इस युद्ध को केवल सच्चाई के दम पर नहीं लड़ा जा सकता!

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Anurag Bakshi for BeyondHeadlines

कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकार को ईमानदार लोगों/संस्थाओं से सख्त एलर्जी है. चाहे वह कोई जनरल हो, सीएजी, सर्वोच्च अदालत, चुनाव आयोग या प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी, हमारे ईमानदार प्रधानमंत्री का मौन व्रत केवल भ्रष्ट लोगों के बचाव में ही टूटता है. ईमानदार लोगों का मामला आता है तो उनकी चुप्पी किसी की आबरू बचाने लगती है. इस किसी की आबरू बचाते हुए उन्होंने करीब साढ़े नौ साल गुजार दिए. इस बीच अगर कुछ बचा रहा तो उनका प्रधानमंत्री पद…

genral v k singh and modiकेंद्र सरकार ने अपने राजनीतिक हित साधने के लिए संवैधानिक और गैर संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता और साख को खत्म करने से कभी गुरेज नहीं किया. उसे ऐसी कोई निष्ठा मंजूर नहीं है, जो उसके राजनीतिक हितों के आड़े आती हो. ईमानदार लोग इस सरकार के लिए दूध में गिरी मक्खी की तरह हैं, जिन्हें व्यवस्था से जितनी जल्दी निकाल कर फेंक दिया जाए उतना अच्छा… पर थल सेना के पूर्व अध्यक्ष जनरल वीके सिंह एक ऐसा कांटा हैं जिसके चुभने का दर्द सरकार भूल नहीं पा रही है.

सवाल यह है कि जनरल वीके सिंह ने अगर कोई गलत काम किया है तो उनके खिलाफ कार्रवाई करने से उसे रोक कौन रहा है? सेना की जिस रिपोर्ट के आधार पर जनरल वीके सिंह पर जो आरोप लग रहे हैं. सरकार उन्हें सही मानती है तो वीके सिंह के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं करती? यदि इन आरोपों को वह गलत मानती है तो अपने पूर्व सेनाध्यक्ष के बचाव में क्यों नहीं आती?

उसके पास इन दोनों विकल्पों के बीच का कोई रास्ता नहीं है. सरकार को अच्छी तरह पता है कि अगर वीके सिंह को कार्रवाई की आग में धकेलने की कोशिश की तो वह खुद जल जाएगी. इसलिए वह छिपकर वार कर रही है. वह जनरल वीके सिंह पर कार्रवाई नहीं, उनकी ईमानदार और राष्ट्रभक्त सैन्य अधिकारी की छवि को ध्वस्त करना चाहती है. इसलिए वह साफ छिपती भी नहीं और सामने भी नहीं आती.

जनरल वीके सिंह टीवी चैनल के इंटरव्यू में एक लक्ष्मण रेखा पार कर गए. सेना, सुरक्षा बलों और खुफिया एजेंसियों के राष्ट्रहित में किए गए कोवर्ट ऑपरेशन के राज-राज ही रहने चाहिए. क्योंकि यह ऐसी सच्चाई होती है जिसके लिए दिन की रोशनी नुक़सानदेह होती है.

थल सेनाध्यक्ष रहते सरकार उन्हें अपना विरोधी मानती रही. उन्होंने सेना की युद्ध तैयारियों के बारे में प्रधानमंत्री को पत्र लिखा तो उसे लीक कर दिया गया. सरकार ने जांच कराई तो पता लगा कि पत्र प्रधानमंत्री के कार्यालय से लीक हुआ. नया विवाद उनके कार्यकाल में बने टेक्निकल सपोर्ट डिवीजन के कामकाज को लेकर है. सबसे पहले इस जांच के लिए गठित समिति पर ही सवाल है. सेना में बोर्ड ऑफ ऑफिसर्स जैसी जांच की कोई व्यवस्था नहीं है. पर मौजूदा सेना प्रमुख जनरल बिक्रम सिंह ने जांच के लिए इसी व्यवस्था को चुना. जांच की रिपोर्ट मार्च 2013 में आ गई,.उसके बाद सेना, रक्षा मंत्रालय, रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री ने इस रिपोर्ट के आधार पर क्या कार्रवाई की इसकी किसी को जानकारी नहीं है.

उसके बाद यह रिपोर्ट लीक हो गई. इस लीक रिपोर्ट के मुताबिक जनरल वीके सिंह पर कई आरोप हैं. सेनाध्यक्ष रहते उन पर आरोप लगा था कि वह केंद्र सरकार का तख्ता पलटना चाहते हैं. सरकार इस मामले पर चुप्पी साधे रही. उस समय उसका एक ही लक्ष्य था वीके सिंह का कार्यकाल जल्द से जल्द खत्म हो, क्योंकि उन्होंने उस मंत्रालय में भ्रष्टाचार की बात उठा दी जिसके मंत्री को सरकार अपना सबसे ईमानदार मंत्री मानती है. उनके कारण सेना में उत्ताराधिकार तय करने की एक योजना उजागर हुई जिसकी आंच प्रधानमंत्री तक पहुंच रही थी. सेना के अंदर और बाहर जनरल वीके सिंह के विरोधियों के पीछे केंद्र की सरकार खड़ी नज़र आ रही है.

उनके विरोधी जानते हैं कि वीके सिंह अपनी ईमानदारी, सेना के प्रति निष्ठा और देशभक्ति के सवाल पर कोई समझौता नहीं करेंगे. इन मुद्दों पर उन्हें मजबूर किया गया तो वह चुप नहीं रहेंगे. रिपोर्ट के लीक करने का यही मक़सद था. एक वे बेइमानी, भ्रष्टाचार और राष्ट्र विरोधी होने के आरोप का अपमान झेलते हुए चुप रहें. दूसरे अपनी ईमानदारी, निष्ठा और देशभक्ति के बचाव में सच्चाई को उजागर कर दें. उन्होंने दूसरे विकल्प को चुना. जनरल साहब दुश्मनों के बिछाए इस जाल में फंस गए. उन्हें एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि यह न तो युद्ध का मैदान है और न ही वह जनरल हैं. उनकी नई लड़ाई राजनीति के मैदान में है. यहां दुश्मन पर किए जाने वाले सीधे वार से ज्यादा प्रभावी छिपकर किया जाने वाला वार होता है. इस युद्ध को केवल सच्चाई के दम पर नहीं लड़ा जा सकता.

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