Anurag Bakshi for BeyondHeadlines
सरकार ने सजायाफ्ता विधायकों-सांसदों संबंधी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ जिस तरह अध्यादेश को मंजूरी दी, उससे यह स्पष्ट है कि उसकी दिलचस्पी दागी और अपराधी नेताओं को बचाने में है. इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि कोई सरकार एक अध्यादेश सिर्फ इसलिए लाए ताकि सुप्रीम कोर्ट के राजनीति के अपराधीकरण को रोकने वाले फैसले को खारिज किया जा सके?
जो भी हो, इस अध्यादेश का अस्तित्व में आना किसी भी लिहाज से सही नहीं होगा. इस अध्यादेश के संदर्भ में राष्ट्रपति की मुहर के बाद यह भी देखना होगा कि सरकार के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाती है या नहीं? अगर चुनौती दी जाती है और सुप्रीम कोर्ट यह पाता है कि अध्यादेश के जरिये जो कुछ किया गया है वह संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल है तो राजनीतिक दलों को मात खानी पड़ सकती है. बेहतर हो कि सरकार यह समझे कि वह आम जनता की आकांक्षा के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं के खिलाफ काम कर रही है.
चूंकि सरकार के इस फैसले में सभी राजनीतिक दल शामिल हैं. इसलिए अब उनकी ओर से ऐसा कोई दावा करने का कोई मतलब नहीं रह जाता कि वे राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ हैं. उन्हें न तो सर्वोच्च न्यायालय का फैसला रास आया और न ही केंद्रीय सूचना आयोग का वह निर्णय जिसके तहत राजनीतिक दलों को सूचना अधिकार कानून के दायरे में ले आया गया है. इन दोनों फैसलों का जैसा विरोध हुआ उससे यही साबित होता है कि हमारे राजनीतिक दल लोकतांत्रिक तौर-तरीकों पर यकीन नहीं रखते और वे दूसरों के लिए जो नियम-कानून चाहते हैं. उनके दायरे में खुद आने के लिए तैयार नहीं… राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में भेद का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है?
यह अध्यादेश लाकर केंद्र सरकार देश की जनता को यही संदेश दे रही है कि उसे दागी और सजा पाए नेताओं से पीछा छुड़ाने की जल्दी नहीं. देखना यह है कि राष्ट्रपति इस अध्यादेश पर सरकार से पुनर्विचार करने के लिए कहते हैं अथवा बिना सवाल-जवाब उसे अपनी मंजूरी प्रदान करते हैं.