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BeyondHeadlines > Lead > बाबा रे बाबा…
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बाबा रे बाबा…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published September 5, 2013
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14 Min Read
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Anuj Agarwal

आज कल बाबा विकृति का पर्याय हैं. बेसिर-पैर के संस्कारों, रीति रिवाजों, अंधविश्वासों, मान्यताओं और परम्पराओं में जकड़े भारतीय जनमानस चाहे वो हिन्दू हो, मुसलमान, सिख या ईसाई, इनका सामना जब भी धर्म गुरुओं से होता है तो अधिकांश पैसे के लालची, यौन पिपासु, महत्वाकांक्षी, बड़ी-बड़ी ज़मीनों के मालिक, प्रपंची और दलाल की भूमिका में ही अधिक दिखाई पड़ते हैं.

धर्म का आसरा सिर्फ एक आड़ होता है. नित नई-नई कहानियों से गठा ‘मूर्खताओं के एनसाइक्लोपीडिया’ (झूठी धार्मिक अंधविश्वास की कथाओं) में जनता को उलझाने के खेल अब नित प्रतिदिन सामने आते रहते हैं. जनता से लेकर राजनेता, नौकरशाह व उद्योगपति तक इन बाबाओं के ईद गिर्द चक्कर लगाते रहते हैं. योगी और भोगी के बीच की लाइन इतनी धुंधली हो चुकी है कि समझदार इंसान का किसी पर भी विश्वास करना मुश्किल हो गया है. धर्म बाजार में आ चुका है और बाजार का एक ही धर्म होता है पैसा.

धर्म के फैलाव के कारण-हिंदू धर्म का प्राथमिक स्वरूप एक व्यवस्थित जीवन की रचना करना है जिसमें मनुष्य एक सामाजिक प्राणी बनकर रह सके और धार्मिक गुरुओं और धार्मिक पुस्तकों द्वारा तय की गई निश्चित जीवन पद्धति के अनुसार जीवन जी सके. इस प्रकार की जीवन पद्धति में व्यक्ति कड़े अनुशासन, पूजा पद्धतियों, विश्वासों व निश्चित मान्यताओं के आधार पर जीवन व्यतीत करते हैं. ये जीवन दर्शन अर्थ व काम को धर्म के अनुरूप रखते हुए मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग पर बढ़ना था.

Mahan Sangharsh Samiti demands response from Shivraj Singh Chouhanजीवन संघर्ष, निरंतर उतार चढ़ाव, सही शिक्षा का अभाव, बौद्धिकता की कमी व गलत व्याख्याओं के बीच धर्म संप्रदायों, डेरों मठों व आश्रमों के बीच बँट गया और सत्ता, शक्ति, वैभव व प्रतिष्ठा का साधन बन गया. पराभौतिक व परमात्मा की बात करने वाले बाबा भौतिक जीवन व ऐंद्रिक सुखों में ऐसे लीन हुए कि धर्म का वास्तविक मर्म ही खो गया.

मूलत: साधु समाज (ऋषि, मुनि) की कल्पना समाज को बांधने व विचलन से बचाने के लिए की गयी थी. ऐसे समय में साधु समाज से दूर जंगली गुफाओं व आश्रमों में रहते थे. उनके आश्रमों में विद्यालय चलते थे व निरंतर संवाद के माध्यम से परिस्थितियों के अनुरूप धार्मिक नियमों की पुर्नव्याख्या होती थी. समय के साथ आश्रम, जंगल से छिटक कर शहर में आ गये. छात्र चेलों में बदलने लगे. आश्रम रूपी विद्यालय एक किले में तब्दील हो गये. इनमें गुरु की सामंतशाही अधिक चलती है संवाद नहीं.

विडंबना ये है कि भारतीय समाज में साधु व बाबाओं की छवि इतनी गहरी उतर चुकी है कि वो भगवा वस्त्रों व बढ़े वाले व्यक्ति को चाहे उसका आन्तरिक स्वरूप कुछ भी हो, अत्यन्त सम्मान व दान देते हैं. कुछ चालाक लोगों ने भारतीय जनमानस की इसी कमजोरी का फायदा उठाया है.

 

वास्तव में साधु या बाबा के कई रूप हो सकते हैं।

  1. गुफाओं, कन्दराओं में साधना में लीन समाज से कटा साधु जैसे नागा सन्यासी
  2. आश्रमों, मठों, पीठों, धामों आदि में रहकर समाज के सहयोग से पलने वाला साधू, ये एक व्यवस्थित पद्धति है जहाँ शंकराचार्य से लेकर साधारण साधु तक एक पदानुक्रम है और पूरा हिन्दू समाज इसी वर्ग के साधु समाज से सीधा जुड़ा है.
  3. शंकराचार्य पद्धति से अलग अपने-अपने मठों की स्थापना करने वाले साधु यानी स्वयं भू शंकराचार्य. कुछ योग्य तो कुछ नकली भी.
  4. ऐसे हजारों बाबा जो कथावाचक भी हैं और अपने विशेष दर्शन के प्रतिपादक भी और जो कथाओं, धार्मिक आयोजनों व टीवी, कैसेट, सीडी व किताबों के सहारे अपनी मार्केटिंग करते है और अच्छे खासे लोकप्रिय हैं. इनके अपने आश्रम या डेरे हैं और अरबों खरबों की सम्पत्ति भी है.
  5. ऐसे लोग जो कर्मकाण्डों, तंत्र, मंत्र, जादू टोने, काला जादू, भविष्य फल, जन्म कुण्डली राशि, पत्थरों, ताबीज गंडे, रूद्राक्ष, धागे आदि के सहारे आम आदमी की विवाह, सन्तान, सैक्स, भूत-प्रेत, अमाँगलिक माँगलिक, ग्रह दोषों, व्यापार, नौकरी, परीक्षा, राजनीति, पद, प्रतिष्ठा आदि के मसले हल करने का दावा करते हैं. ये हर शहर, कस्बे व गांव में फैले हैं और धूर्त लोग हैं जो जनता को मूर्ख बना अपनी रोटी खा रहे हैं.
  6. एक ऐसा वर्ग जो वेदों को मानता है पुराणों को नहीं, अग्नि को मानता है, मूर्तियों को नहीं या फिर प्रकृति को पूजता है कर्म काण्डों को नहीं. यानी धार्मिक सुधारों के प्रति अनुरागी जैसे आर्यसमाज, ब्रह्म कुमारी, गायत्री परिवार आदि। इनका प्रभाव काफी व्यापक है.योग, साधना, आत्मसाक्षात्कार, ब्रह्म की प्राप्ति कराने वाले आध्यात्मिक गुरु भी इसी वर्ग का हिस्सा हो सकते हैं.

धार्मिक लोगों के इस विशाल स्वरूप व वर्गीकरण से रोंगटे खड़े हो जाते हैं. एक साधारण व्यक्ति तो क्या पढ़े लिखे व्यक्ति के लिए भी इन सबकी भूलभुलैया से निकलना नामुमकिन सा हो जाता है. भारतीय हिन्दू धर्म का प्रारम्भिक ढांचा एक विशिष्ट जीवन पद्धति को जीने का दर्शन था और एक सांस्कृतिक स्वरूप लिये था. शंकराचार्य द्वारा आठवीं शताब्दी में चार धामों की स्थापना व इसके लिए चार शंकराचार्यो की नियुक्ति के बाद एक पदानुक्रम निर्धारित किया गया था जिसमें धार्मिक आस्था युक्त ब्रह्मचारी ही प्रवेश कर सकता था और शास्त्रों का विषद अध्ययन करते हुए व शास्त्राचार्य के माध्यम से परीक्षा पास करते हुए शंकराचार्य बन सकता था. पूरे भारत का साधु समाज इसी विशाल नेटवर्क का हिस्सा है.

इस वर्ग को मिलते सामाजिक सम्मान व दान को देखते हुए कुछ अन्य लोगों में ज्ञान प्राप्ति व सम्मान की इच्छा जागृत हुई और उन्होंने अपने-अपने समानांतर पीठ स्थापित कर लिए. समय के साथ ही मठों की संपत्ति व प्रतिष्ठा बढऩे और अयोग्य लोगों के पदानुक्रम में उच्च पदों पर आने से साधु समाज अहम और वर्चस्व की लड़ाई में उलझ गया और समाज को धर्म के अनुरूप चलाने के अपने मूल कर्तव्य से कहीं दूर चला गया. किन्तु आम समाज में इस वर्ग की प्रतिष्ठा आज भी सर्वोपरि है और हिन्दू समाज का प्रमुख नीति नियंता यही वर्ग है.

शिक्षा व आधुनिकता के विकास के साथ ही जब कुछ लोगों का विश्वास परम्परागत धार्मिक केन्द्रों व उनके प्रमुखों से उठने लगा तो देश में कथावाचकों का एक समूह खड़ा होता गया. जिन्होंने धर्म की परिभाषा को नये सिरे और रोचक ढंग से जनता तक पहुँचाना शुरू कर दिया. धर्म के पुनरुत्थान व ईश्वर तक भक्तों को पहुँचाने के मध्यम मार्ग के विकास के नाम पर इस वर्ग ने डेरों, आश्रमों व मठों की नयी शृंखला खड़ी कर दी है. यह धर्म की आधुनिक दुकानें बन गये हैं जहाँ बड़े-बड़े किले जैसे भवन, सैकड़ों एकड़ जमीन, समानांतर पंचायतें, मंजन, तेल, बिस्कुट, दवाइयाँ आदि का उत्पादन, किताबों, सी.डी., कैसेट, अपने फोटो आदि की बिक्री, बड़ी-बड़ी कथाएं, धार्मिक आयोजन एवं टीवी पर उनका प्रसारण आदि किये जाते हैं.

वर्तमान में यह एक बड़े उद्योग में बदल चुका है, जिसमें समाज के प्रतिष्ठित व शिक्षित लोग बड़ी मात्रा में जुड़े हैं. इनका धंधा भावनाओं व विश्वास का है. तर्क और वैज्ञानिकता को ये नहीं मानते. पैसा कमाना और किसी भी तरह से कमाना गुरु बुरा नहीं मानता यदि कुछ भाग धर्म व समाज के लिए खर्च किया जाये.

गुरु सुन्दर वचनों, भजनों आदि से भक्त को भाव-विभोर करता है. भक्त भाव-विभोर हो गुरु में ही भगवान का वास मान लेता है और गुरु की पूजा करते हुए स्वयं को ईश्वर के समीप मान अपनी कमजोरियों के साथ भौतिक जीवन में संलग्न रहता है.

देश की 70 प्रतिशत जनता गरीबी, बेरोजगारी व अशिक्षा की शिकार है. बूढ़े, महिलाऐं व बच्चे अक्सर अपरिपक्व, भावुक व जीवन संघर्षों के कारण असुरक्षा की भावना से घिरे रहते हैं. इनको लूटने के कार्य में एक बड़ा वर्ग संलग्न हो. मुर्ख बनाने की कला में माहिर कोई वाकपटु आदमी जो भय का वातावरण बना सकता हो व भूत पिशाच, प्रेतात्मा आदि का भय दिखा व्यक्ति का किसी भी तरह से शोषण कर सकता है. मानसिक भी व शारीरिक भी. विभिन्न तरह के राशिफलों, ग्रहों, नक्षत्रों के जाल, पत्थरों, ताबीजों, गंडों, जन्मपत्रियों आदि के जाल में पूरा समाज ही उलझा है. वास्तव में यह जीवन को सही रूप से समझ नहीं पाने और भौतिक वस्तुएं पाने की आतुरता मात्र है. परिस्थितियों का सही आंकलन कर, धैर्य रख और सही रणनीति बनाकर कुछ भी लक्ष्य हासिल किया जा सकता है किन्तु इतनी सी बात अधिकांश समाज समझ नहीं पाता और कुछ ‘काने’, ‘अंधे’ समाज को हांकते रहते हैं.

दु:खद यह है कि हमारा सरकारी तंत्र व प्रबुद्ध व्यक्ति इस पूरे वर्ग को नियंत्रित करने के लिए कोई भी कदम उठाने को तैयार नहीं हैं. अपने कुछ चेलों व समर्थकों के दम पर कोई भी बाबा अपनी मनमानियाँ करता रहता है और व्यवस्था उस पर कार्यवाही करने की जगह पर्दा डालती रहती है.

साधुओं और बाबाओं में कुछ समान लक्षण बार-बार उभर के आते हैं-

प्रथम: सब के सब आत्मप्रवंचना पसंद करते हैं. साथ ही अपनी पूजा कराना भी उन्हें अच्छा लगता है.

द्वितीय: सब शाही जीवन शैली देश व दुनिया में भव्य आश्रमों, आधुनिक तकनीकी, उन्नत यातायात के साधनों को पसंद करते हैं और इसके लिए मोटी रकम भक्तों से दान लेने में इन्हें कोई संकोच नहीं है.

तृतीय: अक्सर किसी न किसी बाबा की यौन उत्कंठा, यौन शोषण के किस्से संचार माध्यमों में आते रहते हैं.

चतुर्थ:  सारे बाबा बार-बार अपना शक्ति प्रदर्शन करते रहते हैं और आपसी आरोप प्रत्यारोप या हिंसा का शिकार भी होते हैं.

पंचम: सभी के कोई न कोई राजनैतिक हित हैं और नेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों, व्यापारियों से इनके विशेष रिश्ते हैं अक्सर इनके किसी न किसी मामले में ये बिचौलियों की भूमिका निभाते रहते हैं.

षष्ठ: ये सभी तर्क वैज्ञानिकता की बात नहीं करते, अंधभक्ति, कपोल कल्पनाओं और झूठी कहानियों के बीच ये आस्था व विश्वास का ऐसा मायाजाल खड़ा कर देते हैं जहाँ बुद्धि की कोई जगह नहीं होती.

सप्तम:  अक्सर ये जो उपदेश देते हैं उसमें कोई तारतम्यता व संबंध नहीं होता. जब बोलते-बोलते कुछ नहीं सुझता तो भजन गाना शुरू कर देते हैं और भजन गाते-गाते बोलना.

अष्टम:  लगभग सभी बाबा बच्चों को धार्मिक शिक्षा दिये जाने के पक्षधर हैं और अधिकांश अपने आश्रम के साथ स्कूल, विधवा आश्रम व अस्पताल खोलते भी हैं जिसकी आड़ में भारी चंदा तो लिया ही जाता है, धर्मभीरु पीढ़ी भी विकसित हो जाती है. धार्मिक गुरुओं का एक वर्ग ऐसा भी है जिसने भारतीय उपनिषदों दर्शनों व धर्मों के वास्तविक मर्मों का गहन अध्ययन किया है.

उन्होंने पश्चिम के भौतिक विकास व भारत के आध्यात्मिक विकास दोनों के चरम को समझा और दोनों की पारस्परिकता को भी पहचाना. स्वामी विवेकानन्द ने इस बात को बहुत गहराई से समझा था. पिछले कुछ दशकों में आचार्य रजनीश, महेश योगी, श्री श्री रविशंकर और कुछ नये युवाओं ने भी इस दिशा में काम किया. इन लोगों ने माना कि भारतीय अध्यात्म को भौतिकता के चरम पर पहुँच कर ही सहजता से समझा जा सकता है और आत्मिक विकास कर ईश्वर से साक्षात्कार किया जा सकता है. इन लोगों ने विकसित देशों के लोगों में अध्यात्म की ‘मार्केटिंग’ की और इसे ऊँची दर पर बेचकर एक नये रूप में दुनिया का परिचय अध्यात्म से कराया. दु:खद यही है कि धन के आगमन से व आश्रमों की शृंखला से गुरु एक उद्योगपति बन जाता है और विज्ञान तर्क व आध्यात्मिकता का मिलन कराने वाला शिक्षक जब व्यापक प्रचार प्रसार का शिकार होता है तो गुरु और भगवान के रूप में बदलने लगता है और फिर उसके अंधभक्तों की फौज खड़ी हो जाती है और अपने सभी भक्तों की आत्मा को अपने में समाहित करने को आतुर परमात्मा हाथ मलता रह जाता है.

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