अल्पसंख्यक समुदाय इस बार ‘अल्पसंख्यक अधिकार दिवस’ का बहिष्कार करेगा

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Saleem Baig for BeyondHeadlines

भारत में अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ बढ़ती हुई हिंसा तथा भेदभाव पूर्ण नीति को देखते हुए अल्पसंख्यक समुदाय इस वर्ष दिनांक 18 दिसम्बर 2013 को अल्पसंख्यक अधिकार दिवस समारोह का वहिष्कार करेगा, क्योंकि हाल ही में मुज़फ्फरनगर एवं आसपास के क्षेत्र में हुए साम्प्रदायिक दंगो के कारण अल्पसंख्यको की नसल पहचान कर बेगुनाह लोगों का क़त्ल-ए-आम इस बात का सबूत है कि गुजरात नरसंहार के 11 साल बाद भी सरकार मुसलमानों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकी है.

देश का आलम तो यह है कि कुछ लोग आज भी खुलेआम नफ़रत की गन्दी राजनीति खेल रहे हैं, लेकिन प्रदेश व केन्द्र सरकार तथा देश का कानून उनकी तरफ अपनी आँख मूंद कर बैठा हुआ है. वहीं दूसरी और बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तार किया जा रहा है. भारत का मुसलमान आज भी विकास के हर मामले में पिछडा हुआ है. लेकिन सरकार तथा राजनीति पार्टियां उन्हें वोट बैंक समझकर चुनाव आते ही लुभावने वादे करके बेवकूफ बनाते हैं.

साम्प्रदायिक हिंसा निरीक्षक विधेयक 2011, यूपीए-2 का चुनावी वादा था, लेकिन आज सरकार के चार साल बीत जाने के बाबजूद भी यह सिर्फ चुनावी वादे की तरह विलेपित होता जा रहा है. अगर आज यूपीए-2 सरकार देश तथा अल्पसंख्यक समुदाय के साथ किया हुआ वादा (सामान्य आयोग, सच्चर समिति की सिफारिश, मण्डल कमीशन रिर्पोट) निभाते हुए सांप्रदायिक हिंसा निरोधक कानून ले आती तो शायद हजारों बेगुनाह मुसलमानों की जिन्दगी बचाई जा सकती थी और उनकी ईबादतगाहें, मज़हबी किताबें व औरतों, बच्चो, बूढों की आबरुरेजी न होता. और नहीं उनका खुलेआम क़त्ल-ए-आम होता. और न हीं हजारों लोग अपने ही मुल्क में रिफ्यूजी कैम्पों में रहने को विवश होते कि दुनिया में आज तक इतनी बडी संख्या में लोग किसी भी देश में रिफ्यूजी कैम्पों में नहीं रहे हैं.

यह भी चिन्ताजनक और हास्यापद है कि उत्तर प्रदेश व केन्द्र सरकार ने अल्पसंख्यक मंत्रालय बनाकर अल्पसंख्यक समुदाय के साथ एक बहुत बडा मज़ाक किया है. अल्पसंख्यकों के नाम पर चलने वाली योजनाओं का बुरा हाल है. कोई निगरानी करने बाला नहीं है. मात्र घोषणाओं और समाचार पत्रों की खबरों के सिवा ज़मीन पर नाममात्र ही कुछ है. क्योंकि राज्य व केन्द्र सरकार ने देश के करीब 19 प्रतिशत आबादी के लिए सरकार अपने पूरे बजट का एक फिसद भी नहीं दिया है. जबकि देश के अन्य पिछडे समुदाय दलित (15 प्रतिशत जनसंख्या 9 प्रतिशत बजट शेयर) तथा आदिवासी  (7 फिसद जनसंख्या 5 फीसद बजट शेयर) के लिए सरकार ने ज्यादा बेहतर क़दम उठाये हैं.

इसी क्रम में सरकार तथा उनके चमचे, चुनावी मौसम देखकर अल्पसंख्यक अधिकार दिवस को भव्य तरीके से मनाने की कोशिश करेंगे, लेकिन  देश का अल्पसंख्यक समुदाय मुज़फ्फरनगर के दंगो के बाद सरकार व मौका-परस्त राजनीतिक पार्टियां तथा उनके चमचों की असलियत समझ चुका है. अब अल्पसंख्यक समुदाय किसी की वोट बैंक नहीं बनेंगे.

हम अल्पसंख्यक समुदाय विशेष रुप से मुसलमानों से आहवान करते हैं कि  देश के ग्रामसभा से लेकर जिला, राज्य व देश के अनेक हिस्सों में 18 दिसम्बर 2013 को अल्पसंख्यक समुदाय सरकार को अपना इरादा जाहिर कर देगें कि वह अल्पसंख्यक अधिकार दिवस मनाने का बहिष्कार कर रहे हैं.

स्पष्ट रहे कि संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 18 दिसम्बर 1992 को एक घोषणा पारित कर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों के संरक्षण एवं उनका कल्याण सुनिश्चित करने की व्यवस्था करने की मांग की गई थी. इस घोषणा को UN Deceleration on Minority के नाम से जाना जाता है.

अल्पसंख्यक अधिकार दिवस की शुरुआत संयुक्त राष्ट्र के संघ ने इस मक़सद के साथ की थी कि दुनिया में इस दिन अल्पसंख्यको के अधिकार की रक्षा के लिए नए-नए क़दम उठायें जायेंगे.

अल्पसंख्यक अधिकार दिवस एक ऐसे दिन के रुप में मनाना चाहिए कि अल्पसंख्क अपने आपको देश के मुख्य-धारा से जुडा हुआ महसूस करे. देश के विकास में अपने आपको सहभागी पाये. नफ़रत की भाषा बोलने वालों पर पूरी इंसानियत शर्म करे और धितकार भेजे, लेकिन आज अल्पसंख्यक अधिकार दिवस को अल्पसंख्यक समुदाय को वोट की राजनीति के तरह मनाया जाता है. आज अल्पसंख्यक विशेष रुप से मुसलमान उत्तर प्रदेश एवं देश के अधिकांश हिस्सों में पूर्ण रुप से सुरक्षित नहीं है और न ही उसकी ईबादतगाहें व मज़हबी किताबें महफूज़ हैं. एक तरफ अल्पसंख्यक समुदाय को दंगे की आग में झोंका जा रहा है और सरकार की तरफ से उल-जलूल ब्यान बाजी हो रही है. ऐसे में काहे का अधिकार और कैसा दिवस? हम सबको मिलकर इसका बहिष्कार करना चाहिए…

(लेखक उत्तर प्रदेश में मानव अधिकार कार्यकर्ता हैं.)

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