BeyondHeadlinesBeyondHeadlines
  • Home
  • India
    • Economy
    • Politics
    • Society
  • Exclusive
  • Edit/Op-Ed
    • Edit
    • Op-Ed
  • Health
  • Mango Man
  • Real Heroes
  • बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी
Reading: ‘आप’ के मायने…
Share
Font ResizerAa
BeyondHeadlinesBeyondHeadlines
Font ResizerAa
  • Home
  • India
  • Exclusive
  • Edit/Op-Ed
  • Health
  • Mango Man
  • Real Heroes
  • बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी
Search
  • Home
  • India
    • Economy
    • Politics
    • Society
  • Exclusive
  • Edit/Op-Ed
    • Edit
    • Op-Ed
  • Health
  • Mango Man
  • Real Heroes
  • बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी
Follow US
BeyondHeadlines > Edit/Op-Ed > ‘आप’ के मायने…
Edit/Op-EdLead

‘आप’ के मायने…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published December 19, 2013
Share
11 Min Read
SHARE

Faiyaz Ahmad Wajeeh  & Meraj Ahmad for BeyondHeadlines

हालिया दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों पर चर्चा और परिचर्चाएं होती रही हैं और राजनीतिक विमर्श का ये सिलसिला अभी थमा नहीं है. इसका मुख्य कारण “आप” का चुनाव में उम्मीद से अच्छा प्रदर्शन है. कहीं न कहीं इसकी व्यापक भागीदारी ने परम्परागत राजनीती में नैतिकता के प्रश्न को भी स्थापित कर दिया है.

भारतीय राजनीति के इतिहास में यह कोई पहली और अनोखी घटना नहीं है. इससे मिलती जुलती घटना का देश पहले भी गवाह रह चुका है. इसका सबसे बड़ा और प्रत्यक्ष उदाहरण जे. पी. आन्दोलन है. उस समय भी एक जन आन्दोलन वोट की अर्थहीन राजनीति के खिलाफ खड़ा हुआ था और उसको सरकार बनाने में सफलता भी मिली थी.

इस आन्दोलन से निकल कर आई जनता पार्टी की सरकार ने इंदिरा गाँधी की तमाम नीतियों को पलट दिया था. हालाँकि यह प्रयोग राजनीति में लम्बे समय तक सत्तारूढ़ नहीं रह सका. आज की राजनीति में सक्रिय कई बड़े नेताओं का जन्म भी इसी आन्दोलन की वजह से हुआ. सियासी दाव-पेंच के नतीजे में देश ने ये भी देखा कि कुछ ही वर्षों में ‘गरीबी-हटाओ’ के नारे तथा जनता पार्टी के आंतरिक विघटन ने जे. पी. आन्दोलन की मूल भावना को चोट पहुंचाई, और इंदिरा गाँधी ने 1980 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी.

राजनीति की इस पृष्ठभूमि में ‘आप’ की राजनीति और उदय के कुछ मायने ज़रूर हैं. इन पर परिचर्चाए भी हो रही हैं. सम्भानाओं के गुणा-गणित को एक तरफ रखिये तो यहाँ तीन बातें स्पष्ट रूप से विचारणीय है कि क्या ‘आम आदमी पार्टी’ (‘आप’) की तुलना जे. पी. आन्दोलन से की जा सकती है, और क्या ऐसा करना सही भी है? इसी क्रम में ये भी देखना चाहिए के ‘आप’ की इतनी बड़ी सफलता और उदय के मुख्य कारण क्या हैं? इसी से जुड़ा हुआ एक पहलु ये भी है के राजनीति के नए अध्याय में ‘आप’ का भविष्य क्या है और इस के साथ भारतीय राजनीति की दिशा और दशा की कल्पना का अर्थ क्या हो सकता है?

जे. पी. ने ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा देकर बिहार के युवा वर्ग के स्वर को एक सशक्त नेतृत्व दिया. जिसके नतीजे में इमरजेंसी के बाद हुए आम चुनावो में पहली बार नॉन-कांग्रेस सरकार, यानी जनता पार्टी की सरकार बनी. उस समय ऐसा कहा गया कि यह जीत ‘एंटी-कांग्रेस सेंटिमेंट’ के ही फलस्वरूप मिली, जिसमें इमरजेंसी काल ने मुख्य भूमिका निभाई. मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्णा अडवानी, लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, कर्पूरी ठाकुर, जॉर्ज फ़र्नान्डिस इत्यादि इस मूवमेंट का हिस्सा बने. जनता पार्टी बाद में कई घटकों में विभाजित हो गई. इस राजनीतिक उथल-पुथल में मुख्य पहलु रहा 1980 में भारतीय जनता पार्टी का भारतीय राजनीति में आगमन… चूँकि अब तक दक्षिण-पंथी विचारधारा राष्ट्रीय स्तर पर कोई राजनीतिक मंच नहीं बना पायी थी, इसलिए इस दिशा में जन-संघ के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण कदम था.

क्या जे.पी. मूवमेंट से ‘आप’ की तुलना का कोई औचित्य है? क्या इन जन-आंदोलनों में प्रत्यक्ष रूप से कोई समानांतर लाइन खींची जा सकती है? इसका उत्तर अभी भविष्य के गर्भ में है. हालाँकि ‘आप’ का जन्म भी जनता पार्टी की तरह एक जन-आन्दोलन से हुआ है, और इस जन-आन्दोलन की भावनाएं वोट में तब्दील हुईं. यहाँ जे.पी. की तुलना अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल या अन्य नेताओं से करना कहाँ तक उचित है ये अलग प्रश्न है.

अहम बात ये है कि बिहार आन्दोलन का एक पूरा इतिहास हमारे सामने है. और ‘आप’ का लेखा-जोखा अभी सामने आना बाकी है. एक समानता शायद यह हो सकती है कि 1974 के आन्दोलन की तरह ही 2011 के जन-आन्दोलन का आउटलुक भी राष्ट्र स्तर का रहा, इस फर्क के साथ कि इमरजेंसी काल की तुलना 2011-12 से नहीं की जा सकती.

दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद राजनीतिक दृष्टि से यह प्रश्न बड़ा मार्मिक रहा- क्या ‘आप’ ने ‘खेल के नियम’ बदल दिए हैं? दूसरे शब्दों में कहें, तो कैसे ‘आप’ ने ‘परम्परागत-राजनीति’ के बिना ही इतना बड़ा मत-प्रतिशत हासिल कर लिया? आम भाषा में समझें तो परम्परागत-राजनीति का अर्थ है वोट-बैंक की राजनीति. इस राजनीति ने न सिर्फ नए-नए मुद्दों को जन्म दिया बल्कि तथाकथित मुख्य मुद्दों को मुखौटों में तब्दील भी कर दिया.

भारतीय राजनीति में तीन बड़े मुद्दे खासकर इंदिरा गाँधी के समय और उसके बाद बढ़-चढ़कर सामने आये- सामूहिक विकास, सामाजिक न्याय तथा धर्म-निरपेक्षता. सामूहिक विकास के लिए आवश्यक था कि सर्वप्रथम गरीबी को दूर कर रोज़गार के अवसर मुहय्या कराये जाएँ; और इसके लिए ज़रूरी था भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण. 1990-1992 के अध्याय ने भारतीय राजनीति के अगले दो दशकों की क़वायद और इसके नियम तय कर दिए: मंडल और कमंडल…

अब राजनीति दो तरह से मोड़ लेती है- पहला, सामाजिक न्याय की/के लिए राजनीति; दूसरा, हाई-वोल्टेज हिंदुत्व की/के लिए राजनीति… कई मायने में ऐसा कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय की लड़ाई को कमज़ोर करने के लिए ही देश के भगवाकरण का प्रयास किया गया. लेकिन हिंदी प्रदेशों में पिछड़ी जातियों पर आधारित पार्टियां दक्षिणपंथी विचारधारा पर काफी हद तक लगाम लगाने में सफल रही. नयी सदी के आगमन तक ‘परम्परागत-राजनीति’ ने अपने नियम तय कर लिए थे. जोड़-तोड़ की राजनीति के दौर में, खासतौर से कोअलिशन पॉलिटिक्स के कारण, अब राजनीति में कुछ भी संभव हो चुका था.

भारत निरंतर दंगों का साक्षी रहा है और इनमें 1984 के बाद 2002 का गुजरात नरसंहार सबसे भयावाह रहा. अब राजनीति ने अपनी नयी शब्दावली गढ़ दी थी- धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता. इसी के समानांतर कुछ खास शब्द और राजनीतिक मुहावरे सामाजिक परिदृश्य को रेखांकित करने लगे. मेजोरिटी बनाम माइनॉरिटी, विकास बनाम सामाजिक न्याय, अल्पसंख्यक बनाम तुष्टिकरण इत्यादी के संपादन में मीडिया जगत राजनीतिक गलियारे और कई दूसरे चिंतकों की अपनी खास भागीदारी रही.

राजनीतिक विमर्श की इस पारस्परिक क्रिया ने परम्परागत राजनीति का आधार तय कर दिया. लेकिन तथाकथित राजनीतिक मुहावरे की आड़ में भ्रष्टाचार, रोज़गार, बिजली, पानी तथा सड़क जैसे अन्य मुद्दे मुख्य धारा की राजनीतिक शब्दावली से गायब कर दिए गए या इन को पीछे धकेल दिया गया. ‘आप’ ने देश के आम और किसी हद तक हाशियाई मुद्दों को मुख्य-धारा की राजनीतिक में फिर से केन्द्रित करने के लिए जनादेश माँगा. इसमें उसको एक बड़ी सफलता मिली और राजनीतिक मुहावरे का स्वरूप भी बदलने को हुआ.

इसलिए विकास, पारदर्शिता और आम आदमी से जुड़े सवालों ने एक नए चेहरे का भारतीय राजनीति में खैर-मक़दम किया है. लेकिन ये आने वाला समय ही बताएगा कि आम आदमी के प्रश्न अनुत्तरित रह जाएँगे या इनके उचित उत्तर परम्परागत राजनीति को भी अपना स्वरूप बदलने पर मजबूर करेंगे. कयास आराइयाँ अपनी जगह हैं, लेकिन इतना अवश्य लगने लगा है कि अब शायद परम्परागत राजनीति के श्लोकों का उच्चारण वोट नहीं बटोर सकते, कम से कम महानगरों में तो बिलकुल भी नहीं.

अब सबसे अहम सवाल और उसके दायरे हैं- ‘आप’ का भविष्य, आगामी चुनाव तथा भारतीय राजनीति का भविष्य और ‘आप’ की चुनौतियां… दिल्ली विधानसभा चुनाव में ‘आप’ की वोट हिस्सेदारी 30% रही.  इस हिस्सेदारी को विशेष संदर्भ में देखा जाना चाहिए चूँकि परम्परागत राजनीति के बिना इसे हासिल किया गया. इसके इतिहास में प्रमुख बात ये थी के चुनाव से ठीक पहले जन-आन्दोलन को मीडिया जगत में भरपूर जगह मिली. इस पूरे एपिसोड की सफलता और असफलता में दिल्ली की डेमोग्राफी को बिलकुल नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता. यहाँ की डेमोग्राफी देश के अन्य हिस्सों से भिन्न है.

‘आप’ की सफलता ने यह साबित कर दिया है कि बहुत कम खर्चे पर चुनाव लड़ा जा सकता है और आम जनता से सीधा संपर्क कर के जन-समर्थन को परम्परागत राजनीति के खिलाफ भी खड़ा किया जा सकता है.

जन-समर्थन धर्म और जाति पर आधारित हो ऐसा होना भी आवश्यक बिलकुल नहीं है. इस सत्य को मान लेने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन देश के बहुत बड़े हिस्से में दिल्ली जैसी परिस्थितियाँ नहीं हैं. इसलिए सीधा जनसंपर्क स्थापित करना बहुत आसन नहीं होगा. ‘आप’ को जिस तरह से दिल्ली में मीडिया कवरेज मिला (अनेक कारणों से), 2014 तक देश के अन्य हिस्सों में शायद ये संभव नहीं होगा. देश की सामाजिक सच्चाई, विशेषकर ग्रामीण और शहरी इलाकों की सामाजिक सच्चाई दिल्ली से बहुत भिन्न है.

हम जानते हैं कि सामाजिक न्याय एक बड़ा मुद्दा है और ‘आप’ ने अभी तक इस मामले में अपने पत्ते नहीं खोले हैं. आगे देखना ये है कि पार्टी कैसे इन चुनौतियों का सामना करती है, और आगे बढ़ कर सामंजस्य स्थापित करती है. कम से कम एक दशक से पहले ‘आप’ से बहुत ज्यादा उम्मीद करना ठीक नहीं होगा. व्यवहार की राजनीति में इस को अभी क़दम रखना है. यूँ भी देश ने 60 वर्षो का इंतज़ार तो सहा ही है.

(लेखक जे.एन.यू. में शोध छात्र हैं. इनसे faiyazwajeeh@gmail.com और merajahmad1984@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)

Share This Article
Facebook Copy Link Print
What do you think?
Love0
Sad0
Happy0
Sleepy0
Angry0
Dead0
Wink0
“Gen Z Muslims, Rise Up! Save Waqf from Exploitation & Mismanagement”
India Waqf Facts Young Indian
Waqf at Risk: Why the Better-Off Must Step Up to Stop the Loot of an Invaluable and Sacred Legacy
India Waqf Facts
“PM Modi Pursuing Economic Genocide of Indian Muslims with Waqf (Amendment) Act”
India Waqf Facts
Waqf Under Siege: “Our Leaders Failed Us—Now It’s Time for the Youth to Rise”
India Waqf Facts

You Might Also Like

I WitnessLatest NewsLeadWorldYoung Indian

The Heartbeat of Karbala in Istanbul: An Eyewitness to Ashura’s Powerful Legacy

July 8, 2025
ExclusiveIndiaLeadYoung Indian

Weaponizing Animal Welfare: How Eid al-Adha Becomes a Battleground for Hate, Hypocrisy, and Hindutva Politics in India

July 4, 2025
IndiaLatest NewsLeadYoung Indian

OLX Seller Makes Communal Remarks on Buyer’s Religion, Shows Hatred Towards Muslims; Police Complaint Filed

May 13, 2025
IndiaLatest NewsLeadYoung Indian

Shiv Bhakts Make Mahashivratri Night of Horror for Muslims Across India!

March 4, 2025
Copyright © 2025
  • Campaign
  • Entertainment
  • Events
  • Literature
  • Mango Man
  • Privacy Policy
Welcome Back!

Sign in to your account

Lost your password?