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क्या बिहार में लालू की वापसी फिर से होगी?

Alok Kumar for BeyondHeadlines

लालू की एक अपनी ही अनूठी शैली है. कल जिस अंदाज में लालू दिखे लगा ही नहीं कि ये वही शख्स है जो 75 दिनों से ज्यादा जेल में रहकर आया है. वही पुरानी हंसी-ठिठोली, मसखरापन, मुंह में खैनी भी और ऊपर से पान भी… हाथों में माईक, भीड़ का चिर-परिचित अंदाज में नियंत्रण और अभिवादन…

कल एक चीज जो पहली बार देखने को मिली कि “लालू लोगों का अभिवादन लगातार ‘प्रणाम’ कह कर रहे थे. शायद जेल में पढ़ी गयी “गीता” का असर रहा हो या फिर ‘मद्धिम पड़ चुकी लालटेन की रोशनी को तेज़ करने का नया तिकड़म’…  एक बात तो तय है कि लालू की मौजूदगी चुनावी राजनीति को रोचक तो बनाएगी ही. साथ ही कुछ नए राजनीतिक समीकरणों को भी जन्म देगी.

लालू की राजनीतिक पहचान भी यही है कि उन्होंने हमेशा राजनीतिक विश्लेषकों के दावों के उल्ट कुछ अलग ही कर के दिखाया है. आगामी लोकसभा चुनावों में शायद कांग्रेस नीतिश की महत्वाकांक्षाओं की अपेक्षा लालू की मसखरी पसंद करे. लालू ने यू.पी.ए. की पहली पारी को जिस जतन से संजोया था, शायद कांग्रेस उसे भूली नहीं होगी. मुझे तो लगता है कि कांग्रेस और लालू के आंतरिक गठजोड़ की भनक राजनीतिक महारथियों को भी हो लग चुकी है.

इन सबसे इतर एक बात मैं निःसंकोच कह सकता हूँ कि बिहार की चुनावी सियासत में अगर व्यक्तिगत तौर पर किसी एक राजनेता का सबसे बड़ा और खुद का बनाया हुआ वोट-बैंक है तो वो लालू का है. भले ही लालू ने इसका दुरुपयोग किया और खुद का नाश खुद ही किया. बिहार में कोई लालू के पक्ष में रह सकता है. कोई विपक्ष में, लेकिन लालू को नज़रअंदाज कर बिहार की राजनीति नहीं की जा सकती है.

लालू समर्थकों, लालू की पार्टी के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों के आगामी लोकसभा चुनाव के प्रति उत्साह को देखकर लगता है कि किसी भी राजनीतिक दल ने आगामी चुनाव के मद्देनजर लालू को अगर हलके ढंग से लिया तो ये उनकी राजनैतिक भूल होगी. लालू और उनका कैडर पिछली बार की अपेक्षा इस बार के चुनाव को ज्यादा गंभीरता से ले रहा है.

गौरतलब है कि जिस दिन लालू को सजा हुई थी, उसी दिन ज.द.(यू) के शिवानंद तिवारी का मीडिया में बयान आया था कि “लालू के आधार वोट पर किसी तरह का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा.” ये सब जानते हैं कि बिहार में यादव और मुस्लिम लालू का आधार वोट है. भले ही दूसरी राजनीतिक पार्टियां मुस्लिम वोट बैंक पर अपना-अपना दावा पेश करती हों, लेकिन सच यही है कि आज भी मुस्लिमों को जितना भरोसा लालू प्रसाद पर है उतना किसी पर नहीं.

बिहार के चुनावों में जातिगत मुद्दे अत्यंत ही प्रभावकारी होते हैं और पिछले कुछ वर्षों में लालू अपनी जाति ‘यादवों’ को गोलबंद करने में काफी हद तक सफल हुए हैं. लालू -राबड़ी के 15 वर्षों के शासन-काल में निःसंदेह यादवों की दबंगई अपने परवान पर थी. यादवों का मनोबल और रुतबा अपने चरम पर था. नीतिश के शासन-काल में यादवों ने अपने आप को हाशिए पर खड़ा पाया, जिसकी कसक शायद यादवों को है और इसी को भूनाने में लालू सफल होते दिख रहे हैं. लालू यादवों को ये सन्देश देने में लगे हैं कि “बिना उनके (लालू के) उनका (यादवों का) राजनीतिक अस्तित्व नहीं है.”

अपने मतदाताओं से जुड़ने की कला में लालू सरीखा माहिर कोई भी राजनेता बिहार में नहीं है और यही अन्दाज़ लालू को बाकी राजनेताओं से अलग करता है. जेल जाने के पूर्व लालू जब भी सवर्णों के इलाके में गए. वो अपने शासन-काल में हुई गलतियों के लिए पश्चाताप करते या माफी माँगते भी दिखें. ये लालू की सोची -समझी रणनीति है.

हाल ही में “भूरा बाल साफ़ करो” जैसे अपने पूर्व के विवादास्पद बयानों से भी लालू पल्ला झाड़ते दिखे हैं और इशारों ही इशारों में इसकी जिम्मेवारी नीतिश पर डालते नज़र आए हैं. (ज्ञातव्य है कि उन दिनों दोनों नीतिश और लालू एक ही दल जनता दल में थे और नीतिश लालू के प्रमुख रणनीतिकार हुआ करते थे)

आज लालू इस बात से अच्छी तरह से अवगत हैं कि बिहार का सवर्ण मतदाता नीतिश से खफा और लालू इसको भुनाने का कोई भी अवसर गंवाना नहीं चाहते. लालू अपनी इस रणनीत में किस हद तक सफल हो पाते हैं ये तो अभी भविष्य के गर्त में है. लालू वापस बिहार की राजनीति में अपनी पुरानी पकड़ कायम कर पाते हैं या नहीं, जनता उनको कितना समर्थन देती है ये तो आगामी चुनावों में ही पता चल पाएगा!

(आलोक कुमार  पटना में पत्रकार व विश्लेषक हैं, उनसे alokkumar.shivaventures@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.)

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