गृह मंत्रालय के अफसर सालाना पढ़ते हैं 25 लाख की मैगज़ीन व अखबार

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BeyondHeadlines News Desk

देश की जनता महंगाई से परेशान है, लेकिन सरकारी बाबुओं पर इसका कोई असर नहीं पड़ रहा है. आलम तो यह है कि देश के सबसे महत्वपूर्ण और ‘सर्वोच्च कामकाजी दफ्तर’ गृह मंत्रालय के सरकारी बाबू अत्याधिक व्यस्तताओं के बावजूद सालाना 25 लाख रूपये की पत्र-पत्रिकाएं पढ़ डालते हैं.

वित्त मंत्री चिदंबरम साहब का सरकारी खर्च में कटौती का बयान भले ही अभी आया हो, लेकिन गृह विभाग पर इस बयान का असर पहले से ही होना शुरू हो गया था. यही नहीं चिदंबरम साहब के समय में इसी गृह मंत्रालय में पत्र-पत्रिकाओं पर वार्षिक 29 लाख रूपये तक खर्च किए गए हैं. बाद में उन्होंने इसे कम करके 22 लाख किया लेकिन फिलहाल शिन्दे साहब ने इसे 25 लाख रूपये तक पहुंचा दिया है.

BeyondHeadlines को गृह मंत्रालय से आरटीआई के ज़रिए मिले जानकारी के मुताबिक पिछले पांच सालों में पत्र-पत्रिकाओं पर लगभग 1 करोड़ 20 लाख रूपये खर्च किए गए हैं. इस वर्ष यानी साल 2012-13 में यह खर्च 25 लाख 21 हज़ार रूपये रहा है. साल 2011-12 में पत्र-पत्रिकाओं पर खर्च 22 लाख 49 हज़ार और साल 2010-11 में यह खर्च 29 लाख 94 हज़ार रहा.

home minister expense 25 lakhs on magazine and newspapersमजे की बात यह है कि वह दफ्तर जहां अधिकारियों को सांस लेने की भी फुर्सत न होने की बात तकिया-क़लाम का रूप ले चुकी है, वहां पत्र-पत्रिकाओं की लम्बी फेहरिस्त में ‘स्टार डस्ट’, ‘फिल्म फेयर’ व ‘सीने ब्लीट्ज’ जैसी फिल्मी गॉसिप मैगजीन और गृहशोभा, फेमिना, गुड हाउस कीपिंग, न्यू वूमेन, वूमेन एंड होम, वूमेंस इरा, मुक्ता, सरिता व वनिता जैसी महिलाओं की पत्रिकाएं भी शामिल हैं, जिसका वाचन करने का वक्त भी निकाल लिया जाता है. महिलाओं से जुड़ी पत्रिकाओं के साथ-साथ मर्दों की भी जानकारी देने वाली मैग्जीन ‘मैन’ का भी यहां विशेष ख्याल रखा जाता है.

प्रतियोगी परीक्षाओं से जुड़ी पत्रिकाएं भी यहां आती है. यहां अधिकारियों के बीच ‘कम्पटीशन’ तो बहुत है, लेकिन इस मैगजीन से किस प्रतियोगिता की तैयारी कौन सा अधिकारी कर रहा है, फिलहाल यह जानकारी से परे है. यही नहीं, बिज़नेस, कम्प्यूटर व टेक्नोलॉजी के जुड़े कई पत्रिकाएं यहां लागातार आ रही हैं.

BeyondHeadlines को आरटीआई से मिले जानकारी के मुताबिक गृह मंत्रालय में कुल 35 समाचार पत्र आते हैं, जिसमें 22 अंग्रेजी,10 हिन्दी, 2 बांग्ला, व एक तेलगु की हैं. अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के अखबार नदारद हैं. बल्कि दिल्ली की दूसरी भाषा का दर्जा रखने वाली पंजाबी व उर्दू के एक भी अखबार या मैगज़ीन यहां नहीं मंगाए जाते हैं. इससे आप इस बात का अंदाज़ा लगा सकते हैं कि देश का गृह मंत्रालय अल्पसंख्यक व उनके समस्याओं का कितना ख्याल रखता है?

भारत में 65 फीसद लोगों को समझ आने वाली भाषा हिंदी के समाचार पत्रों के लिए यह आंकड़ा सिर्फ दस पर इसलिए रूक गया है कि हिन्दी के ज्यादातर क्षेत्रीय अख़बार इस सूची से बाहर हैं.

अगर पत्रिकाओं की बात करें तो यहां भी अंग्रेजी भाषा के प्रकाशनों का वर्चस्व है. BeyondHeadlines को आरटीआई से मिले जानकारी के मुताबिक यहां कुल 69 मैगज़ीन्स आते हैं, जिसमें 45 अंग्रेजी, 11 हिन्दी, 5 तमिल, 4 मलयालम, 2 बांग्ला, व एक-एक तेलगु व कन्नड़ भाषा की हैं. अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के मैगज़ीन नदारद हैं. उर्दू व पंजाबी यहां भी गायब हैं.

गौरतलब रहे कि जनता के पैसे से मंगाई जा रही इन पत्रिकाओं का ताल्लुक होना तो चाहिए था आम लोगों के साथ जुड़े मुद्दों से लेकिन सूची को देखकर लगता है कि आम आदमी की जेब से आ रही इस सामग्री का इस्तेमाल हो रहा है निजी मनोरंजन और गॉसिप पढ़ने के लिए. गृह मंत्रालय लाइब्रेरी में अगर किसी को चटपटी सामग्री पढ़ने का वक्त मिल जाता है और वे पढ़ना चाहते हैं कि तो इसके लिए आम आदमी के पैसे के बजाय अपनी जेब से पैसे खर्च किए जाने चाहिए.

अल्पसंख्यकों के कल्याण के मामले को लेकर बनाए गए अल्पसंख्यक मंत्रालय की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. BeyondHeadlines को आरटीआई से मिले जानकारी के मुताबिक यहां कुल 53 अखबार व मैगज़ीन आते हैं. यहां भी बोलबाला अंग्रेज़ी का ही है. थोड़े-बहुत हिन्दी भाषा के पत्र-पत्रिकाओं पर ध्यान दे दिया जाता है. लेकिन दूसरे क्षेत्रीय भाषा पूरी तरह से नदारद हैं. और दिल्ली की दूसरी भाषा का दर्जा रखने वाली पंजाबी व उर्दू यहां भी अपेक्षित हैं. बल्कि पंजाबी का एक भी अखबार या मैगज़ीन यहां नहीं मंगाए जाते. उर्दू की स्थिती बाकी मंत्रालयों के पेश-ए-नज़र थोड़ी बेहतर हैं. सिर्फ उर्दू के दो अख़बार इंक़लाब व हमारा समाज इस मंत्रालय को अल्पसंख्यकों पर होने वाले जुल्म की जानकारी दे रहे हैं. बाकी यहां के भी अधिकारी फेमिना व वूमेन इरा पढ़ने में मश्ग़ूल हैं. कम्पीटीशन के ज़माना होने के मद्देनज़र ‘कम्पीटिशन सक्सेस रिव्यू’ भी बकायदा पढ़ा जा रहा है. खर्च की बात करें तो पिछले 5 सालों में क़रीब दस लाख रूपये पिछले पांच सालों में इन 53 पत्र-पत्रिकाओं को मंगाए जाने पर किया गया है.

अब बात अगर दिल्ली के मुख्यमंत्री कार्यालय की जाए तो यहां कुल सिर्फ 39 पत्र-पत्रिकाएं आ रही हैं. राजनीति और राष्ट्रीय खबरों के अलावा अर्थजगत, पर्यावरण और यहां तक कि फैशन जगत से संबंधित पत्रिकाओं के नाम भी यहां के फेहरिस्त में भी शामिल हैं. इनमें फेमिना, गृहशोभा वूमेन इरा को भी बाकायदा जगह मिली हुई है. अंग्रेजी भाषा का बोलबाला यहां भी क़ायम है. और दिल्ली की दूसरी भाषा का दर्जा रखने वाली पंजाबी व उर्दू यहां भी नदारद हैं. बल्कि उर्दू व पंजाबी के एक भी अखबार या मैगज़ीन यहां नहीं मंगाए जाते हैं. अब शीला दीक्षित के उर्दू से ईश्क की कहानी को आप बखूबी समझ सकते हैं.

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