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Reading: कहीं वो हड़बड़ी में तो नहीं ?
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BeyondHeadlines > Lead > कहीं वो हड़बड़ी में तो नहीं ?
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कहीं वो हड़बड़ी में तो नहीं ?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published December 31, 2013 8 Views
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8 Min Read
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Alok Kumar for BeyondHeadlines

अरविन्द केजरीवाल ने वैकल्पिक राजनीति के रण में जैसी शुरुआती और त्वरित (इन्सटैन्ट) सफ़लता हासिल की है. उससे एक-बारगी कोई भी अभिभूत हो सकता है, लेकिन ये अभी कुव्यवस्था-उन्मूलन का कोई ठोस नतीजा बयां नहीं करता. शुरुआती दौर में केजरीवाल समर्थकों को तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि लड़ाई की पहली पारी उनकी टीम के नाम है. जिसे शायद अब अन्ना के पहचान की ज़रूरत भी नहीं रह गई है. केजरीवाल के द्वारा दिए गए झटकों ने सिर्फ कांग्रेस और भाजपा ही नहीं, बल्कि समस्त पारम्परिक राजनीतिक जमात को सोचने को मजबूर तो किया ही है. मीडिया में जिस तरह से केजरीवाल ने समस्त राजनीतिक दलों के स्लॉट पर कब्जा जमाया है, उससे समस्त राजनीतिक दल सदमे में तो अवश्य ही हैं. लेकिन क्या ये काफी है किसी लम्बी और स्थायी राजनीतिक पारी के लिए?

केजरीवाल जिस तेजी से अपने आपको खर्च कर रहे हैं, उससे कई बार भ्रम होता है कि कहीं वो हड़बड़ी में तो नहीं हैं? केजरीवाल के वायदों से लोगों में जो उम्मीद बढ़ी और जगी है, वह कुछ ज्यादा ही बड़ी हो गई है. कहीं ऐसा न हो कि समय आने पर ये उम्मीदें उतनी ही तेजी से टूटने भी लगें क्योंकि वायदे करना और वायदे निभाना दो अलग-अलग बाते हैं. खासकर तब जब केजरीवाल को मालूम है कि मौजूदा नौकरशाही जिस गति से काम करती है उसमें वायदे पूरा करना कितना कठिन काम है. क्यूँकि केजरीवाल खुद इस “तिलस्मी तंत्र” (नौकरशाही)  का अंग रह चुके हैं और इस तंत्र के द्वारा पैदा की जाने वाली पेचिदगियों से पूर्व-परिचित हैं.

लेकिन समस्या सिर्फ़ इतनी ही नहीं है. किसी भी राजनीतिक आन्दोलन को संस्थागत पार्टी का रूप लेने में दशकों ही नहीं कई बार सौ-सौ साल लग जाते हैं. हमारे देश के सत्ताधारी और विपक्षी दल इसके उदाहरण हैं. केजरीवाल और उनकी टीम को ये फायदा तो अवश्य है कि वे 24 घंटे खबरिया चैनलों और इंटरनेट के युग में सामने आए हैं. लेकिन पार्टी का संगठन और ज़मीनी कार्यकर्ता टीवी चैनलों या मीडिया से नहीं बनते. ऐसे में देखना होगा कि अपनी आम आदमी पार्टी की टीम को, जो सतही तौर पर ढ़ीला-ढीला संगठन प्रतीत है, को केजरीवाल आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर किस तरीके से एक मज़बूत राजनीतिक संगठन के रूप में तब्दील कर पाते हैं. क्योंकि ऐसा देखा गया गया है कि इस तरह के संगठन में तात्कालिकता के जोश से लबरेज युवा ही अधिक होते हैं जो अति-आदर्शवाद में डूबे रहते हैं और साथ ही सुविधाजीवी भी होते हैं.

जो मीडिया आज शुरुआती दौर में उनकी पीठ थपथपा रहा है, जब वही मीडिया (विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया) चुनावों के धनबल के दबाब में अपनी प्रतिबद्धताएँ बदल लेगा तो केजरीवाल की बात कौन सुनेगा?

एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पहलू ये है कि केजरीवाल जिस आशावादिता को लेकर मैदान में उतरे हैं उन्हें चुनावों में उतरते वक्त इसे साबित करने में काफी मशक्कत करनी पड़ेगी. चुनावों में धनबल का जिस तरीके से इस्तेमाल होता है केजरीवाल उससे कैसे निपटेंगे, यह एक यक्ष-प्रश्न है ? राजनीतिक दलों के अकूत संसाधनों और चुनावों के समय तय सीमा से कई गुना ज्यादा किए जानेवाले खर्च से केजरीवाल कैसे निपटेंगे?

केजरीवाल को अगर भ्रष्टाचार से लड़ना है तो सबसे पहले उन्हें चुनाव सुधार की बात करनी होगी, जिस प्रक्रिया ने एक आम आदमी के लिए चुनाव को हौआ बना दिया है. लेकिन टीम केजरीवाल चुनाव सुधारों की बात पर बहुत सकारात्मक, आक्रामक और गम्भीर नहीं दिखती. ज्ञातव्य हो कि अपने आंदोलन के दिनों में टीम केजरीवाल ने इस सन्दर्भ में लम्बी-चौड़ी बातें कर काफी जन-समर्थन जुटाया था. चुनाव प्रणाली में सुधार एक ऐसा विषय है यदि इसे साध लिया, तो व्यवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाएगी.

मशहूर लेखक गुरुचरण दास अपनी किताब “इंडिया अनबाउंड” में लिखते हैं कि भारत में 2025-30 तक मध्यम-वर्ग का आकार सकल आबादी का 50 फीसदी हो जाएगा और तब राजनीति का स्वरूप भी बदलने लगेगा. जनता बेहतर राजनीति की माँग करने लगेगी और साफगोई वाले नेता और इमानदार छवि की मांग बढ़ जाएगी. कुछ लोगों को केजरीवाल और उनके साथी इसका शुरुआती संकेत तो जरूर लगते हैं लेकिन केवल वही इसके एक मात्र विकल्प हैं (जैसा केजरीवाल दिखाने की कोशिश भी कर रहे हैं) ऐसा भी नहीं है.

निःसंदेह केजरीवाल ने अब तक सिर्फ एक छोटा सा मोर्चा फतह किया है. जंग जीतना तो अभी बहुत दूर की बात है. वो इस लड़ाई को जीत भी पाएंगे या नहीं? अभी ये भी कहना कठिन है.

पूर्व में स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह जी की मुहीम का हश्र हम सबों ने देखा है, वो भी तब जब वो प्रधान-मंत्री की कुर्सी पर भी आसीन हुए. सत्ता परिवर्तन एक त्वरित प्रक्रिया हो सकती है, लेकिन व्यवस्था -परिवर्तन एक दीर्घ-कालिक प्रक्रिया है. इस का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है व्यवस्था के साथ जुड़े तमाम लोगों की सोच में परिवर्तन और इस परिवर्तन को दो-चार या दस दिनों में हासिल नहीं किया जा सकता है. लोहिया की “सप्त-क्रांति” और जयप्रकाश की “सम्पूर्ण-क्रांति” दोनों के आंदोलनों से सत्ता परिवर्तन तो हुआ ( डाo लोहिया हिन्दी-भाषी उत्तर भारत के राज्यों में सत्ता परिवर्तन में सफल हुए, जयप्रकाश जी के आंदोलन से दिल्ली की सत्ता बदल गयी) पर व्यवस्था वही रही.

डा o लोहिया और जयप्रकाश निःसंदेह युग-पुरुष थे पर उनकी असफलता का कारण यह ही रहा कि उनके पास भी व्यवस्था परिवर्तन का कोई व्यापक वैकल्पिक स्वरूप नहीं था. वे पुरानी व्यवस्था को कोसते रहे पर नयी व्यवस्था क्या होगी और वह कैसे आ सकती है, इस बारे में उनके पास भी कोई प्रभावी विचार और कार्यक्रम नहीं था जो पूरे देश के सन्दर्भ में हो.

अपने आप को देश के सन्दर्भ में विकल्प के तौर पर प्रस्तुत करने के पहले टीम केजरीवाल को देश की जनता की मूलभूत समस्यायों से भी जुड़ना होगा, उसके बारे में भी अपना नजरिया लोगों तक पहुँचाना होगा. केवल दिल्ली, पानी, बिजली, लाल-बत्ती, भ्रष्टाचार ही व्यवस्था के पहूल नहीं हैं. जिस देश की जनता भूख, गरीबी, अशिक्षा, आवास, महंगाई, अकाल, बाढ़, माहमारी, जातिवाद, आतंकवाद और उग्रवाद से त्रस्त हो उसे एक दूर-दृष्टि और व्यापक दृष्टिकोण वाले अनुभवी विकल्प की ज़रूरत है.

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