात की. जदयू के स्थानीय नेता डॉ. एन.एन. शाही इस पूरे घटनाक्रम के लिए भाजपा को जिम्मेदार बताते हैं. उनका कहना है कि जैसे ही हमारी सरकार ने इन्हें सत्ता से बेदखल किया है, इन्होंने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है. यही वजह है कि पार्टी दंगों पर उतारू हो गई है.
स्थानीय कांग्रेस नेता शमीम अख़्तर बेतिया में हुए दंगे को काबू में करने के लिए प्रशासन की तारीफ़ करते हुए कहते हैं कि अल्लाह का शुक्र है कि बेतिया जलने से बच गया. इसके लिए यहां की प्रशासन बधाई की पात्र है. वे कहते हैं कि इस पूरी दंगों की पटकथा ईद के दिन ही तैयार कर ली गई थी. वे कहते हैं, “भाजपा के लोगों को यहां के एसपी का अफ़्तार पार्टी देना और फिर ईद के दिन टोपी-शिरवानी पहन कर लोगों को मुबारकबाद देना रास नहीं आया था.”
राजद के स्थानीय नेता मुन्ना त्यागी बताते हैं कि पूरी घटना को देखने के बाद इसे साजिश कहने में कोई बुराई नहीं. प्रशासन भी गायब रही. यह तो यहां की जनता बधाई के पात्र कि कोई बड़ी घटना नहीं हुई. यह घटना यह भी बताता है कि बेतिया में सेक्यूलर लोगों की संख्या काफी अधिक है. नापाक मंसूबों वाले लोग कान खोलकर सुन लें कि उनका मंसूबा कभी कामयाब नहीं होगा.
खैर, इन साम्प्रदायिक दंगों के लिए किसी एक पार्टी को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं होगा. लेकिन यह भी सच है कि जबसे भाजपा-जदयू का गठबंधन टूटा है, तब से लेकर अब तक सात छोटे-बड़े दंगे बिहार में हो चुके हैं.
इन सबके बीच एसपी सुनील कुमार नायक का कहना है कि दोषी किसी भी हाल में बक्शे नहीं जाएंगे. पहले चरण में उपद्रव करने वाले दोनों पक्षों के 15-15 लोग नामजद किए गए. जिन्हें हर हाल में गिरफ्तार किया जाएगा. अगर पकड़े नहीं गए उनके घरों की कुर्की जब्ती की जाएगी.
एसपी के इस बयान पर स्थानीय निवासियों का कहना है कि प्रशासन की ये ‘बैलेंसिंग थ्योरी’ हमारी समझ में नहीं आ रही है. जब प्रशासन ने खुद अपने आंखों से देखा है कि घटना के लिए कौन जिम्मेदार है. तो फिर यह बराबर करने का क्या चक्कर है. जबकि पुलिस ने खुद अपनी एफआईआर में लिखा है कि सरकारी वाहनों को आग के हवाले आखाड़े के लोगों ने किया है.
नेताओं की राजनीतिक बयानबाजी और पुलिस की सख़्त कार्रवाई करने की चेतावनी के बीच कुछ लोग अब क़ानूनी कार्रवाई में पिस रहे हैं.
शहर के कई लोगों का कहना है कि वे घटना-स्थल पर मौजूद भी नहीं थे लेकिन उनका नाम एफआईआर में दर्ज है. जबकि हिंसा में भूमिका निभाते दिख रहे कुछ लोगों को उनके राजनीतिक रसूख ने बचा लिया है.
इस पूरे घटनाक्रम में इलमराम चौक व द्वारदेवी चौक के लोगों की आपसी लड़ाई में मस्जिद से नमाज़ पढ़कर निकल रहे 25 वर्षीय सादिक हुसैन को गोली लगी. यही नहीं उनके 62 वर्षीय पिता का नाम भी हिंसा करने वाले लोगों में शामिल किया गया है. जबकि उनका कहना है कि वे घटना के समय मीना बाजार स्थित अपने चश्मे की दुकान पर थे और घटना की खबर सुनने के बाद किसी तरह अपने घर पहुँचे थे. हो सकता है कि सादिक़ के केस को कमजोर करने के लिए उनके पिता का नाम ज़बरदस्ती एफआईआर में शामिल किया गया हो ताकि उन्हें समझौता करने के लिए मजबूर किया जा सके.
एफआईआर में 28 वर्षीय मुकेश कुमार गुप्ता का नाम भी दर्ज है, जबकि मुकेश का कहना है कि उसका घटना से कोई लेना-देना नहीं. घटना के वक़्त उनके घर पर तकरीबन 50 से अधिक महिलाएं थी, जिनमें मुस्लिम महिलाएं भी शामलि थी. हिंसा के दौरान उनके परिवार ने महिलाओं को खाना खिलाया और रात में पनाह दी. जब सुबह को मुकेश का परिवार जागा तो अपनी गाड़ी को क्षतिग्रस्त पाया.
बेगुनाह लोगों की गिरफ़्तारी पर एक मंडल ने जिलाधिकारी से मुलाकात की तो उनका स्पष्ट रूप से कहना है कि किसी भी बेगुनाह को परेशान नहीं किया जाएगा.
बेतिया में हुई हिंसा पर तमाम राजनीतिक दलों और प्रशासनिक अधिकारियों के बयान आए हैं. लेकिन इस सवाल का जबाव किसी ने देने की कोशिश नहीं की कि नरेंद्र मोदी झाँकी में क्यों विराजमान थे. क्यों धार्मिक अखाड़े में राजनीतिक झांकियां निकाले गए थे?
दरअसल पिछले कुछ महीनों से देश भर में ‘मोदियापे’ का बुख़ार चल रहा है. उस दिन सिर्फ बेतिया ही इस ‘मोदियापे’ का शिकार नहीं हुआ था बल्कि आस-पास के कुछ गाँवों में भी हिंसा हुई थी. उनमें से साठी के चांदवाड़ा गांव प्रमुख है. अभी तक लोगों से बात करते यही लगता है कि हिंसा पूरी तरह से नियोजित और प्रायोजित थी.
इस पूरे घटनाक्रम का एकमात्र सकारात्मक पहलू यह रहा कि बेतिया के लोगों ने शहर को ‘मोदियापे’ में झुलसने से बचा लिया. गांधी की कर्म-भूमी बेतिया तो बच गया, लेकिन क्या देश के बाक़ी शहर बच पाएंगे? चुनावी साल में न जाने कितने शहरों में ऐसी हिंसा की साज़िशें रची जा रही होगी. वक्त की ज़रूरत यह है कि ऐसे ‘मोदियापे’ पर प्रशासनिक काबू किया जाए और धार्मिक जुलूसों से नेताओं की ‘छवि’ को दूर ही रखा जाए.
महावीरी अखाड़े का इतिहास
ठाकूर प्रसाद त्यागी बताते हैं कि दरअसल, नागपंचमी के अवसर पर आखाड़ा निकालने का रिवाज की उत्पत्ती ही दंगों के बाद हुआ है. 1927 में अंग्रेज़ों के फूट डालो राज करो के नीति के तहत शहर में साम्प्रदायिक दंगा हुआ. जो अंग्रेजों के दलाल थे (जो अभी खुद को राष्ट्र भक्त समझने लगे हैं) उन्होंने मुसलमानों के ताजिया के तर्ज पर आखाड़ा निकालने की अनुमति मांगी.
अंग्रेज़ यही चाहते थे. सो उन्होंने इसकी अनुमति दे दी. यह पर्व काफी दिनों तक सिर्फ बेतिया में ही मनाया जाता रहा. और आज स्थिति यह है कि चम्पारण के बाहर महावीरी आखाडा कोई जानता तक नहीं.
सिर्फ बेतिया में ही नागपंचमी के दिन पूरे हथियार के साथ इसे निकाला जाता है. बाकी कुछ जगहों पर इसे अलग-अलग अंदाज़ में अलग-अलग दिन मनाया जाता है. बेतिया से करीब 25 कि.मी. दूर सुगौली में इसे रक्षा-बंधन के दिन मनाया जाता है.